मजबूत दिखती हैं मगर पिटती हैं
आज महिला सशक्तीकरण की खूब चर्चा है। सरकार से लेकर मीडिया तक इस बात को दोहरा रहा है कि देश में महिलाओं की हालत में बदलाव आ गया है। अक्सर कुछ प्रसिद्ध महिलाओं की सफलता की मिसाल दी जाती है। यह सच है कि औरतों की हालत में सुधार हुआ है। वे सामाजिक-आर्थिक रूप से समर्थ हो रही हैं, लेकिन यह बदलाव एक खास तबके तक ही सीमित है। आज भी महिलाओं का बड़ा वर्ग पहले की तरह ही असहाय है। आज भी स्त्रियां भेदभाव और हिंसा का शिकार हो रही हैं। सशक्त समझी जाने वाली शिक्षित कामकाजी महिलाएं भी इससे बच नहीं पा रही हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान, बेंगलुरु और इंटरनैशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमन द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार उन शादीशुदा महिलाओं को, जो काम पर जाती हैं, घरेलू हिंसा का ज्यादा खतरा झेलना पड़ता है। जिन महिलाओं के पति को नौकरी मिलने में दिक्कत आ रही थी या नौकरी में मुश्किलें आ रही थी, उन्हें दोगुनी प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी। शोध मैं चौंकाने वाली बात यह थी कि प्रेम विवाह करने वाली महिलाएं भी बहुत ज्यादा हिंसा झेल रही थीं। परिवार में पहले हिंसा की शिकार मां हुआ करती थीं, अब बेटियां भी हो रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में पिछले दो दशकों में करीब 18 लाख बालिकाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं। हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं के मुताबिक उन बालिकाओं की जान को खतरा बढ़ जाता है, जिनकी मां घरेलू हिंसा की शिकार होती रही हैं। जबकि ऐसा खतरा बालकों को नहीं होता। शोध के मुताबिक पति की हिंसा की शिकार औरतों की बच्चियों को पांच वर्षों तक सबसे ज्यादा खतरा होता है। हालांकि इसकी एक बड़ी वजह उपेक्षा भी है। लड़कियों के टीकाकरण तक में लापरवाही बरती जाती है। बीमारी में उनका इलाज तक नहीं कराया जाता। भारत में इस समय करीब 21 लाख बच्चे हर साल मर जाते हैं। सहस्राब्दी विकास मानकों के तहत बाल मृत्यु दर में 2015 तक दो तिहाई कमी का लक्ष्य भारत ने रखा है, लेकिन फिलहाल लक्ष्य पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। इसलिए विशेषज्ञ कहते हैं कि घरों में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को समाप्त किया जाए तो हजारों बालिकाओं की जान बचाई जा सकती है। इसलिए लड़कियों के स्वास्थ्य संबंधी किसी भी कार्यक्रम और नीति को लागू करने में घरेलू हिंसा के पहलू पर ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है। विडंबना तो यह है कि भारत में पुरुषों का एक बड़ा तबका इस हिंसा को जायज ठहराता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे में इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य का खुलासा हुआ। इसमें आधे से ज्यादा लोगों ने हिंसा को सही ठहराया। ऐसे में बदलाव आए तो कैसे! महिलाओं को न जाने कितने मोर्चों पर यंत्रणा झेलनी पड़ती है। हिंदी फिल्मों का एक विदाई गीत है - मैं तो छोड़ चलीबाबुल का देस पिया का घर प्यारा लगे। दशकों से यह गाना बहुत लोकप्रिय रहा है पर अफसोस कि बाबुल का देसछोड़कर ससुराल जाने वाली बहुत सी महिलाओं के लिए यह बिल्कुल जले पर नमक छिड़कने जैसा मामला है। अपने बाबुल का देस छोड़कर कितनी ही महिलाएं इस उम्मीद के साथ दक्षिण एशिया की दहलीज लांघती हैं कि ब्रिटेन मेंअपने जीवन साथी के साथ उनके सपने पूरे होंगे। लेकिन दक्षिण एशिया से ब्रिटेन आकर विवाह करने वाली अनेकमहिलाओं के साथ ससुराल में घरेलू नौकरों की तरह बर्ताव होता है। वर्ष 2008-09 में आवास के लिए आवेदन करनेवाली महिलाओं में से 500 से अधिक को शादी टूटने के बाद देश से बाहर निकाल दिया गया। ये महिलाएं साबित नहींकर पाईं कि इनके साथ किसी तरह का उत्पीड़न हुआ है। महिलाओं के साथ यह भी एक बड़ी समस्या है। वह अक्सर अपनेसाथ हुए अत्याचार को साबित नहीं कर पातीं। घरेलू हिंसा को रोकने के लिए 2006 में कानून लाया गया था। लेकिनआज भी इस कानून को ढंग से अमल में नहीं लाया जा रहा है। जब तक समाज के नजरिए में बदलाव नहीं आएगा तब तकमहिलाओं की स्थिति नहीं बदले गी। |
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