कथनी कुछ करनी कुछ
Rajan Kumar
हमारे नेतागण भाषणबाजी में माहिर हैं। उनकी बातें बहुत प्यारी लगती हैं। उनके भाषण को सुनकर मन मयूर नाच उठता है कि चलो अब शायद समस्याओं का अंत हो जाएगा, क्योंकि मंत्री जी के समझ में सारी बात आ गई है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा नक्सलवाद से जूझ रहा हैं और इसे खत्म करने के लिए तरह-तरह के उपाय सोचे जा रहे हैं, फिर भी इसे खत्म नहीं किया जा सका है। जबकि सभी मंत्री और अधिकारी इसे खत्म करने का मूल मंत्र ‘‘नक्सल प्रभावित क्षेत्र का चहुंमुखी विकास’’ का राग अलाप चुके है। पिछले दिनों जब पश्चिम बंगाल में ममता ने सत्ता संभाला तो घोषणा की कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए विकास का रास्ता अपनाया जाएगा। आखिरकार सरकार को विकास के बजाय बंदूक का सहारा लेना पड़ गया। इसी तरह पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने भी घोषणा किया था कि मओवादिओं से निबटने के लिए बंदूक नहीं विकास का रास्ता सही है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले में पिछले साल नक्सली हमले कि एक घटना में 76 सुरक्षा कर्मी मारे गए थे। फिर भी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा था कि अकेले सैनिक कार्रवाई से नक्सलिओं पर विजय नहीं मिलेगा। उनके मुकाबले के लिए हमें तीर और तलवार नहीं शिक्षा, इलाज, कृषि और विकास का हथियार अपनाना होगा। हमें शिक्षा, चिकत्सा और विकास के रास्ते उनका ह्रदय जीतना होगा। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भूमि सुधारों पर भी जोर दिया।
माओवादियों की पीठ पर सवार होकर मां माटी मानुष का नारा देकर पंश्चिम बंगाल की सत्ता में बड़ा उलटफेर करने वाली ममता बनर्र्जी अब पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर आ गई है। ‘‘गणतंत्र अधिकार बचाओ’’ संघ को रैली की इजाजत न दिए जाने पर बुद्धिजीवी वर्ग इतना नाराज है कि तृणमूल की ममता बनर्र्जी सरकार को फासीवादी तक कह दिया। पूर्ववर्र्ती वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ संघर्ष के दिनों में ममता बनर्र्जी का साथ देने वाली सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने 21 नवंबर को पश्चिम बंगाल सरकार को 'फासीवादी' करार दिया। महाश्वेता ने यह टिप्पणी तब की जब लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संघ (एपीडीआर) को कोलकाता के केंद्रीय इलाके में स्थित मेट्रो चैनल में रैली करने की अनुमति नहीं दी गई।
अपने उपन्यास '1084 की मां' के लिए चर्चित एवं मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित लेखिका ने कहा कि वाम शासन के दौरान मैंने उसकी अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध किया था, लेकिन अब मैं देख रही हूं कि नई सरकार विरोध के स्वर को दबाने का प्रयास कर रही है। मैं इसकी निंदा करती हूं..हम कहीं फासीवादी युग में तो प्रवेश नहीं कर गए हैं? उन्होंने कहा कि आजादी के बाद 64 वर्षों में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यह फासीवाद के अलावा और कुछ नहीं है, हम फासीवाद का समर्थन कैसे कर सकते हैं? महाश्वेता ही नहीं, अभिनेत्री अपर्णा सेन, नाटककार विभास चक्रवर्र्ती,
सुमन मुखोपाध्याय, लेखिका सुचित्र भट्टाचार्य, गायक प्रतुल्ल मुखोपाध्याय, कवि शंख
घोष सहित कई और बुद्धिजीवियों ने पश्चिम बंगाल सरकार के इस कदम की तीखी आलोचना की।
मसला जंगलमहल (वनक्षेत्र) में माओवादियों के विरुद्ध अभियान का है। यह रैली दरअसल इन्हीं मांगों को लेकर आयोजित की गई थी, जिसका मकसद जंगल महल के माओवादियों के विरुद्ध कारर्वाई करने से पहले जंगलमहल के विकास पर ध्यान दिया जाए। बुद्धिजीवियों का कहना है कि हम लोगों ने चुनाव से पहले ममता बनर्र्जी के समर्थन में रैलियां निकाली थीं और हम तृणमूल की सरकार बनाने में ममता बनर्र्जी की मदद भी किए ताकि राज्य के कई ज्वलंत मुद्दों का समाधान हो सके, जंगलमहल का विकास हो सके, लेकिन ममता बनर्जी ने सरकार बनने के 6 महीने बाद ही अपना असली चेहरा दिखा दिया।
गौरतलब है कि ममता बनर्र्जी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राष्ट्रपति प्रतिभा पािटल समेत देश के नेता, केंद्रीय मंत्री और बुद्धिजीवी वर्ग भी यह स्वीकार कर थक चुके हैं कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों मे विकास नही होने के कारण ही नक्सलवाद पनपा है। फिर यह समझ में नही आ रहा ममता जंगलमहल में विकास की आंधी चलाने से पहले नक्सलियों के विरुद्ध कारर्वाई क्यों कर रही हैं? ममता तो जंगलमहल के विकास के लिए केंद्र से लेकर राज्य तक एक कर दिया ताकि जल्द से जल्द जंगलमहल में विकास की रोशनी आए, लेकिन अचानक उनकी भावनाएं और रवैया बदल कैसे गया? यह विचारणीय तथ्य है। जंगलमहल मेें माओवादियों से ममता ने शांति बनाए रखने के लिए अपील की, लेकिन भूख से मरते ये लोग कब तक शांति कायम रखें। ज्वलंत मुद्दों का त्वरित निपटारा और क्षेत्र का विकास करके ही शांति की अपील की जा सकती हैै। जबकि ममता बगैर कोई विकास कार्य किए ही उनसे शांति की अपील कर रहीं है और वे वहां भूखे मर रहें है। हकीकत तो यह है कि इन क्षेत्रों के आदिवासियों के पास खोने को कुछ भी नही है। इन क्षेत्रों में खाना तो दूर, पीने का पानी तक सरकार मुहैया नही करा सकी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी। इसके लिए इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली तो यहीं बताता है कि इलाके में यह नए दौर के जमींदार है। जिनके पास सब कुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सब कुछ, जबकि गांव के कुओं में सीपीएम काडर केरोसिन तेल डाल देते है, जिससे गांववाले पानी ना पी सके। और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है, सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। जंगल-गांव की तरह यहां के आदिवासी रहते है। यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इनके भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना या किसी सरकारी अधिकारी को नफरत की नजर से देखते हैं। क्योंकि पिछले 30 वर्षों में यहां आदिवासी भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख 74 हजार से बढ़कर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। विकास तो यहां सपना है। क्या ऐसे में शांति की संभावना की जा सकती है?
जंगलमहल में सुरक्षा बलों को तैनात करने से पहले केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी कहा था कि युद्ध के द्वारा नक्सलियों को समाप्त नही किया जा सकता। जबकि पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग भी ममता के इस कदम को पूरजोर विरोध कर रहें है। ममता तृणमूल कार्यकर्ताओं की हत्या से बदले की भावना से चूर हो चुकी है और जंगलमहल के धरती को फिर एक बार लाल करना चाहती है। अगर माओवादी जंगलमहल में तृणमूल कार्यकर्ताओं की हत्या कर रहें है तो इसका मतलब यह नही कि ममता इसके लिए जंगलमहल के आदिवासियों को खतरे में डाल दें और आदिवासी खुलेआम नक्सलियों और सुरक्षाबलों के गोलियों का निशाना बने। ममता बनर्र्जी को चाहिए कि वे सुरक्षा बलों को जनता की सुरक्षा में लगाए और जंगलमहल के विकास पर जोर दें। माओवादी किसी की हत्या भी नही कर पाएंगे और विकास से जंगलमहल के आदिवासी सरकार के विश्वास में आएंगे।
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Saturday, December 3, 2011
Friday, November 18, 2011
बीरबल की खिचड़ी है उत्तर प्रदेश का बंटवारा
27 मार्च 1999 को गिरीश कर्नाड को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करते हुए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने राजनीति के बारे में कुछ ऐसा कहा था कि राजनीति सबसे दिलचस्प नाटक है, जिसमें आदमी ऊबता नहीं है। समझ में नहीं आता जिस काल में हम जी रहे हैं उसे चित्रित करने के लिए किस प्रकार का नाटक किया जाएगा अथवा लिखा जाएगा। यह सच्चाई है कि आज आदर्शवाद नाममात्र का रह गया है और सत्ता की सिद्धान्तहीन राजनीति उसका स्थान ले रही है। उ.प्र. की कैबिनेट ने प्रदेश को चार भागों में बांटने का निर्णय लिया है। अपने क्रियाकलापों से लोगों की नजरों से गिर चुकी सरकार लोगों की नजरों में पुनः चढ़ने के लिए कोई भी कोर कसर छोड़ना नहीं चाहती। इसलिए उसने अब लोगों की भावनाओं को उभार कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रदेश विभाजन का शिगूफा छोड़ा है जो सिद्धान्तहीन राजनैतिक उदाहरण कहा जा सकता है। जाहिर है कि अन्य दल भी पीछे क्यों रहें उन्होंने भी अपने-अपने अंदाज में इस निर्णय को परिभाषित करते हुए बयानबाजी की है। प्रदेश की जनता किसकी बात पर भरोसा किया जाए इस बारे में अलग-अलग राय रखती है वैसे राजनीति की अपनी एक अलग जुबान होती है जब नेता कहे हां उसे ना समझना चाहिए और जब कहे ना तो उसे हाॅं समझना चाहिए।
प्रदेश बंटवारे पर लोगों ने इसे महज चुनावी स्टंट, पैतरेबाजी, शिगूफा व मायावती का आखिरी चुनाव अस्त्र ही कहा है। राज्य के विभाजन का प्रकरण बीरबल की उसी खिचड़ी की तरह है जो कभी पक नहीं सकी। बसपा सरकार के पिछले साढे़ चार वर्ष के कार्यकाल पर नजर डाले तो देश के कभी उत्तम प्रदेश कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश को इस सरकार ने आम प्रदेश से भी नीचे पहुंचा दिया है। भयंकर भ्रष्टाचार, महिलाओं पर अत्याचार, किसानों, नौजवानों, व्यापारियों का घोर उत्पीड़न हुआ है। प्रदेशवासी तानाशाही सरकार के आगे बेबस है। हालत ऐसी हो गई है जो इसके विरूद्ध में बोलेगा वो झेलेगा। आम आदमी की तो सरकार के विरूद्ध बोलने की स्थिति क्या होती होगी जब प्रदेश के उच्च अधिकारियों को भी पागल करार दिया जाता है। जिसका ताजा उदाहरण आईपीएस अधिकारी डी.डी.मिश्र हैं। डीडी मिश्र के अनुसार वरिष्ठ आईपीएस हरमिन्दर राज की आत्महत्या को भी उन्होंने हत्या की गई बताया। अन्य किसी ने जब भी जुबान खोलने की जुरर्त की उनको महत्वहीन पदों पर भेजकर अपमानित किया गया। उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी के कुशासन से निजात पाने के लिए जनता ने बसपा पर भरोसा कर उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनावाई थी बसपा ने नारा दिया था चढ़ गुण्डन की छाती पर मोहर लगाओ हाथी पर, आज इसका ठीक उल्टा देखने का मिल रहा है, गुण्डे चढ़ गए हाथी पर गोली मार रहे हैं जनता की छाती पर। इस सरकार ने तत्कालीन सपा सरकार के सारे रिकार्डो को तोड़ते हुए प्रदेश को विकास की जगह विनाश की जगह खड़ा कर दिया है। सपा राज में आम आदमी की दुर्दशा, अपराधियों का बुलन्द हौसला, अराजकता, अलगाववाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिक तनाव, संसदीय मर्यादाओं का हनन, महिलाओं व व्यापारियों का उत्पीड़न, वोट के लोभ में विद्वेष आदि फैलाने की राजनीति खूब हुई। सपा राज में अराजकता और अपराध चरम पर पहुंच गई, हत्या अपहरण और पुलिस हिरासत में मौतों से उ.प्र. देश में शर्मसार था। उस समय के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 12 हजार से अधिक हत्याएं हुई। विधायक राजूपाल, किशनानन्द राय और अजीत सिंह को गोलियां बरसा कर मौत की नींद सुला दिया गया। इसी तरह पूर्व विधायकों तथा सांसदों को जिला पंचायत सदस्यों, बीडीसी सदस्यों व प्रधानों और उनके परिवार के लोगों तथा विपक्षीय दलों के कार्यकर्ताओं की राजनीतिक विद्वेष के कारण हत्याएं हुई। जमीनों, मकानों, दुकानों पर कब्जे होना आम बात की गई। नामी छपे हुए अपराधियों पर से मुकदमें वापस हो रहे हैं। निरअपराध लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाया गया। खाकी वर्दी की लूट की घटनाएं भी खूब हुई। जनता भयभीत थी, सरकार अपराधियों और माफियाओं का खुलकर समर्थन कर रही थी उस समय भी प्रदेश के मंत्री परिसर में अपराध, भ्रष्टाचार व तस्करी में लिप्त लोग शामिल थे। उस राज में हुए लगभग सारे चुनाव पुलिस एवं माफिया की दबंग राजनीति का शिकार हुए। राजनीति का अपराधी करण और अपराध का राजनीतिकरण हुआ उस समय भी प्रदेश की स्थिति जंगलराज से बदत्तर थी। नौकरशाही सत्तारूढ़ दल की धमकियों के आगे भयग्रस्त थी। प्रशासन व पुलिस के अनेक अधिकारी समाजवादी पार्टी के एजेण्ट के रूप में काम कर रहे थे। पुलिस, अपराधी और सत्तारूढ़ दल के नापाक गठबंधन के कारण प्रदेष में अपराध बढ़ रहे हैं और अपराधी भी निर्भय होकर घूम रहे हैं। एक सम्प्रदाय द्वारा समानान्तर न्याय प्रणाली, सरीय अदालतें चलाई गई। हिन्दुओं के पवित्र धाम स्थिति राम मन्दिर पर आतंकवादी हमला, मऊ में हिन्दुओं का नरसंहार, वाराणसी के प्राचीन संकटमोचन मंदिर व रेलवे स्टेशन पर विस्फोेट हुआ था। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण व वोट बैंक के लिए अपराधियों के विरूद्ध कार्रवाई न करना सरकार की नीति बन गई थी। सामान्य त्यौहारों पर भी हमले हुए और गौहत्या धड़ल्ले से जारी थी।
उल्लेखनीय है कि प्रदेश बंटवारे का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी सरकार ने उस समय सरकार के सहयोग दल के रूप में प्रदेश के बंटवारे की मांग करने वाले लोकदल सपा सरकार का हिस्सा था। लोकदल प्रदेश को विभाजित कर देश की राजनीति में उ.प्र. के महत्व को कम करना चाहता था। लाखों की संख्या में बेराजगार, नौजवानों को सरकार से निराशा ही मिली, धन और जाति को बढ़ावा दिया गया, नौकरियों में भर्ती घोटाला हुआ, उ.प्र. भ्रटाचार और घोटालों का प्रदेश बना। एक दो राजनीति परिवार देखते ही देखते करोड़ों के सम्पत्ति के स्वामी बन गए। नोयडा की बेशकीमती भूमि कुछ लोगों की जागीर हो गई थी। मासूम बच्चों के साथ दुराचार कर उनकी हत्या, करने वाला निठारी कांड आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। यह सब बसपा को सत्ता से उखाड़ कर प्रदेश को विकास और सुशासन देने की बात करने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार की कुछ बानगी भर है। वर्तमान बसपा सरकार की भी यही नीति है। घोर भ्रष्टाचार, जातीय विद्वेष, महिलाओं का उत्पीड़न, बसपा की प्राथमिकता है। दोनों दलों ने अति पिछड़े अति दलितों को राजनाथ सिंह सरकार द्वारा दिए गए लाभ को तानाशाही तरीके से छीेना। बसपा सरकार ने सपा से दो हाथ आगे बढ़कर प्रदेश को नुकसान पहुंचाया है। साढ़े चार वर्ष के शासन में भ्रष्टाचार को नई पहचान देकर उसे शिष्टाचार बना दिया। पहले भ्रष्टाचार प्रतिशत में होता था अब उसने लूट का रूप धारण कर लिया। अनेक मंत्रियों को अपना पद गंवाना पड़ा व जेल जाना पड़ा। महिलाओं पर जुल्म ढाए जा रहे हैं यहां तक की थानों में मासूल बच्चियों के साथ बलात्कार कर उनके शव को पेड़ से लटकाया जाता है। फैजाबाद की एक शिक्षिका स्कूल से पढ़ाकर जब अपने घर आ रही थी तब दिन दहाड़े उसक अस्मत लूटकर उसकी हत्या कर दी गई। ऐसी शर्मसार करने वाली घटनाएं प्रदेश में हुई। उपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जमीन आंवटन, गु्रप हाउसिंग योजनाओं में सरकारी हिस्सेदारी जान पड़ती है। भाजपा इसे माया कमीशन का नाम दिया। भाजपा का कहना है कि हर काम पर तभी मोहर लगती है जब माया कमीशन जमा हो जाता है। 12 जून 2011 को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह नेताओं ने महामहिम राष्ट्रपति को मायावती सरकार द्वारा घोटाले कर 2 लाख 54 करोड़ रूपए लूट का सिलसिलेवार आरोप पत्र दिया था। सपा और बसपा दोनों दलों के मुखियाओं पर आए से अधिक सम्पत्ति रखने का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है और निर्णायक दौर में है। गुजरात, केरल व तमिलनाडु अच्छे शासन के कारण टांप थ्री राज्य में है। वहीं छत्तीसगढ़, म.प्र., हिमाचल प्रदेश, आन्ध प्रदेश को रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, जलवायु, आधारभूत संरचना में अग्रणीय होने के कारण सम्मानित किया गया है। उ.प्र. को किसी भी क्षेत्र में सम्मान नहीं मिला है। सपा व बसपा में अनेकों समानताएं हैं। सिद्धान्तहीनता स्वार्थहित तथा वोट वैंक को केन्द्र में रखकर राजनीति आधारित क्षेत्रीय दलों में आगे भी रहेंगी। यहां मुख्य मुद्दे पर कोई आता नहीं खिचड़िया बीरबल सी पक रही हैं बस। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमें यह मंत्र दिया था कि ’यदि कोई दुविधा हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए। तुम्हें भारत के उस सबसे असहाय व्यक्ति के बारे में सोचना और स्वयं से पूछना चाहिए कि तुम जो कुछ करने जा रहे हो उससे उस व्यक्ति की भलाई होगी क्या’। इन क्षेत्रीय दलों को समझने के लिए गांधी का यह पैमाना आज भी कारगर है।
27 मार्च 1999 को गिरीश कर्नाड को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करते हुए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने राजनीति के बारे में कुछ ऐसा कहा था कि राजनीति सबसे दिलचस्प नाटक है, जिसमें आदमी ऊबता नहीं है। समझ में नहीं आता जिस काल में हम जी रहे हैं उसे चित्रित करने के लिए किस प्रकार का नाटक किया जाएगा अथवा लिखा जाएगा। यह सच्चाई है कि आज आदर्शवाद नाममात्र का रह गया है और सत्ता की सिद्धान्तहीन राजनीति उसका स्थान ले रही है। उ.प्र. की कैबिनेट ने प्रदेश को चार भागों में बांटने का निर्णय लिया है। अपने क्रियाकलापों से लोगों की नजरों से गिर चुकी सरकार लोगों की नजरों में पुनः चढ़ने के लिए कोई भी कोर कसर छोड़ना नहीं चाहती। इसलिए उसने अब लोगों की भावनाओं को उभार कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रदेश विभाजन का शिगूफा छोड़ा है जो सिद्धान्तहीन राजनैतिक उदाहरण कहा जा सकता है। जाहिर है कि अन्य दल भी पीछे क्यों रहें उन्होंने भी अपने-अपने अंदाज में इस निर्णय को परिभाषित करते हुए बयानबाजी की है। प्रदेश की जनता किसकी बात पर भरोसा किया जाए इस बारे में अलग-अलग राय रखती है वैसे राजनीति की अपनी एक अलग जुबान होती है जब नेता कहे हां उसे ना समझना चाहिए और जब कहे ना तो उसे हाॅं समझना चाहिए।
प्रदेश बंटवारे पर लोगों ने इसे महज चुनावी स्टंट, पैतरेबाजी, शिगूफा व मायावती का आखिरी चुनाव अस्त्र ही कहा है। राज्य के विभाजन का प्रकरण बीरबल की उसी खिचड़ी की तरह है जो कभी पक नहीं सकी। बसपा सरकार के पिछले साढे़ चार वर्ष के कार्यकाल पर नजर डाले तो देश के कभी उत्तम प्रदेश कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश को इस सरकार ने आम प्रदेश से भी नीचे पहुंचा दिया है। भयंकर भ्रष्टाचार, महिलाओं पर अत्याचार, किसानों, नौजवानों, व्यापारियों का घोर उत्पीड़न हुआ है। प्रदेशवासी तानाशाही सरकार के आगे बेबस है। हालत ऐसी हो गई है जो इसके विरूद्ध में बोलेगा वो झेलेगा। आम आदमी की तो सरकार के विरूद्ध बोलने की स्थिति क्या होती होगी जब प्रदेश के उच्च अधिकारियों को भी पागल करार दिया जाता है। जिसका ताजा उदाहरण आईपीएस अधिकारी डी.डी.मिश्र हैं। डीडी मिश्र के अनुसार वरिष्ठ आईपीएस हरमिन्दर राज की आत्महत्या को भी उन्होंने हत्या की गई बताया। अन्य किसी ने जब भी जुबान खोलने की जुरर्त की उनको महत्वहीन पदों पर भेजकर अपमानित किया गया। उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी के कुशासन से निजात पाने के लिए जनता ने बसपा पर भरोसा कर उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनावाई थी बसपा ने नारा दिया था चढ़ गुण्डन की छाती पर मोहर लगाओ हाथी पर, आज इसका ठीक उल्टा देखने का मिल रहा है, गुण्डे चढ़ गए हाथी पर गोली मार रहे हैं जनता की छाती पर। इस सरकार ने तत्कालीन सपा सरकार के सारे रिकार्डो को तोड़ते हुए प्रदेश को विकास की जगह विनाश की जगह खड़ा कर दिया है। सपा राज में आम आदमी की दुर्दशा, अपराधियों का बुलन्द हौसला, अराजकता, अलगाववाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिक तनाव, संसदीय मर्यादाओं का हनन, महिलाओं व व्यापारियों का उत्पीड़न, वोट के लोभ में विद्वेष आदि फैलाने की राजनीति खूब हुई। सपा राज में अराजकता और अपराध चरम पर पहुंच गई, हत्या अपहरण और पुलिस हिरासत में मौतों से उ.प्र. देश में शर्मसार था। उस समय के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 12 हजार से अधिक हत्याएं हुई। विधायक राजूपाल, किशनानन्द राय और अजीत सिंह को गोलियां बरसा कर मौत की नींद सुला दिया गया। इसी तरह पूर्व विधायकों तथा सांसदों को जिला पंचायत सदस्यों, बीडीसी सदस्यों व प्रधानों और उनके परिवार के लोगों तथा विपक्षीय दलों के कार्यकर्ताओं की राजनीतिक विद्वेष के कारण हत्याएं हुई। जमीनों, मकानों, दुकानों पर कब्जे होना आम बात की गई। नामी छपे हुए अपराधियों पर से मुकदमें वापस हो रहे हैं। निरअपराध लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाया गया। खाकी वर्दी की लूट की घटनाएं भी खूब हुई। जनता भयभीत थी, सरकार अपराधियों और माफियाओं का खुलकर समर्थन कर रही थी उस समय भी प्रदेश के मंत्री परिसर में अपराध, भ्रष्टाचार व तस्करी में लिप्त लोग शामिल थे। उस राज में हुए लगभग सारे चुनाव पुलिस एवं माफिया की दबंग राजनीति का शिकार हुए। राजनीति का अपराधी करण और अपराध का राजनीतिकरण हुआ उस समय भी प्रदेश की स्थिति जंगलराज से बदत्तर थी। नौकरशाही सत्तारूढ़ दल की धमकियों के आगे भयग्रस्त थी। प्रशासन व पुलिस के अनेक अधिकारी समाजवादी पार्टी के एजेण्ट के रूप में काम कर रहे थे। पुलिस, अपराधी और सत्तारूढ़ दल के नापाक गठबंधन के कारण प्रदेष में अपराध बढ़ रहे हैं और अपराधी भी निर्भय होकर घूम रहे हैं। एक सम्प्रदाय द्वारा समानान्तर न्याय प्रणाली, सरीय अदालतें चलाई गई। हिन्दुओं के पवित्र धाम स्थिति राम मन्दिर पर आतंकवादी हमला, मऊ में हिन्दुओं का नरसंहार, वाराणसी के प्राचीन संकटमोचन मंदिर व रेलवे स्टेशन पर विस्फोेट हुआ था। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण व वोट बैंक के लिए अपराधियों के विरूद्ध कार्रवाई न करना सरकार की नीति बन गई थी। सामान्य त्यौहारों पर भी हमले हुए और गौहत्या धड़ल्ले से जारी थी।
उल्लेखनीय है कि प्रदेश बंटवारे का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी सरकार ने उस समय सरकार के सहयोग दल के रूप में प्रदेश के बंटवारे की मांग करने वाले लोकदल सपा सरकार का हिस्सा था। लोकदल प्रदेश को विभाजित कर देश की राजनीति में उ.प्र. के महत्व को कम करना चाहता था। लाखों की संख्या में बेराजगार, नौजवानों को सरकार से निराशा ही मिली, धन और जाति को बढ़ावा दिया गया, नौकरियों में भर्ती घोटाला हुआ, उ.प्र. भ्रटाचार और घोटालों का प्रदेश बना। एक दो राजनीति परिवार देखते ही देखते करोड़ों के सम्पत्ति के स्वामी बन गए। नोयडा की बेशकीमती भूमि कुछ लोगों की जागीर हो गई थी। मासूम बच्चों के साथ दुराचार कर उनकी हत्या, करने वाला निठारी कांड आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। यह सब बसपा को सत्ता से उखाड़ कर प्रदेश को विकास और सुशासन देने की बात करने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार की कुछ बानगी भर है। वर्तमान बसपा सरकार की भी यही नीति है। घोर भ्रष्टाचार, जातीय विद्वेष, महिलाओं का उत्पीड़न, बसपा की प्राथमिकता है। दोनों दलों ने अति पिछड़े अति दलितों को राजनाथ सिंह सरकार द्वारा दिए गए लाभ को तानाशाही तरीके से छीेना। बसपा सरकार ने सपा से दो हाथ आगे बढ़कर प्रदेश को नुकसान पहुंचाया है। साढ़े चार वर्ष के शासन में भ्रष्टाचार को नई पहचान देकर उसे शिष्टाचार बना दिया। पहले भ्रष्टाचार प्रतिशत में होता था अब उसने लूट का रूप धारण कर लिया। अनेक मंत्रियों को अपना पद गंवाना पड़ा व जेल जाना पड़ा। महिलाओं पर जुल्म ढाए जा रहे हैं यहां तक की थानों में मासूल बच्चियों के साथ बलात्कार कर उनके शव को पेड़ से लटकाया जाता है। फैजाबाद की एक शिक्षिका स्कूल से पढ़ाकर जब अपने घर आ रही थी तब दिन दहाड़े उसक अस्मत लूटकर उसकी हत्या कर दी गई। ऐसी शर्मसार करने वाली घटनाएं प्रदेश में हुई। उपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जमीन आंवटन, गु्रप हाउसिंग योजनाओं में सरकारी हिस्सेदारी जान पड़ती है। भाजपा इसे माया कमीशन का नाम दिया। भाजपा का कहना है कि हर काम पर तभी मोहर लगती है जब माया कमीशन जमा हो जाता है। 12 जून 2011 को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह नेताओं ने महामहिम राष्ट्रपति को मायावती सरकार द्वारा घोटाले कर 2 लाख 54 करोड़ रूपए लूट का सिलसिलेवार आरोप पत्र दिया था। सपा और बसपा दोनों दलों के मुखियाओं पर आए से अधिक सम्पत्ति रखने का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है और निर्णायक दौर में है। गुजरात, केरल व तमिलनाडु अच्छे शासन के कारण टांप थ्री राज्य में है। वहीं छत्तीसगढ़, म.प्र., हिमाचल प्रदेश, आन्ध प्रदेश को रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, जलवायु, आधारभूत संरचना में अग्रणीय होने के कारण सम्मानित किया गया है। उ.प्र. को किसी भी क्षेत्र में सम्मान नहीं मिला है। सपा व बसपा में अनेकों समानताएं हैं। सिद्धान्तहीनता स्वार्थहित तथा वोट वैंक को केन्द्र में रखकर राजनीति आधारित क्षेत्रीय दलों में आगे भी रहेंगी। यहां मुख्य मुद्दे पर कोई आता नहीं खिचड़िया बीरबल सी पक रही हैं बस। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमें यह मंत्र दिया था कि ’यदि कोई दुविधा हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए। तुम्हें भारत के उस सबसे असहाय व्यक्ति के बारे में सोचना और स्वयं से पूछना चाहिए कि तुम जो कुछ करने जा रहे हो उससे उस व्यक्ति की भलाई होगी क्या’। इन क्षेत्रीय दलों को समझने के लिए गांधी का यह पैमाना आज भी कारगर है।
Saturday, October 22, 2011
वाह शांति तिग्गा
राजन कुमार
ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी भारतीय महिला ने प्रशंसनीय काम नही किया था। इंदिरा गांधी से लेकर किरण बेदी, प्रतिभा पाटिल, सुनीता विलियम्स, मायावती, पीटी उषा या सरोजिनी नायडू इत्यादि ने अपने कार्य क्षेत्र मे एक अद्भुत कार्य कारनामा किया जिसकी खूब प्रशंसा भी की गई। उस समय (जब अद्भुत कारनामा किया) ये महिलाएं कई दिनों तक सुर्खियां बनी रहीं। इस श्रेणी में एक और नया नाम जुड़ गया है ‘‘शांति तिग्गा’’। आदिवसी बाला शांति तिग्गा भारत ही नही, विश्व की पहली महिला जवान हैं जिसने इतने कड़े मेहनत के बाद एकमात्र महिला जवान बनने का गौरव हासिल किया। शांति तिग्गा के कारनामे उपरोक्त महिलाओं से कहीं बहुत अद्भुत है, इसके बावजूद इस आदिवासी महिला और प्रथम महिला जवान को वो सम्मान, प्रशंसा नही मिला जो उपरोक्त महिलाएं किरण बेदी, सुनीता विलियम्स सरीखे महिलाओं को मिला(शांति तिग्गा: डेढ़ लाख पुरुष जवानों के बीच एकमात्र महिला जिन्होने डेढ़ लाख पुरुषों को पछाड़ कर ट्रायल के दो विभाग में प्रथम और एक विभाग में द्वितीय स्थान हासिल किया)। ऐसा अद्भुत कारनामा करने के बावजूद इस महिला जवान को वो प्रशंसा, वो सम्मान क्यों नही मिला? क्या वो आदिवासी थी? इसलिए। आखिर हमारा देश, हमारा समाज आदिवासियों के प्रति इतना सौतेला व्यवहार कैसे करता है? क्यों करता है?
आदिवासी हमारे समाज का वह व्यक्ति है जो बहुत पुराने समय से इस देश की धरती पर वास करता आया है और इस जमीन का मालिक भी है, फिर आदिवासियों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जाता है? भारत की एक बड़ी आबादी ‘‘आदिवासी’’ के साथ हम ऐसे नही कर सकते है। हमें आदिवासियों को भी समाज के मुख्य धारा से जोड़ना पड़ेगा, आदिवासियों का हौसला बढ़ाना पड़ेगा और इनके विकास पर विशेष ध्यान देना होगा। आज आदिवासियों इस पिछड़ेपन की जिम्मेदार सरकार और समाज है जो इनके भोलेपन का फायदा उठा कर इनके साथ हमेशा गलत व्यवहार किया गया है।
शांति तिग्गा जब भारत की पहली महिला जवान बनी तो एकाध अखबारों ने जरुर छापा था लेकिन अंदर के पन्नो पर किसी कोने में, जहां शायद ही किसी का नजर पड़े। जबकि उपरोक्त महिलाओं के लिए सभी अखबारों ने, चैनलो ने तब जोरशोर से प्रकाशित किया था। कई संगठनों ने, राज्य सरकार, केन्द्र सरकार और अन्य लोगों ने सम्मानित किया था। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज उससे भी बेहतर कारनामा करने वाली पहली महिला जवान शांति तिग्गा के साथ मीडिया, समाज और केन्द्र से लेकर राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन ने सौतेला व्यवहार किया है। जब किसी खेल मे भी कोई टीम जीत दर्ज करती है तो उसे पुरस्कृत और सम्मानित किया जाता है,लेकिन शांति तिग्गा के इस असाधारण कारनामें के लिए सम्मानित न करके शांति तिग्गा की अवहेलना किया गया है, महिला पक्ष और आदिवासी पक्ष का अवहेलना किया गया है। एक तरफ जहां सरकार बेटी बचाओ अभियान चला रही है, आदिवासियों का हितैषी बता रही है, आदिवासियों के विकास के दावे कर रही है वहीं दूसरी तरफ उभरते आदिवासी विलक्षणों की अवहेलना कर रही है। सरकार को अपनी गलती सुधारने की जरुरत है। शांति तिग्गा जैसे विलक्षण आदिवासी महिला को विशेष रुप से सम्मानित करने की जरुरत है, शांति तिग्गा का हौसला बढ़ाने हेतु एक बेहतर राशि प्रदान करने की जरुरत है। ताकि आने वाले विलक्षण आदिवासियों को एक बेहतर रास्ता मिल सके।
राजन कुमार
ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी भारतीय महिला ने प्रशंसनीय काम नही किया था। इंदिरा गांधी से लेकर किरण बेदी, प्रतिभा पाटिल, सुनीता विलियम्स, मायावती, पीटी उषा या सरोजिनी नायडू इत्यादि ने अपने कार्य क्षेत्र मे एक अद्भुत कार्य कारनामा किया जिसकी खूब प्रशंसा भी की गई। उस समय (जब अद्भुत कारनामा किया) ये महिलाएं कई दिनों तक सुर्खियां बनी रहीं। इस श्रेणी में एक और नया नाम जुड़ गया है ‘‘शांति तिग्गा’’। आदिवसी बाला शांति तिग्गा भारत ही नही, विश्व की पहली महिला जवान हैं जिसने इतने कड़े मेहनत के बाद एकमात्र महिला जवान बनने का गौरव हासिल किया। शांति तिग्गा के कारनामे उपरोक्त महिलाओं से कहीं बहुत अद्भुत है, इसके बावजूद इस आदिवासी महिला और प्रथम महिला जवान को वो सम्मान, प्रशंसा नही मिला जो उपरोक्त महिलाएं किरण बेदी, सुनीता विलियम्स सरीखे महिलाओं को मिला(शांति तिग्गा: डेढ़ लाख पुरुष जवानों के बीच एकमात्र महिला जिन्होने डेढ़ लाख पुरुषों को पछाड़ कर ट्रायल के दो विभाग में प्रथम और एक विभाग में द्वितीय स्थान हासिल किया)। ऐसा अद्भुत कारनामा करने के बावजूद इस महिला जवान को वो प्रशंसा, वो सम्मान क्यों नही मिला? क्या वो आदिवासी थी? इसलिए। आखिर हमारा देश, हमारा समाज आदिवासियों के प्रति इतना सौतेला व्यवहार कैसे करता है? क्यों करता है?
आदिवासी हमारे समाज का वह व्यक्ति है जो बहुत पुराने समय से इस देश की धरती पर वास करता आया है और इस जमीन का मालिक भी है, फिर आदिवासियों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जाता है? भारत की एक बड़ी आबादी ‘‘आदिवासी’’ के साथ हम ऐसे नही कर सकते है। हमें आदिवासियों को भी समाज के मुख्य धारा से जोड़ना पड़ेगा, आदिवासियों का हौसला बढ़ाना पड़ेगा और इनके विकास पर विशेष ध्यान देना होगा। आज आदिवासियों इस पिछड़ेपन की जिम्मेदार सरकार और समाज है जो इनके भोलेपन का फायदा उठा कर इनके साथ हमेशा गलत व्यवहार किया गया है।
शांति तिग्गा जब भारत की पहली महिला जवान बनी तो एकाध अखबारों ने जरुर छापा था लेकिन अंदर के पन्नो पर किसी कोने में, जहां शायद ही किसी का नजर पड़े। जबकि उपरोक्त महिलाओं के लिए सभी अखबारों ने, चैनलो ने तब जोरशोर से प्रकाशित किया था। कई संगठनों ने, राज्य सरकार, केन्द्र सरकार और अन्य लोगों ने सम्मानित किया था। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज उससे भी बेहतर कारनामा करने वाली पहली महिला जवान शांति तिग्गा के साथ मीडिया, समाज और केन्द्र से लेकर राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन ने सौतेला व्यवहार किया है। जब किसी खेल मे भी कोई टीम जीत दर्ज करती है तो उसे पुरस्कृत और सम्मानित किया जाता है,लेकिन शांति तिग्गा के इस असाधारण कारनामें के लिए सम्मानित न करके शांति तिग्गा की अवहेलना किया गया है, महिला पक्ष और आदिवासी पक्ष का अवहेलना किया गया है। एक तरफ जहां सरकार बेटी बचाओ अभियान चला रही है, आदिवासियों का हितैषी बता रही है, आदिवासियों के विकास के दावे कर रही है वहीं दूसरी तरफ उभरते आदिवासी विलक्षणों की अवहेलना कर रही है। सरकार को अपनी गलती सुधारने की जरुरत है। शांति तिग्गा जैसे विलक्षण आदिवासी महिला को विशेष रुप से सम्मानित करने की जरुरत है, शांति तिग्गा का हौसला बढ़ाने हेतु एक बेहतर राशि प्रदान करने की जरुरत है। ताकि आने वाले विलक्षण आदिवासियों को एक बेहतर रास्ता मिल सके।
तेरा यूं चला जाना...
राजन कुमार
असम अपना एक जुझारु जनप्रतिनिधि खो दिया। असम के पूर्व मंत्री, विधानसभा के पूर्व विरोधी दल नेता तथा दूसरी बार राज्यसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित सिल्वियुस कोंडोपन का 10 अक्टूबर को नई दिल्ली स्थित एम्स में निधन से पूरा असम शोक मे डूब गया। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी अपना जन्मदिन नही मनाया जबकि कंडोपन की गिनती तरुण गोगोई के विरोधी खेमे के रुप मे होती थी।
माजबाट विधानसभा से लगातार पाच बार निर्वाचित सिल्वियुस कोंडोपन धेकियाजुलि शहर के 6 नंबर वार्ड के स्थायी निवासी थे। लंबे समय तक निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में गुवाहाटी- दिल्ली में व्यस्त रहने के कारण श्री कोंडोपन का पिछले तीन दशकों से धेकियाजुलि से संपर्क टूट गया था। इसके बावजूद होंठो पर असम और वहां के जनता के प्रति दिवानगी इस कदर थी कि होठों पर असम ही रहता था। असम में कांग्रेस को मुश्किल हालातों से उबारकर प्रमुख स्थान पर लाने में कंडोपन का अपूर्र्णीय योगदान रहा है।
असम के जुझारु नेता सिल्वियुस कोंडोपन अपने पीछे पत्नी और तीन पुत्र और एक पुत्री को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए। उनके शव को जब गुवाहाटी ले जाया गया तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी उनकी एक झलक पाने के लिए। लोगों के नम आंखो मे एक ही ख्वाहिश थी वे अपने चहेता की एक झलक तो देख ले। बहुत दिनों से देखा नही आज मौका भी मिला तो इस हालात में।
एक किसान परिवार में जन्में सिल्वियुस कंडोपन एक अच्छे वकील, समाजिक कार्यकर्ता, एक जुझारु नेता, प्रभावशाली शिक्षक के साथ-साथ एक अच्छे इंसान भी थे। इसी के बल पर वे आगे बढ़ते गए। कभी पीछे मुड़ कर नही देखा। लोगों में कंडोपन के प्रति दिवानगी का आलम किस तरह था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोंडोपन की गिनती मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के विरोधी खेमे में होती थी, बाबजूद इसके श्री गोगोई उन्हें श्रद्धाजंली देने दो दो बार राजीव भवन पहुचे। पहली बार वे सुबह 10 बजे जब पार्टी की तरफ से एक शोक संदेश पास किया गया। उसके बाद लगभग दो बजे जब कोंदापन के पाथर््िाव शरीर को नई दिल्ली से गुवाहाटी के राजीब भवन लाया गया तब। ज्ञात हो की इसी दिन मुख्यमंत्री के जन्म दिवस होने के बाबजूद उन्होंने कोंडोपन के मौत हो जाने पर अपना जन्मदिन नहीं मनाया।
कोंडोपन का जन्म सोनितपुर जिले के सापोई चाय बागन में 19 जुलाई 1938 को हुई। उनके पिता स्वर्गीय सुकरू हेमो कोंदापन एक चौकिदार थे। एक चौकिदार के बेटे होते हुए भी वे राज्य सभा तक पहुचे। कोंदोपन पहली बार राज्यसभा में 2004 में आये।
फिर दोबारा 2010 में फिर से राज्यसभा में सांसद चुने गए। 1978-79 संसदीय सचिव, वो कई महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान थे। कोंडोपन असम के चाय बागान क्षेत्र के प्रमुख नेताओं में से एक थे। 2004 में असम के आदिवासी और हरिजनों के आवाज उठाने के लिए उन्हे प्रसिद्ध बी.आर. आंबेडकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1978 में वह राज्य विधानसभा में चुने गए और राज्य के कई बार कैबिनेट मंत्री रहे। वे असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष्य उस समय रहे जब राज्य में अगप के सरकार थी और उल्फा के अतंग चरम पर था। आदिवासियों के विकास के बारे में हमेशा से सोचते रहने वाले कंडोपन का यूं चला जाना असम के आदिवासी को बहुत बड़ा झटका लगा है, जिसकी भरपाई नही हो सकती है।
राजन कुमार
असम अपना एक जुझारु जनप्रतिनिधि खो दिया। असम के पूर्व मंत्री, विधानसभा के पूर्व विरोधी दल नेता तथा दूसरी बार राज्यसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित सिल्वियुस कोंडोपन का 10 अक्टूबर को नई दिल्ली स्थित एम्स में निधन से पूरा असम शोक मे डूब गया। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी अपना जन्मदिन नही मनाया जबकि कंडोपन की गिनती तरुण गोगोई के विरोधी खेमे के रुप मे होती थी।
माजबाट विधानसभा से लगातार पाच बार निर्वाचित सिल्वियुस कोंडोपन धेकियाजुलि शहर के 6 नंबर वार्ड के स्थायी निवासी थे। लंबे समय तक निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में गुवाहाटी- दिल्ली में व्यस्त रहने के कारण श्री कोंडोपन का पिछले तीन दशकों से धेकियाजुलि से संपर्क टूट गया था। इसके बावजूद होंठो पर असम और वहां के जनता के प्रति दिवानगी इस कदर थी कि होठों पर असम ही रहता था। असम में कांग्रेस को मुश्किल हालातों से उबारकर प्रमुख स्थान पर लाने में कंडोपन का अपूर्र्णीय योगदान रहा है।
असम के जुझारु नेता सिल्वियुस कोंडोपन अपने पीछे पत्नी और तीन पुत्र और एक पुत्री को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए। उनके शव को जब गुवाहाटी ले जाया गया तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी उनकी एक झलक पाने के लिए। लोगों के नम आंखो मे एक ही ख्वाहिश थी वे अपने चहेता की एक झलक तो देख ले। बहुत दिनों से देखा नही आज मौका भी मिला तो इस हालात में।
एक किसान परिवार में जन्में सिल्वियुस कंडोपन एक अच्छे वकील, समाजिक कार्यकर्ता, एक जुझारु नेता, प्रभावशाली शिक्षक के साथ-साथ एक अच्छे इंसान भी थे। इसी के बल पर वे आगे बढ़ते गए। कभी पीछे मुड़ कर नही देखा। लोगों में कंडोपन के प्रति दिवानगी का आलम किस तरह था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोंडोपन की गिनती मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के विरोधी खेमे में होती थी, बाबजूद इसके श्री गोगोई उन्हें श्रद्धाजंली देने दो दो बार राजीव भवन पहुचे। पहली बार वे सुबह 10 बजे जब पार्टी की तरफ से एक शोक संदेश पास किया गया। उसके बाद लगभग दो बजे जब कोंदापन के पाथर््िाव शरीर को नई दिल्ली से गुवाहाटी के राजीब भवन लाया गया तब। ज्ञात हो की इसी दिन मुख्यमंत्री के जन्म दिवस होने के बाबजूद उन्होंने कोंडोपन के मौत हो जाने पर अपना जन्मदिन नहीं मनाया।
कोंडोपन का जन्म सोनितपुर जिले के सापोई चाय बागन में 19 जुलाई 1938 को हुई। उनके पिता स्वर्गीय सुकरू हेमो कोंदापन एक चौकिदार थे। एक चौकिदार के बेटे होते हुए भी वे राज्य सभा तक पहुचे। कोंदोपन पहली बार राज्यसभा में 2004 में आये।
फिर दोबारा 2010 में फिर से राज्यसभा में सांसद चुने गए। 1978-79 संसदीय सचिव, वो कई महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान थे। कोंडोपन असम के चाय बागान क्षेत्र के प्रमुख नेताओं में से एक थे। 2004 में असम के आदिवासी और हरिजनों के आवाज उठाने के लिए उन्हे प्रसिद्ध बी.आर. आंबेडकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1978 में वह राज्य विधानसभा में चुने गए और राज्य के कई बार कैबिनेट मंत्री रहे। वे असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष्य उस समय रहे जब राज्य में अगप के सरकार थी और उल्फा के अतंग चरम पर था। आदिवासियों के विकास के बारे में हमेशा से सोचते रहने वाले कंडोपन का यूं चला जाना असम के आदिवासी को बहुत बड़ा झटका लगा है, जिसकी भरपाई नही हो सकती है।
Tuesday, September 13, 2011
अगर देश से जात का भेदभाव मिटाना है तो आरक्षण जाति के आधार पर क्यों।एक आम आदमी, एक महीने का बिजली बिल न भर पाए तो कनेक्शन काट दिया जाता है, मगर एक नेता, पाखंडी बाबा या अफसर, जब तक देश समाज या कंपनी को पूरा निगल नहीं जाता तब तक पता ही नहीं चलता, आखिर क्यों॥
अगर देश से जात-पात का भेदभाव मिटाना है तो आरक्षण जाति के अधर पर क्यों.............
एक आम आदमी भूख और अत्याचार से मर जा रहा है। लिकिन सरकार मूर्तियाँ और खेल के नाम पर पैसे लुटने का कारोबार कर रही है........ आखिर क्यों?
एक आम आदमी किसी vip के आने पर अस्पताल नहीं पहुँच पाता है और मर जाता है। जबकि और प्लेन हाइजैक कर लेते है कैसे? क्यों..........?
और कब तक.................
इसके पीछे कौन है.....
पर्दा क्यों नहीं उठ रहा है........?
आज वक्त है जबाब लेने का...............
इस भ्रष्टाचार को मिटायें हम मिलकर...............
एक युवा भारत बनाने का संकल्प लें ..........
आपका संकल्प और हमारा संकल्प ही अपने देश को मजबूत बनता है.
अगर देश से जात-पात का भेदभाव मिटाना है तो आरक्षण जाति के अधर पर क्यों.............
एक आम आदमी भूख और अत्याचार से मर जा रहा है। लिकिन सरकार मूर्तियाँ और खेल के नाम पर पैसे लुटने का कारोबार कर रही है........ आखिर क्यों?
एक आम आदमी किसी vip के आने पर अस्पताल नहीं पहुँच पाता है और मर जाता है। जबकि और प्लेन हाइजैक कर लेते है कैसे? क्यों..........?
और कब तक.................
इसके पीछे कौन है.....
पर्दा क्यों नहीं उठ रहा है........?
आज वक्त है जबाब लेने का...............
इस भ्रष्टाचार को मिटायें हम मिलकर...............
एक युवा भारत बनाने का संकल्प लें ..........
आपका संकल्प और हमारा संकल्प ही अपने देश को मजबूत बनता है.
भूमि अधिग्रहण विधेयक और किसान, आदिवासियों के अधिकार
राजन कुमार
4 अगस्त 2011 को सुप्रीमकोर्ट ने राज्य सरकारों के जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण करने के रवैये पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून किसानों के साथ धोखा है, लिहाजा इसे निस्त होना चाहिए। इसके बाद सरकार ने दूसरी भूमि अधिग्रहण विधेयक 9 सितंबर को संसद मे पेश किया। लेकिन अफसोस कि यह भूमि अधिग्रहण भी आदिवासी और किसान विरोधी बताया जा रहा है। इस विधेयक को लेकर पूरे देश मे बहस चल रही है। लेकिन इस भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करने से पहले दूसरे देशों के उन भूमि अधिग्रहण विधेयकों पर नजर डालने की जरूरत है जहां पर भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों, आदिवासियों, कंपनियों और सरकार के बीच कभी भी किसी प्रकार का विवाद नही होता। मौजूदा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक, अंग्रेजी भूमि अधिग्रहण विधेयक से भी ज्यादा किसान और आदिवासी विरोधी है। जब कि अंग्रेजी सत्ता ने जिन देशों को गुलाम बनाया था वहां अपने फायदें के लिए अपने अनुसार भूमि अधिग्रहण विधेयक बनाया था। अंग्रेजो के भूमि अधिग्रहण विधेयक का सभी गुलाम देशों मे विरोध हुआ। भारत मे भी उसका विरोध हुआ। आदिवासियों और किसानों ने अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध जंग छेड़ दिया। भारत सहित कई देश अंग्रेजी सत्ता से मुक्त हुए। सभी देश अपना-अपना कानून बनाये लेकिन भारत मे अंग्रेजो द्वारा बनाया गया जनविरोधी कानून ही चल रहा है। देश का कानून ऐसा है कि जिस पार्टी का सरकार बनेगा, जो देश का नेतृत्व करेगा वह एक तानाशाह की तरह देश का नेतृत्व करेगा, जब तक चाहे निर्दोष जनता को कुचलता रहेगा। हकीकत रूप से देखें तो कई भारतीय कानून ऐसे है पूर्ण रूप से जनविरोधी है और सरकार को तानाशाही नेतृत्व प्रदान करते है। एक तरह से तानाशाही नेतृत्व पर लोकतंत्र का ठप्पा लगा दिया गया है। प्रत्येक पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को भारत मे स्वतंत्र दिवस और गणतंत्र दिवस मनाया जाता है, ताकि हम आजाद है, लेकिन यह कैसी आजादी? जहां पर नागरिक अपने अधिकार के लिए लड़ रहा है। एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक अगर अपने अधिकार के लिए लड़ रहें है और उन्हे अभी तक न्याय भी नही मिला है फिर कैसा लोकतांत्रिक देश? क्या हम आजाद है? पहले अंग्रेजी सत्ता के अधीन था भारत और भारतवासी, अब देश के ही दबंग,भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के अधीन रह गया है भारत और भारतवासी। भारत आज भी अंग्रेजी कानून चल रहा है जिसे अंग्रेज अपने हित को ध्यान मे रखकर बनाये थे। फिर यह कैसे हो सकता है कि वर्तमान भारत मे वह कानून लोगों के हित मे हो सकता है। भारत मे जितनी बार भी सरकारें बनी भारतवासियों के उम्मीदों पर खरा नही उतर सकीं। प्रत्येक शासन मे लोगों का शोषण हुआ, लोग अपने अधिकार के लिए सड़क पर उतरे, अनशन किये, सरकारी गोलियों द्वारा अपना सीना छलनी करवायें। कितने निर्दोष लोगों की जाने गयी। अगर कोई अपने हक पर अधिकार के लिए अनशन करता है तो उसे जेल मे डाल दिया जाता है। कोई विरोध प्रदर्शन करता है तो उसे गोलियों से भून दिया जाता है। निर्दोषों को गोलियों से भूनने वाला अपराधी आराम से देश का नेतृत्व करता है। अगर कोई एक कत्ल कर देता है तो उसे फांसी चढ़ा दी जाती है यहां सैकड़ो लोगों के मौत के जिम्मेदार सरकार को कौन फांसी चढ़ायेगा। प्रत्येक सरकार मे निर्दोष लोगों मारा गया है। आखिर उनको इंसाफ कौन दिलायेगा? अभी पिछले दिनों ही मनमोहन सिंह ने कहा था कि नक्सली और आतंकवादी ही राष्ट्र के विकास मे रूकावट हैं। लेकिन इन नक्सलियों और आतंकवादियों को पैदा करने वाली सरकार ही तो है। कश्मीर और आदिवासी क्षेत्रों का विकास न करना और आये दिन उनके जमीनों को जबरन अधिग्रहण करने से ही तो इन क्षेत्रों मे नक्सलवाद और आतंकवाद फैला है। यानि सरकार से बड़ा कोई नक्सली और आतंकवादी नही है।
भारत मे न तो कानून बदला गया और न ही लोगों किस्मत बदली। छ: दशक बाद भी भारत के लोग कई ज्वलंत मुद्दों को लेकर प्रशासन के आग मे जल रहे हैं। जिसमें भूमि अधिग्रहण विधेयक प्रमुख है। संसद मे प्रस्तावित नई भूमि अधिग्रहण विधेकय पर तीखी बहस होना जाहिर करता है कि यह किसान और आदिवासी विरोधी है। विधेयक पेश होने से पहले सरकार ने किसानों और आदिवासियों को यह भरोसा दिलाया था कि यह विधेयक किसानो और आदिवासियों के हित मे होगा फिर किसान अौर आदिवासी विरोधी भूमि अधिग्रहण विधेयक क्यों पेश किया गया? यह विचारणीय तथ्य है। देश भर के आदिवासी और किसान अपनी जमीन के अधिकार के लिए लड़ रहें है आखिर क्यों? एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी नौबत क्यों आती है सभी को अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है? आखिर कमी किसमे है? आजादी के बाद से बनी सभी सरकारों मे या भारतीय कानून में? यह प्रमुख पहलू है, देश का नेतृत्व कर रही सरकार को इन प्रमुख पहलूओं पर ध्यान देने के जरूरत है। देश मे वहीं कानून पारित किये जायें जो सिर्फ राष्ट्रहित और जनहित मे आता हो, उन देशों के कानूनों को ध्यान मे रखा जाये जहां सरकार और जनता मे कभी कोई विवाद की नौबत नही आयी हो, जनता और सरकार मे बेहतर तालमेल हो।
संसद मे पेश भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करने से पहले आस्ट्रेलिया सहित कई देशों के उस भूमि अधिग्रहण विधेयक पर ध्यान देने की जरूरत थी जहां अधिग्रहण को लेकर सरकार और किसान/आदिवासी मे कोई विवाद नही है। इन देशों मे कंपनियों को सीधे आदिवासियों और किसानों से जमीन खरीदनी पड़ती है। यहां पर सीधे तौर पर किसानों और आदिवासियों को उनके जमीन का अधिकार दिया गया है।
आस्ट्रेलिया की भूमि अधिग्रहण विधेयक
आस्ट्रेलिया ने आठ साल पहले अपने भूमि अधिग्रहण कानून मे बदलाव करते हुए जमीन खरीदने की पूरी जिम्मेदारी कंपनियों पर डाल दी। इतना ही नही, कंपनियां जमीन खरीदते वक्त समझौतों मे किसी तरह की छेड़छाड़ न करे, इसके लिए किसानों और आदिवासियों को सरकार की तरफ से कानूनी सहायता मुहैया कराई जाती है। आस्टेÑलियाई कानून के मुताबिक कंपनी को 14 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को देनी होती है। कंपनी कोई भी चीज खरीदती है और उसके लिए कोई स्थानीय व्यक्ति टेंडर करता है, तो कानून के मुताबिक कंपनी को उसे तरहीज देनी होगी। स्थानीय लोग सिर्फ मजदूर बनकर न रह जाएं, इसके लिए कंपनी को लगातार उन लोगों को टेÑनिंग का इंतजाम करना होता है। कंपनी मे किसी स्तर पर नई भर्ती होती है और पुराना स्थानीय कर्मचारी उस योग्यता को पूरा करता है, तो पहले उसे नाम पर विचार किया जाता है। आस्टेÑेलिया के कई क्षेत्रों मे खनन कर रहे अंतर्राष्ट्रीय कंपनी रियो टिंटो के प्रबंधक कैरिस के दावे के मुताबिक, स्थानीय लोगों को तरक्की देने के लिए कंपनियां कई कार्यक्रम चलाती है। इसके तहत रियो टिंटो भी क्षेत्र मे कई टेÑनिंग कैम्प चला रहा है। कई बार ऐसा होता है कि कई बार ऐस होता है कि कई लोग अपनी जमीन देने के लिए तैयार नही होते। ऐसी स्थिती मे जब कंपनी करीब 75 फीसदी जमीन खरीद लेती है, तब सरकार हस्तक्षेप कर बाकी लोगों को इसके लिए तैयार करती है। इसके अलावा भूमि अधिग्रहण मे सरकार का कोई हस्तक्षेप नही है। (आस्ट्रेलिया मे भूमि अधिग्रहण विधेयक, 9 सितंबर को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित सुहैल हामिद का लेख है।)
Posted By Rajan Kumar
Monday, July 25, 2011
राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति की मान्यता के लिए संविधान संशोधन करने की आवश्यकता है: कड़िया मुण्डा
मुक्ति तिर्की
संविधान के निर्माताओं ने देश की 8.2 प्रतिशत जनजाति आबादी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखते हुए संविधान की धारा 342 (1)संवधिान(अनुसूचित जनजाति)आदेश 1950 के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है। मगर इस संविधान के इस आदेश के अंतर्गत विशेष अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को राज्य विशेष , जिला या क्षेत्र विशेष तक ही सीमित कर दिया गया है। इस सीमांकन के कारण आदिवासी समाज लगभग एक पिंजड़े मे बंद हो गया और पिंजड़े से बाहर निकलते ही उसके नागरिक अधिकार, सुरक्षा व्यवस्था एवं सुविधाओंं में कटौती हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में असम राज्य हो या अण्डमान निकोबार हो या राजधानी दिल्ली हो, अनुसूचित जनजाति के लोग अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले सभी विशेष अधिकार सुरक्षा एवं सुविधाओं से वंचित हो जाते है। या आदिवासियों के लिए उनकी पहचान का संकट या प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। जबकि आदिवासियों की पहचान किसी राज्य या जिले तक सीमित न होकर सिर्फ संपूर्ण राष्ट्र ही नही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिलना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक अहम फैसले में घोषणा की कि भारत का आदिवासी वर्ग ही भारत का मूल निवासी है। सर्वोच्च न्यायालय के उक्त आदेश के आलोक में आदिवासी जनजाति समाज को पूरे भारत में मान्यता मिलनी चाहिए न कि किसी राज्या या जिला या क्षेत्र विशेष में। जब किसी ब्राम्हण या राजपूत या अन्य किसी जाति को राज्य, जिला या क्षेत्र के सीमा से परे पूरे देश में मान्यता मिलती है तो आदिवासी के साथ ऐसा भेदभाव क्यों? इसी तरह अगर किसी ने डाक्टरी या इंजिनीयरिंग की डिग्री या उपाधि हासिल कर ली है तो यह डिग्री पूरे विश्व में मान्य है न कि किसी एक देश, राज्य या क्षेत्र में। आदिवासियों के साथ ऐसा भेदभाव समान मानव अधिकार के संदर्भ में भी प्रश्न खड़ा करता है।
जब हम झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र मे आदिवासी का पहचान पाते है तो दिल्ली आकर हमारा आदिवासी पहचान क्यों छिन जाता है। झारखण्ड, उड़ीसा या छत्तीसगढ़ का आदिवासी व्यक्ति दिल्ली पहुंचकर गैर आदिवासी कैसे बन जाता है?
इस विषय पर एवं आदिवासियों के पहचान तथा विकास से संबधित विभिन्न विषयों पर विस्तृत चर्चा करते हुए एक विशेष मुलाकात में वरिष्ठ आदिवासी नेता एवं लोकसभा के उपाध्यक्ष कड़िया मुण्डा ने कहा कि अनुसूचित जनजातियों को राज्य या जिले का दायरा समाप्त करके राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त करने के लिए संविधान ने संशोधन की आवश्यकता है। संविधान मे आवश्यक संसोधन के द्वारा ही अनुसूचित जनजाति को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हो सकती है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों एवं अन्य समुदायों के साथ विचार विमर्श करने की जरूरत है। ताकि अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रीय पहचान मिल सके। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उन्होने कहा कि जब संविधान का निर्माण हो रहा था उस वक्त सवोच्च न्यायालय था ही नही। अत: सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के संदर्भ में संविधान के संशोधन की आवश्यकता है। संविधान संशोधन के लिए संसद के लोकसभा और राज्यसभा द्वारा संविधान संशोधन बिल पारित होने के बाद ही आदिवासियों को राष्ट्रीय मान्यता मिल सकती है।
ग्रामीण क्षेत्रों से आदिवासियों के पलायन , विस्थापन तथा विकास के विषय में लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुण्डा ने कहा कि विकास के लिए भूमि की आवश्यकता हैै। मगर आदिवासी क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने के लिए आदिवासी लोग भूमि देना नही चाहते या भूमि अधिग्रहण का विरोध करते है। जिसके कारण आदिवासी क्षेत्रों मे नये कारखाने तथा अन्य उद्योग विकसित नही हो पा रहें है। नतीजतन बड़े पैमाने पर जीविका के तलाश में आदिवासी युवक युवती गांव छोड़कर दिल्ली जैसे महानगरों की ओर पलायन कर रहें है। श्री मुण्डा ने प्रश्न किया कि क्यों झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, के ग्रामीण इलाकों से लाखों आदिवासी युवतियां दिल्ली जैसे महानगर मे घरेलू काम काज करने को मजबूर है। उन्हे कौन दिल्ली ले कर आया। जाहिर है जीविका और रोजगार के लिए उन्हे अपना देश छोड़कर के परदेश दिल्ली आना पड़ा।
उन्होने कहा कि अगर उन्हे अपने ही राज्य झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में रोजगार या जीविका का साधन उपलब्ध हो जाता तो उन्हे दिल्ली आने की जिल्लत नही उठानी पड़ती। जाहिर है उन राज्यों में रोजगार उत्पन्न करने के लिए उद्योग का विकास करना होगा और उद्योग स्थापित करने के लिए भूमि की आवश्यकता है।
श्री मुण्डा ने सुझाव दिया कि विकास और रोजगार के लिए उन्हे अपने भूमि का हिस्सा देना पड़ेगा। अत: आदिवासी समाज को इस विषय में गंभीर चिंतन मनन करने की आवश्यकता है कि समाज के विकास के लिए भूमि की आवश्यकता है। उन्होने विकास के लिए भूमि की कमी की चर्चा करते हुए बताया कि उनके चुनाव क्षेत्र खूटी में केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की तैयारी हो रही थी मगर भूमि उपलब्ध नही होने के कारण खूटीं में केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना नही हो सकी । अभी वर्तमान में खूंटी को नॉलेज सिटी के तौर पर विकसित करने के लिए वहां इंजीनियरिंग कालेज तथा मेडिकल कालेज की स्थापना होने जा रही है। इन विकास योजनाओं से स्थानीय छात्र छात्राओं को उच्च शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय लोगो ंको रोजगार के अवसर भी मिलेंगे। मगर दुखद विषय है कि कुछ लोग इन योजनाओं का भी विरोध कर रहें है। जबकि सरकार की सोच यह है कि खूंटी में पावर ग्रिड की भी स्थापना की जानी चाहिए।
posted by Rajan kumar
मुक्ति तिर्की
संविधान के निर्माताओं ने देश की 8.2 प्रतिशत जनजाति आबादी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखते हुए संविधान की धारा 342 (1)संवधिान(अनुसूचित जनजाति)आदेश 1950 के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है। मगर इस संविधान के इस आदेश के अंतर्गत विशेष अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को राज्य विशेष , जिला या क्षेत्र विशेष तक ही सीमित कर दिया गया है। इस सीमांकन के कारण आदिवासी समाज लगभग एक पिंजड़े मे बंद हो गया और पिंजड़े से बाहर निकलते ही उसके नागरिक अधिकार, सुरक्षा व्यवस्था एवं सुविधाओंं में कटौती हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में असम राज्य हो या अण्डमान निकोबार हो या राजधानी दिल्ली हो, अनुसूचित जनजाति के लोग अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले सभी विशेष अधिकार सुरक्षा एवं सुविधाओं से वंचित हो जाते है। या आदिवासियों के लिए उनकी पहचान का संकट या प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। जबकि आदिवासियों की पहचान किसी राज्य या जिले तक सीमित न होकर सिर्फ संपूर्ण राष्ट्र ही नही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिलना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक अहम फैसले में घोषणा की कि भारत का आदिवासी वर्ग ही भारत का मूल निवासी है। सर्वोच्च न्यायालय के उक्त आदेश के आलोक में आदिवासी जनजाति समाज को पूरे भारत में मान्यता मिलनी चाहिए न कि किसी राज्या या जिला या क्षेत्र विशेष में। जब किसी ब्राम्हण या राजपूत या अन्य किसी जाति को राज्य, जिला या क्षेत्र के सीमा से परे पूरे देश में मान्यता मिलती है तो आदिवासी के साथ ऐसा भेदभाव क्यों? इसी तरह अगर किसी ने डाक्टरी या इंजिनीयरिंग की डिग्री या उपाधि हासिल कर ली है तो यह डिग्री पूरे विश्व में मान्य है न कि किसी एक देश, राज्य या क्षेत्र में। आदिवासियों के साथ ऐसा भेदभाव समान मानव अधिकार के संदर्भ में भी प्रश्न खड़ा करता है।
जब हम झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र मे आदिवासी का पहचान पाते है तो दिल्ली आकर हमारा आदिवासी पहचान क्यों छिन जाता है। झारखण्ड, उड़ीसा या छत्तीसगढ़ का आदिवासी व्यक्ति दिल्ली पहुंचकर गैर आदिवासी कैसे बन जाता है?
इस विषय पर एवं आदिवासियों के पहचान तथा विकास से संबधित विभिन्न विषयों पर विस्तृत चर्चा करते हुए एक विशेष मुलाकात में वरिष्ठ आदिवासी नेता एवं लोकसभा के उपाध्यक्ष कड़िया मुण्डा ने कहा कि अनुसूचित जनजातियों को राज्य या जिले का दायरा समाप्त करके राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त करने के लिए संविधान ने संशोधन की आवश्यकता है। संविधान मे आवश्यक संसोधन के द्वारा ही अनुसूचित जनजाति को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हो सकती है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों एवं अन्य समुदायों के साथ विचार विमर्श करने की जरूरत है। ताकि अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रीय पहचान मिल सके। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उन्होने कहा कि जब संविधान का निर्माण हो रहा था उस वक्त सवोच्च न्यायालय था ही नही। अत: सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के संदर्भ में संविधान के संशोधन की आवश्यकता है। संविधान संशोधन के लिए संसद के लोकसभा और राज्यसभा द्वारा संविधान संशोधन बिल पारित होने के बाद ही आदिवासियों को राष्ट्रीय मान्यता मिल सकती है।
ग्रामीण क्षेत्रों से आदिवासियों के पलायन , विस्थापन तथा विकास के विषय में लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुण्डा ने कहा कि विकास के लिए भूमि की आवश्यकता हैै। मगर आदिवासी क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने के लिए आदिवासी लोग भूमि देना नही चाहते या भूमि अधिग्रहण का विरोध करते है। जिसके कारण आदिवासी क्षेत्रों मे नये कारखाने तथा अन्य उद्योग विकसित नही हो पा रहें है। नतीजतन बड़े पैमाने पर जीविका के तलाश में आदिवासी युवक युवती गांव छोड़कर दिल्ली जैसे महानगरों की ओर पलायन कर रहें है। श्री मुण्डा ने प्रश्न किया कि क्यों झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, के ग्रामीण इलाकों से लाखों आदिवासी युवतियां दिल्ली जैसे महानगर मे घरेलू काम काज करने को मजबूर है। उन्हे कौन दिल्ली ले कर आया। जाहिर है जीविका और रोजगार के लिए उन्हे अपना देश छोड़कर के परदेश दिल्ली आना पड़ा।
उन्होने कहा कि अगर उन्हे अपने ही राज्य झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में रोजगार या जीविका का साधन उपलब्ध हो जाता तो उन्हे दिल्ली आने की जिल्लत नही उठानी पड़ती। जाहिर है उन राज्यों में रोजगार उत्पन्न करने के लिए उद्योग का विकास करना होगा और उद्योग स्थापित करने के लिए भूमि की आवश्यकता है।
श्री मुण्डा ने सुझाव दिया कि विकास और रोजगार के लिए उन्हे अपने भूमि का हिस्सा देना पड़ेगा। अत: आदिवासी समाज को इस विषय में गंभीर चिंतन मनन करने की आवश्यकता है कि समाज के विकास के लिए भूमि की आवश्यकता है। उन्होने विकास के लिए भूमि की कमी की चर्चा करते हुए बताया कि उनके चुनाव क्षेत्र खूटी में केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की तैयारी हो रही थी मगर भूमि उपलब्ध नही होने के कारण खूटीं में केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना नही हो सकी । अभी वर्तमान में खूंटी को नॉलेज सिटी के तौर पर विकसित करने के लिए वहां इंजीनियरिंग कालेज तथा मेडिकल कालेज की स्थापना होने जा रही है। इन विकास योजनाओं से स्थानीय छात्र छात्राओं को उच्च शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय लोगो ंको रोजगार के अवसर भी मिलेंगे। मगर दुखद विषय है कि कुछ लोग इन योजनाओं का भी विरोध कर रहें है। जबकि सरकार की सोच यह है कि खूंटी में पावर ग्रिड की भी स्थापना की जानी चाहिए।
posted by Rajan kumar
Monday, July 18, 2011
Wednesday, July 13, 2011
जाति प्रथा का विनाश
-भीमराव आंबेडकर
जाति-व्यवस्था पर फिर से सवाल उठ रहे हैं। नए सिरे से मूल्यांकन हो रहा है। जाति-व्यवस्था को लेकर सबसे अधिक आरोपों का सामने करने वाली संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि हिंदू जाति-व्यवस्था की दीवारों को ढहा दें। इस व्यवस्था पर सबसे अधिक सुगठित प्रहार डॉ. भीमराव आंबेडकर ने किया था। उन्होंने जाति व्यवस्था के दंश को झेला भी था। आंबेडकर ने जाति-पांत तोड़क मंडल के लाहौर अधिवेशन के लिए एक लिखित भाषण प्रस्तुत किया था। इस भाषण की काफी चर्चा हुई है। वास्तव में यह समरस समाज बनाने की दिशा में प्रकाशस्तंभ की तरह है। हम ‘प्रवक्ता’ पर इस भाषण को अनेक भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं। अभी टिप्पणी के लिए हमने रोक लगा दी है। जब इस भाषण के सभी भाग पूरे हो जाएंगे तो टिप्पणी की व्यवस्था शुरू की जाएगी ताकि समग्रता में इस पर विचार हो सके। चूंकि यह भाषण काफी लंबा है और कंपोजिंग में भी काफी समय लग रहा है इसलिए इसे हम परिचर्चा स्तंभ के अंतर्गत प्रस्तुत करेंगे और प्रतिदिन इसमें शेष भाग जोड़ते जाएंगे। इस भाषण का हिंदी अनुवाद चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने किया था, हम उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं।मित्रों,
जात-पांत तोड़क मंडल के जिन सदस्यों ने कृपापूर्वक मुझे इस सम्मेलन का सभापति चुना है, मुझे चिंता है, उन लोगों से मेरे चुनाव के संबंध में अनेकों प्रश्न किए जाएंगे। उनसे पूछा जा सकता है, क्या लाहौर में कोई योग्य पुरूष नहीं था जो सभापति चुनने के लिए बंबई दौड़ गए। मैं हिंदू धर्म का आलोचक हूं, मैंने महात्मा जी के सिद्धांतों की भी, जिन पर हिंदुओं की श्रद्धा है, आलोचना की है, जिससे वे मुझे अपनी वाटिका का सर्प समझते हैं। मैं समझता हूं शायद राजनीतिक हिंदू भी मंडल से जवाब तलब करेंगे कि उसने इस आदरणीय पद के लिए मुझे चुनकर हिंदुओं का अपमान क्यों किया। सामान्य हिंदुओं को तो यह पसंद नहीं आएगा, क्योंकि सवर्ण हिंदुओं की सभा में संबोधन के लिए एक अंत्यज का चुना जाना शास्त्रीय मर्यादा को भंग करना है। अंत्यज कितना भी अनुभवी क्यों न हो, शास्त्र उसे ‘उपदेष्टा’ स्वीकार करने की आज्ञा नहीं दे सकते। शास्त्रानुसार ब्राह्मण ही तीनों वर्णों का उपदेष्टा और गुरु है। हिंदू-राज्य के संस्थापक शिवाजी के गुरु संत रामदास जी ने अपने मराठी ग्रंथ ‘दासबोध’ में हिंदुओं से प्रश्न किया है कि क्या तुम किसी अंत्यज को, जो तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकता है, अपना गुरु स्वीकार कर सकते हो। यही प्रश्न यदि मैं करूं, तो मंडल के पास इसका क्या उत्तर होगा। उस कारण को तो मंडल ही जानता है, जिसने उसे बंबई भेजा और जिसने उसे मेरे जैसे व्यक्ति को, जो हिंदू धर्म का इतना विरोधी और अंत्यज है, मर्यादा के विरुद्ध सवर्ण हिंदुओं को संबोधन करने के लिए सभापति चुना।
अपने संबंध में, मैं आपसे यह कहने की अनुमति चाहता हूं कि मैंने आपके निमंत्रण को अपनी एवं अपने अछूत साथियों की इच्छा से स्वीकार नहीं किया। मैं जानता हूं, हिंदू मुझसे और मेरे भाइयों से घृणा करते हैं, इसलिए मैंने सदा अपने को उनसे अलग रखा और अपने विचारों का प्रकाश अपने प्लेटफार्म पर करता रहा। हिंदुओं के प्लेटफार्म पर अपनी बातें सुनाकर अपने को उनके ऊपर रखने की मैंने कभी इच्छा नहीं की। यहां भी मैं अपनी इच्छा से नहीं, आपके चुनाव से आया हूं। मैंने इससे इनकार करना इसलिए उचित नहीं समझा, क्योंकि मुझे बताया गया कि इस सम्मेलन का उद्देश्य सामाजिक सुधार है, और समाज सुधार एक ऐसा विषय है जिससे मुझे मोह है- विशेषत: उस दशा में, जबकि आप समझते हों कि इस काम से मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं, उस समस्या के हल के लिए आप कहां तक ग्रहण कर सकेंगे।
इस प्राक्कथन के साथ अब मैं मुख्य विषय पर अपने विचार आपके सामने रखने की अनुमति चाहता हूं।
कांग्रेस और समाज सुधार
भारत में समाज सुधार का काम निर्वाण-प्राप्ति के मार्ग के समान अनेक कठिनाइयों से पूर्ण हैं। कारण, भारत में समाज सुधार के मित्र थोड़े और शत्रु बहुत अधिक हैं। इंडियन नेशनल कांग्रेस देश की बहुत बड़ी संस्था है, किंतु समाज सुधार के साथ उसका व्यवहार कैसा रहा है, पहले इसी पर नजर डालिए।
पश्चिमी विद्वानों के संपर्क में जब यह देश आया, तो लोग मानने लगे कि कुरीतियों से आक्रांत हिंदू समाज में सामाजिक चेतना नहीं रही। अत: कुरीतियों को मिटाने का प्रयास निरंतर होना चाहिए। इस सत्य को स्वीकार कर लेने के कारण ही ‘कांग्रेस’ के जन्म के साथ, सोशल कान्फ्रेंस(समाज सुधार सम्मेलन) की भी नींव रखी गई। और कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही, उसी पंडाल में ‘सोशल कान्फ्रेंस’ का भी अधिवेशन होने लगा। किंतु सामाजिक सुधार की चर्चा चलने पर जब हिंदू समाज व्यवस्था की तीव्र आलोचना होने लगी, तो यह बात ब्राह्मणों और कट्टर हिंदुओं को बर्दाश्त नहीं हुई और कांग्रेस के पूना अधिवेशन में, पूना के ब्राह्मणों के अनुरोध से, जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसका विरोध किया, तो कांग्रेस ने ‘समाज सुधार सम्मेलन’ को अपना पंडाल नहीं दिया और सामाजिक सम्मेलन के प्रेमियों ने जब अपना पंडाल अलग बनाना चाहा, तो विरोधियों ने उसे जला डालने की धमकी दी। कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन के सभापति मि. डब्ल्यू. सी. बनर्जी ने ‘समाज सुधार सम्मेलन’ के विरुद्ध अपने भाषण में कहा-
‘’मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि जब तक हम अपनी सामाजिक पद्धति में सुधार नहीं करते, तब तक हम राजनैतिक सुधार के योग्य नहीं हैं। मुझे इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं दिखाई देता। क्या हम राजनैतिक सुधार के योग्य इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमारी विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता और हमारी लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है या हमारी पत्नियां और पुत्रियां हमारे साथ गाड़ी में बैठकर हमारे मित्रों से मिलने नहीं जाती। क्योंकि हम अपनी बेटियों को ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में पढ़ने के लिए नहीं भेजते। (हर्षध्वनि)
मि. बनर्जी के इन आक्षेपों के पर्याप्त उत्तर हैं। उनसे पूछा जा सकता है, क्या आपको यह मालूम है कि हिंदू समाज व्यवस्था ने देश की पंचमांश जनसंख्या को ‘अछूत’ बना रखा है। पेशवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नहीं थी जिस पर कोई सवर्ण हिंदू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि ये अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधें, ताकि हिंदू इन्हें भूल से छू न लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि वे कमर में झाड़ बांध कर चलें ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाड़ से मिट जाएं और कोई हिंदू इसके पद-चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाए, अछूत अपने गले में हांड़ी बांधकर चलें, और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़े हुए अछूत के थूक पर किसी हिंदू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा। अछूत भी मनुष्य है, पेशवा ब्राह्मण भी मनुष्य है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ यह व्यवहार।
इसी तरह मध्य भारत में गरीब बलाई जाति के विरुद्ध वहां के कालोटों, राजपूतों और ब्राह्मणों ने इंदौर जिले के 15 गांवों में ऐसे अमानवीय कानून बनाए थे, जिनका पालन न कर सकने के कारण बलाइयों को स्त्री-बच्चों सहित उन चारों को छोड़कर, जहां उनके बाप-दादे पीढि़यों से रहते आए थे, धार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर और दूसरे निकटवर्ती राज्यों के सुनसान गांवों में चला जाना पड़ा, और इन नए घरों में उनके साथ जैसी बीती, वह अवर्णनीय है। बलाई भी मनुष्य हैं और ब्राह्मण-राजपूत भी मनुष्य हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 जनवरी 1920)
गुजरात के अंतर्गत कविथा ग्राम की घटना अभी पिछले साल की है। कविथा के हिंदुओं के अछूतों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने नहीं दिया। अहमदाबाद के ‘जन’ नामक गांव की नवंबर 1935 की घटना है कि वहां के अछूतों की स्त्रियों पर सवर्ण हिंदुओं ने इस कारण आक्रमण किया क्योंकि वे धातु के बर्तनों में पानी लाने लगी थीं। जयपुर राज्य के चकवारा गांव की ताजा घटना है कि वहां एक अछूत ने तीर्थयात्रा से लौटकर अपने भाइयों को पकवान का भोज दिया। बेचारे अछूत मेहमान भोजन कर ही रहे थे कि सैकड़ों हिंदू लाठी लेकर उन पर टूट पड़े और उनका भोजन खराब कर दिया, क्योंकि वे लोग घी के बने पकवान खा रहे थे। उन्होंने अतिथि बन कर घी खाने की ढिठाई क्यों की। घी तो हिंदुओं का खाद्य है, अछूतों को घी खाने का अधिकार नहीं।
प्रश्न होता है, जिस समाज में मनुष्य दुर्बलों पर इस तरह के क्रूर, गर्हित और अमानवी आचरण करते हों, वहां समाज सुधार की आवश्यकता क्यों नहीं है।
समाज सुधार के दो अर्थ है: एक पारिवारिक सुधार और दूसरा, समाज का पुनर्गठन। विधवा विवाह, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा आदि पारिवारिक सुधार के अंतर्गत हैं तथा समाज में ऊंच-नीच, छूत-अछूत का अधिकार-भेद, वर्ण भेद या जाति भेद मिटाना सामाजिक सुधार है। हमारे देश में जो सांप्रदायिक बंटवारा(कम्यूनल अवार्ड) हुआ, वह सामाजिक सुधार न होने के कारण हुआ। यदि देश की सामाजिक व्यवस्था ठीक होती, तो सांप्रदायिक बंटवारे का प्रश्न ही न उठता। (एक भारत के दो खंड सामाजिक कुव्यवस्था का फल है।)
इतिहास इस बात का समर्थन करता है कि समुन्नत देशों में राजनैतिक क्रांतियों से पहले सामाजिक और धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। लूथर द्वारा किया हुआ धार्मिक सुधार यूरोपीय लोगों के राजनैतिक उद्धार का पूर्व लक्षण था। प्यूरीटिनिज्म एक धार्मिक सुधार था और इसने नए संसार की नींव रखी, अमेरिकी स्वतंत्रता का युद्ध जीता। हजरत मुहम्मद द्वारा धार्मिक क्रांति होने के बाद ही अरबों ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त की। भगवान बुद्ध द्वारा की हुई धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप ही चंद्रगुप्त और अशोक जैसे सम्राट हुए। साधु-संतों द्वारा की हुई धार्मिक क्रांति के बाद ही शिवाजी हिंदू राष्ट्र की स्थापना कर सके। गुरु नानक द्वारा पैदा की गई धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप ही सिखों ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त की। तब कैसे कहा जा सकता है कि शक्तिशाली और सुदृढ़ राष्ट्र को बनाने के लिए धार्मिक और सामाजिक क्रांति की आवश्यकता नहीं है।
कम्युनिस्ट और समाज सुधार
कांग्रेस के बाद राजनीतिज्ञों का दूसरा दल कम्युनिस्टों(साम्यवादियों) का है। इस दल के सिद्धांत सामाजिक अवस्था के अनुरूप स्थिर हुए। कम्युनिस्टों का ध्येय धार्मिक असमानता को मिटाकर समाज में समता लाना है। कम्युनिस्ट कहते हैं-‘मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। उसकी आकांक्षाएं और चेष्टाएं आर्थिक तथ्यों से बंधी हुई है।‘ ये लोग वर्ण भेद और जाति भेद मिटाकर सामाजिक समता पर ही सारी शक्ति लगा देते हैं। इनके मत में धार्मिक और सामाजिक सुधार भ्रम-मात्र है। साम्पत्तिक शक्ति ही एकमात्र शक्ति है, इस बात को मानव समाज का अध्ययन करनेवाला कोई भी मनुष्य स्वीकार नहीं करेगा।
साधु-संतों का सर्वसाधारण पर जो शासन होता है, वह इस विचार का अपवाद है। भारत के करोड़ों लोग लंगोटधारी संपत्तिहीन साधु-संतों की आज्ञा मानते हैं और अपना अंगूठी-छल्ला बेचकर काशी, मक्का आदि तीर्थों के दर्शनों को जाते हैं। ऐसा क्यों होता है। भारत का इतिहास बताता है कि धर्म एक बड़ी शक्ति है। भारत में पुरोहितों का शासन मजिस्ट्रेट से भी बढ़कर है। यहां काउंसिलों के चुनाव और हड़तालों को भी आसानी से धार्मिक रंगत मिल जाती है। भारत ही नहीं, यूरोप के इतिहास में भी धर्म की प्रबलता पाई जाती है। रोम के प्रजातंत्री शासन काल में एक काउंसिल (प्रतिनिधि) दूसरे काउंसिल के काम को रद्द कर देता था। वहां प्लोवियनों और पेट्रीशियनों का संघर्ष था। रोम की जनता का यह धार्मिक विश्वास था कि कोई भी अफसर वहां किसी पद को ग्रहण नहीं कर सकता, जब तक डेल्फी देवी की देववाणी उसे स्वीकार न करे। डेल्फा देवी के पुरोहित पेट्रीशियन थे, इसलिए जब कभी प्लेवियन ऐस व्यक्ति को अपना नेता चुनते, जो पेट्रीशियनों के विरूद्ध पार्टीमैन होता, तो देववाणी सदा विघोषित कर देती कि डेल्फी देवी उसे स्वीकार नहीं करतीं। इस कारण प्लेवियनों को अपने में कभी ऐसा प्रतिनिधि न मिल सका, जो पेट्रोशियनों का मुकाबला करता। प्लेवियन लोग इस ठगी को इसलिए स्वीकार कर लेते, क्योंकि उनका अपना भी विश्वास था कि देवी की स्वीकृति आवश्यक है, केवल जनता द्वारा चुना जान ही पर्याप्त नहीं है। धार्मिक विश्वास छोड़ने के बदले प्लेवियनों ने अपना लौकिक नाम छोड़ दिया। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्लेवियन संपत्ति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व देते थे।
धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति, ये तीनों प्रभुता के स्रोत हैं। आज के यूरोपीय समाज में संपत्ति की प्रमुखता है, किंतु भारत में धर्म और सामाजिक व्यवस्था का सुधार किए बिना आप आर्थिक सुधार नहीं कर सकते। क्या भारत का सर्वहारा वर्ग ऐसी क्रांति लाने के लिए इकट्ठा हो जाएगा। इसके लिए उसे प्रेरणा तभी मिल सकती है जब उसे विश्वास हो जाए कि जिनके साथ वह काम कर रहा है, वे समता, बंधुता और न्याय के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं तथा क्रांति के बाद वर्ण, जाति और धर्म का कोई भेद न रहेगा। कम्युनिस्टों का केवल यह कहना काफी नहीं है कि ‘मैं जादि भेद को नहीं मानता।‘ भारत में जहां साधारण जनता धनी और निर्धन, ब्राह्मण और शूद्र एवं ऊंच-नीच के भेद को मानती है और इसे पूर्व जन्म के कर्मों का फल, विधाता का विधान अथवा तकदीर समझती है, वहां केवल धनवानों के विरुद्ध कैसे इकट्ठी हो सकती है। और यदि नहीं इकट्ठी हो सकती, तो ऐसी आर्थिक क्रांति का होना ही असंभव है। यदि किसी कारण ऐसी क्रांति हो भी गई, तो ब्राह्मण-शूद्र, ऊंच-नीच और वर्ण जाति के भेद-भाव को उत्पन्न करनेवाले पक्षपातों से युद्ध किए बिना मार्क्सवादी शासन वहां चल सकना संभव नहीं। आप किसी भी ओर मुंह कीजिए वर्ण भेद और जाति भेद एक ऐसा राक्षस है जो सब ओर से आपका मार्ग रोके हुए है। जब तक आप इस राक्षस को वध नहीं करते, आप न यहां राजनैतिक सुधार कर सकते हैं और न आर्थिक सुधार।
क्या चातुर्वर्ण श्रम का विभाजन है
कुछ लोग कहा करते हैं कि चातुर्वर्ण व्यवस्था श्रम का विभाजन है। परंतु वह बात निराधर है। वस्तुत: चातुर्वर्ण व्यवस्था का आधार भोगेश्वर्य की सुलभता, समाज पर प्रभुता और श्रेष्ठता, श्रम से बचना, आराम और लौकिक सुविधा का स्वार्थ है। यही कारण है कि इसे राष्ट्रीयता विघातक समझते हुए भी सवर्ण हिंदू नेता इसका विध्वंस सहन नहीं कर पाते। धनी और निर्धन की विषमता मिटाकर सापेक्षिक समता लाने का राग अलापनेवाला सोशलिस्ट हिंदू भी यहां चातुर्वर्णी मर्यादा की रक्षा के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता देखा जाता है। सवर्ण हिंदू को मानो जन्म में ऊंचाई का पट्टा मिला हुआ है, जिसके भोग में यह ऐसा प्रसक्त है कि वह शूद्रों के अभाव-ग्रसित कष्टमय जीवन का अनुभव ही नहीं कर सकता। एक अहीर या चमार-मजदूर ब्राह्मण-मजदूर के शाप से डर कर उसका पूजन करता एवं उसकी गाली, डींगें और बदतमीजी बर्दाश्त करता है। ब्राह्मण और भंगी के बीच परंपरागत धार्मिक कुसंस्कारों के कारण कल्पित उच्चता और पवित्रता की दीवार खड़ी है। खेद है, भारत में आज तक जितने सुधारक हुए, वे सब भी सवर्ण हिंदुओं में ही पैदा हुए। यही कारण है कि वर्ण व्यवस्था द्वारा होनेवाली घोर हानि की वे अनुभूति नहीं कर सके।
वर्ण व्यवस्था और जाति भेद वस्तुत: श्रम का नहीं, श्रमिकों का विभाजन है। यही कारण है कि यहां नीचे गिराई गई जाति का मनुष्य ऊपरवाली जाति का पेशा नहीं कर सकता। यहां भंगी हलवाई का काम नहीं कर सकता, परचूनी नहीं कर सकता, चाय और पान की दुकान नहीं रख सकता। पुरोहित नहीं बन सकता। ऐसा कोई सामाजिक कार्य नहीं, जिसमें भंगी से ब्राह्मण तक समान भाव से लग सकें। हिंदुओं को एकता या एक-राष्ट्रीयता के सूत्र में बांधनेवाली एक भी बात नहीं, सब अपने को अलग-अलग अनुभव करते हैं। हिंदू का जन्म से मरण पर्यंत सारा जीवन अपने वर्ण और जाति की तंग चहारदीवारी के भीतर ही सीमित रहता है। एक जाति और एक वर्ण का मनुष्य दूसरी जाति और दूसरे वर्ण से घृणा और द्वेष रखता है। यहां तक कि लोगों ने एक-दूसरे की जाति के विरुद्ध निंदा और घृणापूर्ण कहावतें बना रखी हैं। जैसे कि –
बनिया, बंदर, अग्नि, जल, कुटी, कटक, कलार।
ये दशों अपने नहीं, सूची सुधा सुनार।
बनिया किसका यार, उसको दुश्मन क्या दरकार।
अहिर मिताई तब करै जब सबै मीत मर जाएं।
पसिया मीत बबुर की छाहीं, छिन मां आपन छिन मां नाहीं।
जहां चार अहिर तहां बात गहिर, जहां चार कोरी तहां बात मोरी।
जाट मरा तब जानिए जब तेरहवीं होय।
यह कायथ की खोपड़ी मरे पै धोखा देय।
करिया बाम्हन गोर चमार, इनके साथ न उतरे पार।
ठाकुर मानें कहे-सुने ते, बाम्हन मानै खाये।
कागज मानें लिहे-दिहे ते, सूद जाति लतियाये।
बाम्हन कुत्ता हाथी, नहीं किसी के साथी।
खत्री-पुत्रं कभी न मित्रं, जब मित्रं तब दगिमदगा।
गगरी दाना, सूद बताना।
ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।
इस दुनिया में तीन कसाई, खटमल पिस्सू, बाम्हन भाई।
जे वर्णाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कौल कलवारा।
अंग्रेजों के पूर्वज भी ‘वार ऑफ रोजेज’ और क्रामवेल के युद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध लड़े थे, परंतु उनके वंशजों में अब किसी प्रकार का बैर भाव नहीं है। इसके विरुद्ध भारत का ब्राह्मणेतर आज भी ब्राह्मणों को किसी प्रकार क्षमा करने को तैयार नहीं, क्योंकि उनके पूर्वजों ने शिवाजी का अपमान किया था-तेली, कुम्हार, कलवार, कायस्थ और अहीर को वर्णाधम, शूद्र और अधरूप लिखा। इन अनुलोम-प्रतिलोम वर्ण भेद और जाति भेद ने हिंदू समाज को पारस्परिक कलह, घृणा और भिन्नता के भावों से ऐसा जर्जरित बना रखा है कि हिंदू एक जाति या एक राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं हो सकते।
आर्य समाज की वर्ण व्यवस्था
आर्य समाज ने वर्ण व्यवस्था को आकर्षक बनाने के लिए यह दावा पेश किया कि वर्ण जन्म से नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव से होता है। वह यह भी कहता है कि भारत की चार हजार जातियों और उपजातियों को गलाकर चार वर्णों में ढाल देना चाहिए। ये दोनों बोतें सम्भव नहीं हैं। पहली यह है कि यदि व्यक्ति को गुणों के अनुसार समाज में आदर मिलता है, तो फिर चार वर्णों का आग्रह कैसा। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र नाम के गंदे लेबलों की आवश्यकता क्यों। वर्णों का लेबुल न लगाने से क्या समाज में सम्मान नहीं मिल सकता। दूसरा यह कि गुण क्या चार ही हैं। यदि चार ही हैं, तो यदि एक ही व्यक्ति में ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र चारों के गुणों का विकास हो, तो वह किस वर्ण में रहेगा। फिर, ऊंचे वर्ण में जनमे व्यक्ति को क्या गुण-कर्म के अनुसार नीचे वर्ण में जनमे व्यक्ति को गुण-कर्म के अनुसार ऊंचे वर्ण का माना जाने के लिए क्या समाज को मजबूर किया जा सकेगा। अत: चार हजार जातियों को चार वर्णों में ढालना असंभव-सा है। फिर गुणों के अनुसार चार वर्णों का विभाग करने के लिए क्या म्युनिसिपैलिटी और काउंसिलों के इलेक्शन की तरह वर्णों का इलेक्शन हुआ करेगा अथावा परीक्षाएं लेकर यूनिवर्सिटी से वर्णों का सर्टिफिकेट बंटा करेगा।
इसके सिवाय समाज में आधी आबादी स्त्रियों की है। क्या आज भी समस्त नारी जाति को ‘शूद्रा’ बनाकर रखा जा सकता है। यदि नहीं, तो क्या चातुर्वर्ण के अनुसार कुछ स्त्रियां पुरोहित बनेंगी, कुछ सिपाही का काम करेंगी और कुछ सेठ बनकर व्यापारी का काम करेंगी। इतिहास-प्रसिद्ध प्लेटों ने भी गुणों के अनुसार विचारक, शूर और बणिक व श्रमिक-तीन श्रेणियों मे समाज को बांटने की व्यवस्था की थी, किंतु उसकी व्याख्या भंग हो गई। यह सिद्ध हो गया कि किन्हीं दो मनुष्यों को भी सदा एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि गुण और स्वभाव परिवर्तनशील होते हैं। अतएव आर्य समाजी कल्पना से उद्भूत गुणों के अनुसार चातुर्वर्ण व्यवस्था हानिकर और अस्वाभाविक ही नहीं, वरन मूखर्तापूर्ण और असम्भव भी है।
वस्तुत: चातुर्वर्णी व्यवस्था चाहे गुण-कर्म के अनुसार हो, चाहे जन्म के आधार पर, दोनों रूपों में अस्वाभाविक है। स्वतंत्र मानव समाज को चार वर्णों में केवल कठोर कानून और राज-दंड के भय से ही ठूंसा जा सकता है, जैसा कि चातुर्वर्ण के रक्षक राम ने शूद्र हो कर तप करने के कारण शंबूक का शिरच्छेदन कर दिया। आज बीसवीं शताब्दी के स्वछन्द मानव समाज को मनुस्मृति की अंधकारयुगीन दण्डनाओं से अनुशासित नहीं किया जा सकता।
वर्ण व्यवस्था असाध्य और हानिकारक
चातुर्वर्ण व्यवस्था मानव समाज के लिए असाध्य ही नहीं, हानिकर भी है। इसका अर्थ है, कुछ इने-गिने मनुष्यों के प्रभुत्व के लिए बहुत-से लोगों को सर्वहारा बना दिया जाए। थोड़े-से लोगों के जीवन के विकास और प्रकाश के लिए बहुत-से लोगों को प्रवंचित, नि:सत्व और अंधकारमय बना दिया जाए। भारत में यही हुआ। इस राक्षसी व्यवस्था ने यहां के बहुसंख्यक लोगों को निर्जीव और पंगु बना दिया। यही कारण है कि दूसरे समुन्नत देशों की तरह यहां कभी सामाजिक क्रांति नहीं हुई। यहां का खेतिहर हल के सिवाय तलवार नहीं चला सकता था। जनता के पास संगीनें न थीं। क्रांति के द्वारा दासता से मुक्त होने का कोई साधन न था। उसे समझाया गया था कि परमेश्वर ने ही तुम्हारे भाग्य में दासता लिखी है। इसके फलस्वरूप शूद्र बनाई गई जनता घोर दासता का दु:ख भोगती थी। भारतीय इतिहास में केवल मौर्य साम्राज्य का काल ही वह काल था, जब चातुर्वर्ण विध्वंस हो गया था, शूद्र औश्र दास होश में आ गए थे और देश के शासक बन गए थे।
महाभारत और पुराण ब्राह्मण-क्षत्रियों के संघर्ष से पूर्ण हैं। कभी ब्राह्मण क्षत्रियों का विनाश करते पाए जाते हैं और कभी क्षत्रिय ब्राह्मणों का। यदि क्षत्रिय और ब्राह्मण गली में मिल जाएं तो कौन किसको पहले प्रणाम करे या रास्ता छोड़ दे, ऐसी छोटी बातों पर भी लड़ पड़ते थे। क्षत्रिय और ब्राह्मण एक-दूसरे की आंख के कांटा थे। भागवत में स्पष्ट लिखा है कि कृष्ण का अवतार क्षत्रियों का विनाश करने के लिए हुआ था और ब्रह्म-हत्या निवारण के लिए ही राम को अश्वमेघ यज्ञ करना पड़ा था। इन सब बातों से सिद्ध हो जाता है कि चातुर्वर्ण व्यवस्था आदर्श रूप में कभी सफल नहीं हुई।
स्वेच्छा से व्यवसाय न चुन सकने का परिणाम यह होता है कि लोगों को अपने पैतृक कामों से अरुचि उत्पन्न हो जाती है। इस अरुचि का कारण व्यवसायों पर लगा हुआ कलंक तथा इसे करनेवालों के प्रति ऊंच-नीच की सामाजिक भावनाएं होती हैं। इस सबका परिणाम यह होता है कि उस व्यवसाय की उन्नति नहीं होती।
वर्ण भेद और प्रजनन विज्ञान
वर्ण भेद के हिमायती कुछ लोग इसे रक्त की पवित्रता और वंश की विशुद्धि कायम रखने का साधन कहते हैं, किंतु डॉ. भंडारकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘फॉरेन एलिमेन्ट्स इन द हिंदू पॉपुलेशन’ (हिंदू लोगों में विदेशी तत्व) पुस्तक में तर्क और प्रमाणों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत में ऐसी कोई श्रेणी नहीं जिसमें विजातीय अंश न हो। लड़ाकू राजपूत और मराठों में ही नहीं, ब्राह्मणों में भी शुद्ध रक्त नहीं है। वर्ण भेद वस्तुत: विभिन्न जातियों के रक्त और संस्कृति-सम्मिश्रण के बहुत पीछे बना। पंजाब और मद्रास के ब्राह्मणों अथवा बंगाल और मद्रास के अस्पृश्यों में ही एक वंश या एक ही रक्त नहीं है। वस्तुत: पंजाब के ब्राह्मण और पंजाब के चमार एवं मद्रास के बाह्मण और मद्रास के चमार में रक्त और वंश की एकता है। यदि विभिन्न वर्णों के लोगों में वर्णांतर विवाह होने दिया जाए, तो इससे हानि की अपेक्षा लाभ ही अधिक होगा। हां, पशु और मनुष्य में भेद अवश्य है। मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं है, क्योंकि विभिन्न वर्णों के विवाहों से संतान पैदा होती है, स्त्रियां बांझ नहीं हो जातीं। थोड़ी देर के लिए यदि मान लिया जाए कि रक्त सम्मिश्रण की रूकावट सुप्रजजन या रक्त शुद्धि की दृष्टि से है, तो विभिन्न वर्णों के पारस्परिक सहयोग की रूकावट का उद्देश्य क्या है।
वर्ण भेद यदि सुप्रजनन शास्त्र के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार होता, तो इस पर अधिक आपत्तियां न होतीं, क्योंकि जब उसका उद्देश्य उत्तम संतान उत्पन्न कर नस्ल का सुधार करना होता। परंतु ऐसा पाया नहीं जाता। वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। वर्ण भेद ने ऐसी नस्ल पैदा की जिसका न लंबा कद है, न बलिष्ठ शरीर। शारीरिक दृष्टि से हिंदू ठिगने और बौने लोगों की जाति है। एक ऐसी नस्ल, जिसका दसवां भाग सैनिक सेवा के अयोग्य है। ऐसी दशा में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वर्ण व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक सुप्रजजन शास्त्र है। यह तो एक ऐसी सामाजिक पद्धति है जिसमें इसके व्यवस्थापकों का घमंड और स्वार्थ भरा है। इन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त हो गई थी, जिससे ये ऐसा गर्हित व्यवस्था अपने से छोटों पर लाद सकें। इसने हिंदुओं को पूर्णत: असंगठित और नीति-भ्रष्ट बना दिया है।
आदिवासी और जातिभेद
देश में आदिवासियों की एक खासी संख्या है, जो मानव समाज से अलग असभ्य जंगली हालत में पाए जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो विवश हो ‘जरायमपेशा’ हो गए हैं। हिंदू डींगे मारते हैं कि उनके वेद में सारे विश्व को ‘आर्य’ बनाने का आदेश है, तो फिर अपने ही देश में रहनेवाले इन आदिवासियों को उन्होंने अब तक सभ्य आर्य क्यों नहीं बनाया। क्या यह शर्म की बात नहीं है।
हिंदुओं ने इन आदिवासी मानवों को सभ्य बनाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया, इसका सही उत्तर यह है कि हिंदू वर्ण और जाति के अहंकार से ग्रसित हैं, इसलिए वह इनसे संपर्क स्थापित नहीं कर सकता। इन्हें सभ्य बनाने में उसे इनके बीच बसना, इनसे प्रेम व सहानुभूति पैदा करना एवं इन्हें अपनाना पड़ता। यह सब उनके लिए संभव न था, क्योंकि ऐसा करने में हिंदू में वर्ण और जाति की पवित्रता नष्ट हो जाती। इसलिए वह इनसे दूर रहा। हिंदुओं को यह कल्पना नहीं हुई कि यदि अहिंदुओं ने इन जातियों को सुधार कर इन्हें अपने धर्म का साझीदार बना लिया, तो ये बहुसंख्यक आदिवासी उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ा देंगे और तब हिंदुओं को अपने जाति भेद और वर्णभेद को ही धन्यवाद देना पड़ेगा।
केवल यही नहीं कि हिंदुओं ने इन जंगलियों को सभ्य बनाने का यत्न नहीं किया, ऊंचे वर्णवाले हिंदुओं ने अपने से नीचे वर्णवालों के सांस्कृतिक विकास को रोका है। महाराष्ट्र के सुनारों और पठारे प्रभुओं के साथ बलपूर्वक ऐसा किया गया। बेचारे सुनारों को शौक हुआ कि वे भी ब्राह्मणों की तरह चुनी धोती और त्रिपुंड धारण कर परस्पर ‘नमस्कार’ किया करें, तो उन्हें पेशवाओं ने दबाव डाल कर ऐसा करने से रोक दिया और पठारे प्रभु जब ब्राह्मणों की नकल कर विधवाओं को बिठलाने लगे(क्योंकि विधवा विवाह अनार्य प्रथा है, आर्य हिंदुओं में विधवा विवाह नहीं होता), तो कानूनन रोका गया।
हिंदू लोग मुसलमानों और ईसाइयों की हमेशा निंदा किया करते हैं, किंतु ये दोनों धर्म मानवता के अधिक निकट पाए जाते हैं। ये गिरे हुओं को उठाते और ज्ञान का प्रकाश फैलाकर लोगों की लोगों की उन्नति का मार्ग खोलते हैं, जबकि हिंदुओं का जातीय राग-द्वेष दुर्बलों को सदा अज्ञानांधकार में रखकर उन्हें दासता का सबक सिखाने और उन्हें दलित व पीडि़त, प्रवंचित या शोषित करने में ही अपना परम पुरूषार्थ समझता है।
शुद्धि और संगठन
ईसाई मिशनरियों की देखा-देखी हिंदुओं में भी विधर्मियों की शुद्धि करके संख्या बढ़ाने का शौक पैदा हुआ। उन्होंने यह नहीं सोचा कि हिंदू धर्म मिशनरी(प्रचारक) धर्म नहीं है, अत: शुद्धि आंदोलन एक मूर्खता और व्यर्थ चेष्टा सिद्ध होगा।
वस्तुत: हिंदू समाज वर्णों और उपवर्णों (जातियों) का संग्रह मात्र होने से प्रत्येक वर्ण एक ऐसा संगठित संघ है, जिसमें बाहर से भीतर आने का द्वार बंद है। हिंदू संस्कृति के अनुसार किसी जाति विशेष में जन्म लेनेवाला ही उस जाति का सदस्य माना जा सकता है। किंतु जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे धर्म में जाता है, तो उसके सामने केवल सिद्धांतों और दर्शनों को ही दिमाग में ठूंस लेने का प्रश्न नहीं होता, वह यह भी देखता है कि उस समाज में प्रवेश करने पर उसका स्थान क्या होगा, वह कहां रखा जाएगा, किस बिरादरी में उसे जगह मिलेगी, किन लोगों में उसके बच्चों के ब्याह होंगे, इत्यादि। हिंदुओं का जाति भेद इन प्रश्नों का उत्तर देने में विमूड़ है।
जिन कारणों से शुद्धि संभव नहीं है, प्राय: उन्हीं कारणों से संगठन भी असंभव है। जातिवाद होने से हिंदू शारीरिक शक्ति रखते हुए भी भीरु, कायर, दब्बू और अकेला है। उसे विश्वास नहीं है कि संकट पड़ने पर दूसरी जाति का हिंदू उसकी सहायता करेगा। मुसलमानों और सिखों की तरह वह किसी संकटग्रस्त को अपने घर में छिपाकर रोटी नहीं खिला सकता, न विभिन्न जातियों के हिंदू एक परिवार की तरह संगठित होकर एक घर में रह सकते हैं। यही कारणा है कि जब एक हिंदू पिटता या लुटता है, तो दूसरा उसे बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने की हिम्मत नहीं करता। किसी हिंदू लड़की का अपहरण हो जाने पर हिंदू उसे वापस लाने में इसलिए उदासीन रहता है कि उसकी शादी कहां करेगा। बिरादरी में तो उसे कोई अच्छा घर-वर मिलेगा नहीं।
वर्ण भेद और जाति भेद से ग्रस्त होने के कारण हिंदू समझता है कि भाग्य ने उसे अकेला पैदा किया है। हिंदू के रहन-सहन, खान-पान और पूजा-उपासना में कोई ऐसी बात नहीं है, जो उसे मुसलमानों और सिखों की तरह एकनिष्ठ करके परस्पर सहानुभूति उत्पन्न करे, न ऐसा कोई सामाजिक बंधन है जिससे एक हिंदू दूसरे हिंदू को अपना भाई समझे। इसीलिए हिंदू संगठित भी नहीं हो पाता।
जाति भेद और सदाचार
वर्णवाद और जातिवाद ने इस देश में मानवी सदाचार का भी संहार कर दिया है, जो अत्यंत खेदजनक है। मानवीय सदाचार का अर्थ है सार्वजनिक सद्गुण और सार्वजनिक सदाचार। मनुष्यों के केवल दो विभाग किए जा सकते हैं: अच्छे और बुरे, ज्ञानी और अज्ञानी, धर्मात्मा और धर्महीन, विद्वान और मूर्ख। किंतु वर्ण और जाति की भावना ने हिंदुओं की दृष्टि को ऐसा संकुचित बना दिया है कि अन्य मनुष्य कितना ही सद्गुणी और सदाचारी क्यों न हो, यदि वह किसी वर्ण-विशेष या जाति-विशेष का व्यक्ति नहीं है, तो उसकी कोई सुनेगा ही नहीं। एक ब्राह्मण किसी अब्राह्मण को अपना नेता और गुरु नहीं मानेगा। इसी तरह कायस्थ कायस्थ को और बनिया बनिए को ही अपना नेता मानेगा। वर्ण और जाति का विचार छोड़कर मनुष्यों के सद्गुणों की कद्र वह तभी करेगा, जब वह व्यक्ति उसका जाति-भाई हो। वहां मानवीय सदाचार ‘कबायली सदाचार’ बन गया है। सद्गुण और सदाचार की प्रधानता नहीं है, वर्ण और जाति की प्रधानता है। (महात्मा गांधी भी तभी तक ‘राष्ट्रपिता’ रहे थे, जब तक आजादी नहीं मिली थी। आजादी मिल जाने पर उनकी एक नहीं चली, और अंत में वह एक ब्राह्मण की गोली का निशाना बन गए।)
मेरा आदर्श समाज
आप पूछ सकते हैं, यदि आप वर्ण और जाति नहीं चाहते, तो आपका आदर्श समाज क्या है। मैं कहूंगा, एक ऐसा समाज, जिसमें न्याय, बन्धुता, समता और स्वतंत्रता हो। मैं समझता हूं, किसी भी विचारवान को इससे इन्कार न होना चाहिए। बन्धुता का अर्थ यह है कि देश में उत्पन्न सभी व्यक्ति परस्पर भाई-भाई हैं और सभी का पिता की संपत्ति की भांति देश की संपत्ति पर समान अधिकार है। जीवन के लिए आवश्यक भोजन, वसन, औषधि और शिक्षा के लिए सभी बराबर के हकदार हैं। इसी का नाम बन्धुता या भाईचारा है। इसका दूसरा नाम है जनतंत्र या लोकतंत्र।
‘समता’ शब्द पर फ्रांसीसी राज्य क्रांति के समय बहुत विवाद हुआ, क्योंकि सब मनुष्य समान नहीं होते। कोई प्रतिभाशाली है। कोई जड़-बुद्धि, कोई कलाकार है, कोई लंठ, कोई बलिष्ठ है, कोई दुर्बल, कोई वीर है, कोई भीरु, कोई पुरुषार्थी है, कोई आलसी, कोई कर्मिष्ठ है और कोई आरामतलब, कोई सर्वांग-सुन्दर है और कोई कुरूप इत्यादि। प्राकृतिक असमानता के कारण व्यवहार में भी असमानता न्यायसंगत है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति को, उसके अन्दर निहित शक्ति के पूर्ण विकास में, समान भाव से प्रोत्साहन और सुविधा मिलना आवश्यक है। इसमें जाति, वंश, खानदान, पारिवारिक ख्याति, सामाजिक संबंध इत्यादि बातें बाधक नहीं होनी चाहिए। जनतंत्र में वोट सबके समान होते हैं, वोटों का वर्गीकरण नहीं होता। अत: सबके उन्नति के अधिकार और व्यवहार में भी समता होना अनिवार्यत: आवश्यक है।
स्वतंत्रता समय की मांग और युग-धर्म है। जैसे उठने-बैठने, चलने-फिरने, हिलने-डुलने, सोने-जागने की स्वतंत्रता सभी को प्राप्त है, उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय चुनने और आचरण करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। दूसरों की इच्छानुसार जीविका अर्जन करने और अपने जीवन का कर्तव्य स्थिर करने की विवशता होना तो दासता है। वर्ण विधान अर्थात् कल्पित वर्णों के अनुसार कर्मों की व्यवस्था तो एक वैधानिक ‘दास प्रथा’ मात्र है। खान-पान, रहन-सहन, धर्माचरण, चिंतन-भाषण, लेखन-मुद्रण इत्यादि की स्वतंत्रता सभी को होनी चाहिए।
इस प्रकार न्याय, बन्धुता, समता और स्वतंत्रता से युक्त समाज ही मेरा आदर्श समाज है।
प्रवक्ता डॉट कॉम
Rajan kumar
Sunday, July 10, 2011
आदिवासियों का विकास और शिक्षा से ही नक्सलवाद का समूल नाश संभव
Rajan kumar राजन कुमार
आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे नक्सली तेजी से कदम पसार रहे है और साथ-साथ आदिवासी युवाओं को भी इस फौज मे तेजी से झोंक रहे है। जिससे इन आदिवासी युुवाओं के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा हेै। अगर समय रहते इन आदिवासी युवाओं के लिए कोई कारगर कदम नही उठाया गया तो एक दिन सभी आदिवासी युवा नक्सलियों के चपेट मे होंगे। सरकार नक्सलियों से निपटने का उपाय सिर्फ युद्ध में तलाश रही है और मर रहें हेैं आदिवासी युवा! सरकार अगर आदिवासियों के विकास और शिक्षा का विशेष प्रावधान करे तो नक्सलियों का समूल नाश संभव है।
अशिक्षा, भूखमरी और बेरोजगारी, प्रशासनिक कर्मचारियों और नक्सलियों के प्रताड़ना के कारण ही आदिवासी युवा मजबूरन नक्सली बनने पर मजबूर हो जाते है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र मे कहने मात्र के लिए कोई पुलिस स्टेशन या पुलिस चौकी होता है वहां तो सिर्फ नक्सलियों की तूती बोलती है। प्रशासनिक कर्मचारी या नेता, क्षेत्र के दबंग, पावरफुल लोग समाज के सबसे निर्दोष लोगों पर बर्बरता पूर्वक अत्याचार करते है, उनके जंगल, जमीन पर जबरन कब्जा, हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसी संगीन अत्याचार करते है। जब इनकों कहीं से न्याय नही मिलता है तो ये लोग नक्सलियों के बहकावे मे आकर नक्सली बन जाते है। नक्सली बने आदिवासी जब सामान्य जीवन मे लौटना चाहते है तो नक्सली उनके पुराने जख्मों को पुन: कुरेद कर हरा कर देते है। उस परिस्थिती में उसके चारो तरफ खाई नजर आती है और आदिवासी चाह कर भी नही लौट पाता है। स्पष्ट तौर पर सरकार ही आदिवासियों के इस हालत की जिम्मेदार है। आदिवासियों से छल-कपट सरकार ने किया, उनके जमीन, जंगल को जबरन अधिग्रहित कर लिया, जो थोड़ा बहुत बचा उसे दलाल सरकारी कर्मचारियों से मिलीभगत कर जबरन लूट लिए, अब तो आदिवासी बिल्कुल बेघर हो चुका है। खुले आसमान के नीचे जीवन यापन करना, तालाबों का गंदा पानी पीना, घास खाकर जीवित रहना बिल्कुल पशुओं जैसी रहन-सहन! इन हालातों मे नक्सली ही इनका साथ देते है, और भोले भाले आदिवासी बन जाते है नक्सली! झारखण्ड, उड़ीसा के आदिवासियों को सरकार ने जब बेघर कर दिया तब कुछ आदिवासी नक्सली बन गए और कुछ असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों मे शरण ली। जहां उन्हे निम्न पगार से भी बहुत कम पगार दिया जाता है। ना घर है ना किसी प्रकार की सुविधा। रहना है और जीना है सिर्फ चाय बागान मालिक के रहमो करम पर। जो नक्सली बन गये वो अपने अगली पीढ़ी को नक्सली नही बनाना चाहते लेकिन दूसरा कोई उनके पास चारा भी नही है।
सरकार आदिवासियों के भावनाओं को समझने के बजाय उन्हें मार रही है, जो कुछ आदिवासी अपने संस्कृति और समाज के लिए बचे उनके भी हाथों मे जबरन हथियार थमा कर सलवा जुडूम बना रही है। आदिवासी को आदिवासी से लड़ने पर मजबूर कर रही है। नक्सलियों के फौज में लगभग 98 प्रतिशत आदिवासी होते हैैं जबकि इसका कमांडर कोई अन्य होता है और वह शहरों मे रह कर नक्सली फौज को संचालित करता है। अपने लड़कों को अच्छे स्कूलों मे दाखिला कराता है, महलों मे रहता हैै, और वनों मे रहे रहे भोले भाले आदिवासियों और उनके बच्चों को नक्सली बनाता है।
सरकार वाकई नक्सलियों का समूल नाश चाहती है तो उसे युद्ध का रास्ता त्याग कर आदिवासियों के विकास और शिक्षा पर जोर देना होगा। कुछ नियम आदिवासियों के लिए जरूर बने है लेकिन इसका फायदा आदिवासी नही मिल पाता! भोले भाले अशिक्षित आदिवासियों को कुछ भी पता नही कि उनके विकास के लिए कितने रूपये केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की तरफ से आवंटित किए जाते है? किसके माध्यम से आते है? और किसके पास आते है? आदिवासी सिर्फ वोट देना जानता है, इसके सिवा उसे कुछ पता ही नही! उम्मीदवार उनके क्षेत्रों मे जाते है, आदिवासियों के हाथ जोड़ते है, कई वादें करते है, कुछ खाने पीने की चीजें उपलब्ध करा देते हैं। जनप्रतिनिधि बनने के बाद पता नही आदिवासी मर रहा है कि क्या हो रहा है, पता ही नही। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी तो बेघर होने के बाद नक्सली बन गए, बाकी सलवा जुडूम उसके बाद जो कुछ बचे नक्सलियों की गुलामी करते है। इन आदिवासियों के सामने ही नक्सली इनकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार करते है, बंदूक के बल पर अपना काम कराते है, इसके बाद पुलिस वाले इन आदिवासियों को नक्सलियों के काम करने के अपराध मे जेल मे डाल देते है। अब सड़ते रहें जिंदगी भर जेल में! इन आदिवासियों के परिजनों के पैसा तो है नही कि इनका जमानत करा सकें। ऐसे इलाकों मे दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, बंगलुरू आदि कई महानगरों से दलाल जातें है और आदिवासियों लड़कियों को बहला -फुुसला कर महानगरों मे लाकर बेच देते है।
अशिक्षित होने के कारण ही आदिवासी युवतियां दिल्ली समेत कई महानगरों मे बेची जाती है। दलाल उन्हे जिस्मफरोशी के धंधे मे धकेल देते हैं या प्लेसमेंट एजेंसियों वालों को बेच देते है। जहां प्लेसमेट एजेंसी वाले आदिवासी युवतियों को 1 साल या 6 महीने के लिए नौकरानी के तौर पर लोगों के यहां गिरवी रख देते है। और फिर एक साल बाद उसे छुड़ा कर दूसरे जगह गिरवी रख देते है। प्लेसमेट एजेंसी वालों का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है।
हम दिल्ली की बात करें तो लगभग 2 लाख से भी अधिक आदिवासी लड़कियां झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, असम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और पूर्वोत्तर समेत कई प्रदेशों से दलालों द्वारा बहला फुसला कर लायी गयी हैं और लोगों के यहां गिरवी है। इन बेबस आदिवासी लड़कियों का कोई भी अभिभावक नही है, और न ही कोई पहचान। पशुओं की तरह जीवन यापन कर रहीं है प्लेसमेंट एजेंसियों के रहमो करम पर। आदिवासियों के समस्याओं के समाधान हेतु केन्द्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग बनाया गया है। आदिवासियों के हित के लिए संविधान मे कर्ई नियम कानून बनाया गया , संसद मे आदिवासी कोटा में रिजर्व सीट से 42 एमपी हैं। कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री और मंत्री आदिवासी हैं, केन्द्र से राज्य सरकार तक कई आदिवासी मंत्री आदिवासियों के नाम पर आदिवासियों के लिए ही बनाये गये है। इसके बावजूद आज भी आदिवासियों की उपेक्षा जारी है। आदिवासियों के हित के लिए कई सरकारी गैर सरकारी एनजीओ बनाये गये है, एनजीओ के कार्यकर्ता वातानुकुलित कमरें मे बैठ कर आदिवासियों के बारे मे जरूर लिखते है, लेकिन हकीकत तो यह आदिवासियों के बारे मे उन्हे कुछ खास पता ही नही है। आदिवासी भारत के किन-किन प्रदेशों मे रहतें है, कैसे रहतें है, क्या करते हैं सरकार और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहा है। किसी के मुंह से सुन लिए और लिख कर आदिवासियों के नाम पर फंड ले लिए। आदिवासियों के नाम पर देश -विदेश से फंड लेते है, लेकिन अफसोस कि उस फंड का आदिवासियों मे उपयोग नही किया जाता हेै। आदिवासियों के नाम से मिला फंड भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अगर भोले भाले अशिक्षित आदिवासी शिक्षित हो जाये तो सबसे अमीर हो जायेंगे। लेकिन सरकार ऐसा चाह नही रही है। अगर आदिवासी शिक्षित हो गया तो अपने अधिकारों की मांग करेगा, उनके जंगल, जमीनों को लूटना मुश्किल हो जायेगा, तब हमारे पास इतने पैसे कहां से आयेंगे, हम स्विस बैंक मे काला धन कहां से जमा करेंगे, शायद यहीं सोच हैं केन्द्र से लेकर राज्य सरकार के मंत्रियों का! आदिवासियों को अशिक्षा के अंधेरे मे रहने दो, आदिवासियों को वोट बैैंक बनाओ, एक आदिवासी को प्रतिनिधि बना कर करोड़ो आदिवासियों के हक और भावनाओं के साथ खेलो, आदिवासियों को लूटो, जीतने के बाद आदिवासियों को लालीपाप थमाओं, यहीं राजनीति बन गयी है केन्द्र और राज्य सरकारों का! तभी तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड समेत विभिन्न प्रदेशों मे आदिवासी प्रतिनिधि बनाने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन इससे आदिवासियों को फायदा क्या होगा? कुछ नही! आदिवासी जैसा है वैसा ही रहेगा।
अभी कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजस्थान मे आदिवासियों को देश का बुनियाद कहा था और भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आदिवासियों के प्रगति के लिए राज्य सरकारों को कार्य करने को कहा था। सभी अखबारों और न्यूज चैनलों ने इस खबरों को प्रमुखता से जगह दिया था। मैने भी अपने साप्ताहिक पत्रिका दलित आदिवासी दुनिया प्रमुखता से जगह दिया। इस खबर को पढ़ने के बाद पश्चिम बंगाल, असम, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से कई फोन हमारे पास आये और सभी ने क्षोभ और दु:ख प्रकट किया। उनका कहना था कि आप इन लोगों को इतना हाइलाइट क्यों करते हों जो हमारे समाज को लूटने के सिवा कुछ नही किया। ये लोग ऐसे ही आश्वासन देकर हम लोगों को सिर्फ लूटना जानते है। ये लोग कमजोर पड़े वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ही आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया और आदिवासियों को झूठा आश्वासन दिया।
सरकार द्वारा आदिवासियों पर हो रहे बर्बरता पूर्वक अत्याचार ही आदिवासियों नक्सली बनने पर मजबूर कर रहा है। अगर सरकार आदिवासियों पर अत्याचार न करके उनके विकास और शिक्षा पर ध्यान दे तो मुझे पूरा विश्वास है नक्सलियों का समूल नाश हो जायेगा, क्यों कि आदिवासी ही उत्पीड़न का शिकार होकर नक्सली बनता हैै। जब आदिवासी शिक्षित हो जायेगा तो स्वत: ही वह समाज की मुख्य धारा से जुड़कर अपने और अपने समाज के हित के कार्य करेगा। आदिवासी आज नक्सली है तो उसमे उसकी कोर्ई गलती है, गलती सिर्फ और सिर्फ सरकार का है, और सजा भी नक्सली के बजाय सरकार को मिलनी चाहिए।
केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक नक्सलवाद और भोले भाले आदिवासियों को मोहरा बनाकर, आपस मे लड़ाकर राजनीति कर रही है। आखिर क्यों? नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार सैकड़ो करोड़ रूपयें खर्च कर रही है लेकिन आदिवासियों के विकास के लिए क्यों नही कर रही है? सरकार अगर आदिवासियों के विकास पर जोर दे, शिक्षा पर जोर दे, आदिवासियों को रोजगार दे तो आदिवासी नक्सली क्यों बनेगा? आदिवासी भी विकास चाहता है, समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। लेकिन सरकार के गैर जिम्मेदाराना रवैया के कारण ही आदिवासी आज तक समाज की मुख्य धारा से नही जुड़ पाया है। सरकार को चाहिए कि आदिवासियों को शिक्षित करें, उनका विकास करे, रोजगार प्रदान कराये, न कि सलवा जुडूम मे भर्ती कर उनका विनाश करे।
संविधान के निर्माता डा0 भीमराव अंबेडकर ने भी कहा है कि अगर पिछड़ा वर्ग शिक्षा ग्रहण कर ले तो सामाजिक विषमता स्वत: ही खत्म हो जायेगी और सभी लोग समाज की मुख्य धारा से जुड़ जायेंगे।
Rajan kumar राजन कुमार
आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे नक्सली तेजी से कदम पसार रहे है और साथ-साथ आदिवासी युवाओं को भी इस फौज मे तेजी से झोंक रहे है। जिससे इन आदिवासी युुवाओं के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा हेै। अगर समय रहते इन आदिवासी युवाओं के लिए कोई कारगर कदम नही उठाया गया तो एक दिन सभी आदिवासी युवा नक्सलियों के चपेट मे होंगे। सरकार नक्सलियों से निपटने का उपाय सिर्फ युद्ध में तलाश रही है और मर रहें हेैं आदिवासी युवा! सरकार अगर आदिवासियों के विकास और शिक्षा का विशेष प्रावधान करे तो नक्सलियों का समूल नाश संभव है।
अशिक्षा, भूखमरी और बेरोजगारी, प्रशासनिक कर्मचारियों और नक्सलियों के प्रताड़ना के कारण ही आदिवासी युवा मजबूरन नक्सली बनने पर मजबूर हो जाते है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र मे कहने मात्र के लिए कोई पुलिस स्टेशन या पुलिस चौकी होता है वहां तो सिर्फ नक्सलियों की तूती बोलती है। प्रशासनिक कर्मचारी या नेता, क्षेत्र के दबंग, पावरफुल लोग समाज के सबसे निर्दोष लोगों पर बर्बरता पूर्वक अत्याचार करते है, उनके जंगल, जमीन पर जबरन कब्जा, हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसी संगीन अत्याचार करते है। जब इनकों कहीं से न्याय नही मिलता है तो ये लोग नक्सलियों के बहकावे मे आकर नक्सली बन जाते है। नक्सली बने आदिवासी जब सामान्य जीवन मे लौटना चाहते है तो नक्सली उनके पुराने जख्मों को पुन: कुरेद कर हरा कर देते है। उस परिस्थिती में उसके चारो तरफ खाई नजर आती है और आदिवासी चाह कर भी नही लौट पाता है। स्पष्ट तौर पर सरकार ही आदिवासियों के इस हालत की जिम्मेदार है। आदिवासियों से छल-कपट सरकार ने किया, उनके जमीन, जंगल को जबरन अधिग्रहित कर लिया, जो थोड़ा बहुत बचा उसे दलाल सरकारी कर्मचारियों से मिलीभगत कर जबरन लूट लिए, अब तो आदिवासी बिल्कुल बेघर हो चुका है। खुले आसमान के नीचे जीवन यापन करना, तालाबों का गंदा पानी पीना, घास खाकर जीवित रहना बिल्कुल पशुओं जैसी रहन-सहन! इन हालातों मे नक्सली ही इनका साथ देते है, और भोले भाले आदिवासी बन जाते है नक्सली! झारखण्ड, उड़ीसा के आदिवासियों को सरकार ने जब बेघर कर दिया तब कुछ आदिवासी नक्सली बन गए और कुछ असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों मे शरण ली। जहां उन्हे निम्न पगार से भी बहुत कम पगार दिया जाता है। ना घर है ना किसी प्रकार की सुविधा। रहना है और जीना है सिर्फ चाय बागान मालिक के रहमो करम पर। जो नक्सली बन गये वो अपने अगली पीढ़ी को नक्सली नही बनाना चाहते लेकिन दूसरा कोई उनके पास चारा भी नही है।
सरकार आदिवासियों के भावनाओं को समझने के बजाय उन्हें मार रही है, जो कुछ आदिवासी अपने संस्कृति और समाज के लिए बचे उनके भी हाथों मे जबरन हथियार थमा कर सलवा जुडूम बना रही है। आदिवासी को आदिवासी से लड़ने पर मजबूर कर रही है। नक्सलियों के फौज में लगभग 98 प्रतिशत आदिवासी होते हैैं जबकि इसका कमांडर कोई अन्य होता है और वह शहरों मे रह कर नक्सली फौज को संचालित करता है। अपने लड़कों को अच्छे स्कूलों मे दाखिला कराता है, महलों मे रहता हैै, और वनों मे रहे रहे भोले भाले आदिवासियों और उनके बच्चों को नक्सली बनाता है।
सरकार वाकई नक्सलियों का समूल नाश चाहती है तो उसे युद्ध का रास्ता त्याग कर आदिवासियों के विकास और शिक्षा पर जोर देना होगा। कुछ नियम आदिवासियों के लिए जरूर बने है लेकिन इसका फायदा आदिवासी नही मिल पाता! भोले भाले अशिक्षित आदिवासियों को कुछ भी पता नही कि उनके विकास के लिए कितने रूपये केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की तरफ से आवंटित किए जाते है? किसके माध्यम से आते है? और किसके पास आते है? आदिवासी सिर्फ वोट देना जानता है, इसके सिवा उसे कुछ पता ही नही! उम्मीदवार उनके क्षेत्रों मे जाते है, आदिवासियों के हाथ जोड़ते है, कई वादें करते है, कुछ खाने पीने की चीजें उपलब्ध करा देते हैं। जनप्रतिनिधि बनने के बाद पता नही आदिवासी मर रहा है कि क्या हो रहा है, पता ही नही। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी तो बेघर होने के बाद नक्सली बन गए, बाकी सलवा जुडूम उसके बाद जो कुछ बचे नक्सलियों की गुलामी करते है। इन आदिवासियों के सामने ही नक्सली इनकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार करते है, बंदूक के बल पर अपना काम कराते है, इसके बाद पुलिस वाले इन आदिवासियों को नक्सलियों के काम करने के अपराध मे जेल मे डाल देते है। अब सड़ते रहें जिंदगी भर जेल में! इन आदिवासियों के परिजनों के पैसा तो है नही कि इनका जमानत करा सकें। ऐसे इलाकों मे दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, बंगलुरू आदि कई महानगरों से दलाल जातें है और आदिवासियों लड़कियों को बहला -फुुसला कर महानगरों मे लाकर बेच देते है।
अशिक्षित होने के कारण ही आदिवासी युवतियां दिल्ली समेत कई महानगरों मे बेची जाती है। दलाल उन्हे जिस्मफरोशी के धंधे मे धकेल देते हैं या प्लेसमेंट एजेंसियों वालों को बेच देते है। जहां प्लेसमेट एजेंसी वाले आदिवासी युवतियों को 1 साल या 6 महीने के लिए नौकरानी के तौर पर लोगों के यहां गिरवी रख देते है। और फिर एक साल बाद उसे छुड़ा कर दूसरे जगह गिरवी रख देते है। प्लेसमेट एजेंसी वालों का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है।
हम दिल्ली की बात करें तो लगभग 2 लाख से भी अधिक आदिवासी लड़कियां झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, असम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और पूर्वोत्तर समेत कई प्रदेशों से दलालों द्वारा बहला फुसला कर लायी गयी हैं और लोगों के यहां गिरवी है। इन बेबस आदिवासी लड़कियों का कोई भी अभिभावक नही है, और न ही कोई पहचान। पशुओं की तरह जीवन यापन कर रहीं है प्लेसमेंट एजेंसियों के रहमो करम पर। आदिवासियों के समस्याओं के समाधान हेतु केन्द्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग बनाया गया है। आदिवासियों के हित के लिए संविधान मे कर्ई नियम कानून बनाया गया , संसद मे आदिवासी कोटा में रिजर्व सीट से 42 एमपी हैं। कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री और मंत्री आदिवासी हैं, केन्द्र से राज्य सरकार तक कई आदिवासी मंत्री आदिवासियों के नाम पर आदिवासियों के लिए ही बनाये गये है। इसके बावजूद आज भी आदिवासियों की उपेक्षा जारी है। आदिवासियों के हित के लिए कई सरकारी गैर सरकारी एनजीओ बनाये गये है, एनजीओ के कार्यकर्ता वातानुकुलित कमरें मे बैठ कर आदिवासियों के बारे मे जरूर लिखते है, लेकिन हकीकत तो यह आदिवासियों के बारे मे उन्हे कुछ खास पता ही नही है। आदिवासी भारत के किन-किन प्रदेशों मे रहतें है, कैसे रहतें है, क्या करते हैं सरकार और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहा है। किसी के मुंह से सुन लिए और लिख कर आदिवासियों के नाम पर फंड ले लिए। आदिवासियों के नाम पर देश -विदेश से फंड लेते है, लेकिन अफसोस कि उस फंड का आदिवासियों मे उपयोग नही किया जाता हेै। आदिवासियों के नाम से मिला फंड भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अगर भोले भाले अशिक्षित आदिवासी शिक्षित हो जाये तो सबसे अमीर हो जायेंगे। लेकिन सरकार ऐसा चाह नही रही है। अगर आदिवासी शिक्षित हो गया तो अपने अधिकारों की मांग करेगा, उनके जंगल, जमीनों को लूटना मुश्किल हो जायेगा, तब हमारे पास इतने पैसे कहां से आयेंगे, हम स्विस बैंक मे काला धन कहां से जमा करेंगे, शायद यहीं सोच हैं केन्द्र से लेकर राज्य सरकार के मंत्रियों का! आदिवासियों को अशिक्षा के अंधेरे मे रहने दो, आदिवासियों को वोट बैैंक बनाओ, एक आदिवासी को प्रतिनिधि बना कर करोड़ो आदिवासियों के हक और भावनाओं के साथ खेलो, आदिवासियों को लूटो, जीतने के बाद आदिवासियों को लालीपाप थमाओं, यहीं राजनीति बन गयी है केन्द्र और राज्य सरकारों का! तभी तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड समेत विभिन्न प्रदेशों मे आदिवासी प्रतिनिधि बनाने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन इससे आदिवासियों को फायदा क्या होगा? कुछ नही! आदिवासी जैसा है वैसा ही रहेगा।
अभी कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजस्थान मे आदिवासियों को देश का बुनियाद कहा था और भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आदिवासियों के प्रगति के लिए राज्य सरकारों को कार्य करने को कहा था। सभी अखबारों और न्यूज चैनलों ने इस खबरों को प्रमुखता से जगह दिया था। मैने भी अपने साप्ताहिक पत्रिका दलित आदिवासी दुनिया प्रमुखता से जगह दिया। इस खबर को पढ़ने के बाद पश्चिम बंगाल, असम, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से कई फोन हमारे पास आये और सभी ने क्षोभ और दु:ख प्रकट किया। उनका कहना था कि आप इन लोगों को इतना हाइलाइट क्यों करते हों जो हमारे समाज को लूटने के सिवा कुछ नही किया। ये लोग ऐसे ही आश्वासन देकर हम लोगों को सिर्फ लूटना जानते है। ये लोग कमजोर पड़े वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ही आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया और आदिवासियों को झूठा आश्वासन दिया।
सरकार द्वारा आदिवासियों पर हो रहे बर्बरता पूर्वक अत्याचार ही आदिवासियों नक्सली बनने पर मजबूर कर रहा है। अगर सरकार आदिवासियों पर अत्याचार न करके उनके विकास और शिक्षा पर ध्यान दे तो मुझे पूरा विश्वास है नक्सलियों का समूल नाश हो जायेगा, क्यों कि आदिवासी ही उत्पीड़न का शिकार होकर नक्सली बनता हैै। जब आदिवासी शिक्षित हो जायेगा तो स्वत: ही वह समाज की मुख्य धारा से जुड़कर अपने और अपने समाज के हित के कार्य करेगा। आदिवासी आज नक्सली है तो उसमे उसकी कोर्ई गलती है, गलती सिर्फ और सिर्फ सरकार का है, और सजा भी नक्सली के बजाय सरकार को मिलनी चाहिए।
केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक नक्सलवाद और भोले भाले आदिवासियों को मोहरा बनाकर, आपस मे लड़ाकर राजनीति कर रही है। आखिर क्यों? नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार सैकड़ो करोड़ रूपयें खर्च कर रही है लेकिन आदिवासियों के विकास के लिए क्यों नही कर रही है? सरकार अगर आदिवासियों के विकास पर जोर दे, शिक्षा पर जोर दे, आदिवासियों को रोजगार दे तो आदिवासी नक्सली क्यों बनेगा? आदिवासी भी विकास चाहता है, समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। लेकिन सरकार के गैर जिम्मेदाराना रवैया के कारण ही आदिवासी आज तक समाज की मुख्य धारा से नही जुड़ पाया है। सरकार को चाहिए कि आदिवासियों को शिक्षित करें, उनका विकास करे, रोजगार प्रदान कराये, न कि सलवा जुडूम मे भर्ती कर उनका विनाश करे।
संविधान के निर्माता डा0 भीमराव अंबेडकर ने भी कहा है कि अगर पिछड़ा वर्ग शिक्षा ग्रहण कर ले तो सामाजिक विषमता स्वत: ही खत्म हो जायेगी और सभी लोग समाज की मुख्य धारा से जुड़ जायेंगे।
Monday, June 27, 2011
सीएनटी-एसपीटी एक्ट
जल, जंगल, जमीन के हक का मामला
राजन कुमार rajan kumar
गत 19 अप्रैल को झारखण्ड प्रदेश जनजातीय परामर्शदातृ समिती की बैठक की गयी जिसमें यह तय किया गया था कि एक महीने के अंदर-अंदर सीएनटी और एसपीटी एक्ट मे संशोधन किया जायेगा। जिससे आदिवासियों मे कुछ प्रसन्नता की लहर दौड़ी थी। लेकिन एक महीने बीत जाने के बावजूद भी सीएनटी और एसपीटी एक्ट पर बैठक नही हुआ जिससे आदिवासी समुदाय को गहरा झटका लगा।
झारखण्ड के आदिवासी समाज के आस्तित्व के संदर्भ मे सीएनटी-एसपीटी एक्ट महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट के आधार पर ही झारखण्ड का निर्माण हुआ है। सीएनटी और एसपीटी एक्ट मे संशोधन की बात पर सभी दल एकमत नही है जिससे स्पष्ट है कि बहुत दल ऐसे है जो आदिवासियों का विकास नही चाहते। वैसे भी आजादी के बाद से ही आदिवासियों के साथ बर्बरता पूर्वक अन्याय और अत्याचार होते रहे है। उन्हे विस्थापित कर उनकी जमीने जबरन छीनी गयी, जिससे भोले भाले आदिवासी सड़क पर आ गये।
सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट आदिवासियों की सुरक्षा हेतु बनाये गये थे जिससे कि ये अपनी जल, जंगल, जमीन और संस्कृति से जुड़े रहे लेकिन आजादी के बाद इसमें कई बार आदिवासियों के हित के विपरीत संशोधन किया गया, और इनकी जमीने जबरन हथिया ली गयी। किसी भी देश मे विकास का महत्वपूर्ण पहलू होता है कि विकास का सामान अधिकार मिले, सभी का विकास हो लेकिन हमारे देश मे आज आजादी के बाद सातवें दशक मे भी हमारा अनुभव यही जाहिर करता है कि इस नीति से कुछ लोगों का विकास असंख्य लोगों की कीमत पर हुआ है, खासकर आदिवासियसों की कीमत पर।
1895 ई0 मे बिरसा मुंडा ने जल जंगल, जमीन की सुरक्षा हेतु अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल फूंका था और खूंटकट्टीदार की जमीन और वन अधिकारों पर जमींदार , ठेकेदार और सरकार के अतिक्रमण के खिलाफ संग्राम शुरू कर दिया। जिससे बहुत आदिवासी जागृत हुए। इसी के मद्देनजर फादर होप मैन आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा हेतु सरकार को सीएनटी एक्ट का निर्माण करने का सुझाव दिया और 1908 मे छोटानागपुर कश्तकारी अधिनियम का गठन किया गया। इसके अनुसार आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासी नही ले सकता।
आदिवासी भी उपायुक्त की अनुमति से ही जमीन खरीद या बेच सकता है। दिगर किस्म की जमीन का हस्तांरण गैर कानूनी है, हां आदिवासी किसी को भी 7 वर्ष का मुक्त बंधक दे सकता है, लेकिन 7 वर्ष बीत जाने के बाद खतियानी रैयत के पक्ष मे जमीन निर्मुक्त होने का कानून है। जबकि संथाल परगना अधिनियम आजादी के बाद 1969 मे बनाया गया।
28 दिसम्बर सन् 1967 को अखिल भारतीय झारखण्ड पार्टी गठित की गयी जबकि जयपाल सिंह मुण्डा के नेतृत्व वाली पुरानी झारखण्ड पार्टी मे 1968 ई0 में काफी फूट पड़ गयी छोटानागपुर के आदिवासियो से अलग होकर संथाल परगना के संथालों ने अपने आप को अलग कर लिया। इस चरण का एक और पहलू हुुआ शिक्षित आदिवासियों के नेतृत्व वाले दलों का उभरना। ये विकसित हुए जो कि आदिवासी युवकों को प्रशासनिक एवं औद्योगिक संस्थानों मे रोजगार प्रदान किए जाने की करने के लिए जो औद्योगिक परिसरों मे केन्द्रीत थे। और इसी के तहत संथाल आदिवासियों के विकास एवं सुरक्षा हेतु सन् 1969 मे संथाल परगना अधिनियम बनाया गया।
आदिवासियों और उनके जमीनों की सुरक्षा हेतु कई नियम , अधिनियम , परिषद बनाए गए। 1951 ई बिहार जनजातीय सलाहकार परिषद बनाया गया, छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 मे ही बनाया गया था। संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1969 मे बनाया गया। ये अधिनियम आदिवासियों के सुरक्षा को ध्यान मे रखकर बनाये गये।
छोटानागपुर संथाल परगना के लिए , इसके विकास के मद्देनजर छोटानागपुर-संथाल परगना स्वायत्त विकास प्राधिकरण 1971 मे बनाया गया। इसके 1974 मे जनजातीय उपयोजना बनाई गयी। 1978 मे झारखंड विकास परिषद बनाया गया। इसे 1991 मे विधान सभा मे पारित भी कराया गया। आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास से आर्थिक क्षेत्र से विशेषतया उर्जा, खनिज, भारी उद्योग, सिंचाई तथा आधारभूत विकास कार्याें मे क्रांतिकारी प्रगति तो हुई लेकिन इस प्रगति के लिए उन लाखों लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी , जिन्हे बिना इच्छा के अपनी जमीन और रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा।
आजादी के पहले पांच वर्षों मे लगभग ढाई लाख लोगों मे से 25 प्रतिशत लोगों को विस्थापित होना पड़ा, उनका थोड़ा बहुत पुुनर्वास तो किया गया लेकिन वह बहुत ही अपर्याप्त था। उनके मूलभूत अधिकार जो उनकी जमीनों के साथ जुड़े हुए थे, जैसे जंगल व जंगल उत्पाद तथा जमीन के खुंटकट्टी या कोड़कर जैसे विशेष अधिकार, पुनर्वासित होने पर भी उन्हे प्राप्त नही हो पाए। विकास नीति के निर्धारित लक्ष्य के अनुसार विभिन्न क्षेत्रो मे बन रही परियोजनाओं के माध्यम से पुरे समाज को प्रगति की राह पर लाना था, लेकिन हुआ ठीक इसके विपरित। अमीर और गरीब, साधन- सम्पन्न और साधन-विहिन के मध्य की खाई पटने के बजाये और भी गहरा होता गया। राष्ट्रहित के नाम पर बेशुमार लोगोें की जमीनें अधिग्रहित कर उन्हे न केवल विस्थापित किया गया बल्कि उनके संदर्भ मे , संविधान मे प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का भी उल्लघंन किया गया। आवश्यकता थी कि विकास परियोजनाओं से प्रदेश अथवा क्षेत्र का आर्थिक संतुलन न बिगडे और सभी संसाधनों का लाभ सभी वर्गों को प्राप्त हो लेकिन ऐसा नही । विकास के बदले विशेष क्षेत्रों व प्रदेशों की जनता का विध्वंस ही हुआ । सरकार इतने पर भी नही रूकी, उसके द्वारा सन् 1998 मे भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक , पुनर्वास बिल, फॉरेस्ट बिल और बायो डायवसिटी बिल लाए गए। भूमि अधिग्रहण विधेयक तो इसलिए लाया गया ताकि शासक वर्ग बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मनचाही जमीन जल्दी से जल्दी उपलब्ध हो सके यानि विस्थापन की प्रक्रिया तेज की जा सके। छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट जैसे कानूनों के तहत आदिवासियों की जमीन लेने पर रोक थी। इसके प्रावधानों से मुक्ति पाने के लिए भी सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम मे मनचाहे संशोधन किए, मसलन 1894 के अधिनियम मे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आपत्ति की अवधि 30 दिन थी, उसे घटाकर 21 दिन कर दिया गया। पहले भूमि- अधिग्रहण के नोटिस की अवधि 6 माह बीत जाने पर नये नोटिस की सीमा 3 वर्ष थी, उसे घटाकर 6 माह कर दिया।
पहले डुगडुगी पिटवाकर गांव मे मुनादी कराई जाती थी ताकि सभी गांव वालों को इसकी सूचना मिल जाये, लेकिन संशोधित अधिनियम मे केवल अखबारों और गजट से सूचित करने का प्रावधान कर दिया गया है। गजट अखबार गांव के अधिकांश लोग नही पढ़ पाते।
भूमि अधिग्रहण बिल और पुनर्वास बिल दोनो एक ही मंत्रालय से निर्गत हुए है , जो एक दूसरे के विपरीत है। एक जनविरोधी है तो दूसरा जन पक्षधर लेकिन इस कानून मे भी विस्थापितों के पुनर्वास की बाध्यता नही है। ये तथ्य जाहिर करते है कि सरकार अपनी उदार नीति के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने मे जल्दबाजी मे जमीनें लेने की हड़बड़ी मे है, खासकर आदिवासियों की क्यों कि देश के संसाधनों का बड़ा हिस्सा उन्ही के क्षेत्रों मे पड़ता है, जहां आदिवासी बहुतायत मे निवास करते है।
सरकार की भूमि अधिग्रहण बिल और पुनर्वास बिल इन्ही दोनो नीतियों के कारण 1951 और 1995 में झारखंड मे 50 हजार एकड़ भूमि पर 15 लाख लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें लगभग आधा के करीब आदिवासी है। रक्षा परियोंजना मे 89.7 प्रतिशत आदिवासी विस्थापित हुए , जल संसाधन परियोजना मे 75.2 प्रतिशत आदिवासी विस्थापित हुए, कोयला खदानों के लिए हजारों एकड़ जमीन पहले ही नीजि मालिकों ने कब्जा ली उसके बाद फिर सरकार ने कब्जा ली। कोयला के लिए तो सरकार ने एक नया कानून कोल बियरिंग एरिया एक्ट 1957, भी बनाया जिसके तहत वह अधिग्रहित भूमि को जबरदस्ती भी कब्जे मे ले सकती है। आदिवासियों कई हजारों एकड़ जमीन सरकार ने अधिग्रहण कर लिया, कई लाखों आदिवासियों को सरकार ने विस्थापित कर दिया। लेकिन आदिवासियों के बारे मे नही सोचा गया। उन्हे सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। सीएनटी-एसपीटी एक्ट तो आदिवासियों के जमीनों की सुरक्षा के मद्देनजर सरकार ने ही बनाया था और अपने नीजि लाभ के लिए सरकार ने ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट में झारखंडी आदिवासियों के अहित मे संशोधन किया और मनमाने ढंग से उनके जमीनों का अधिग्रहण किया , उन्हे विस्थापित किया। सरकार का बर्बरता पूर्वक अत्याचार झारखंडी आदिवासियों पर अब भी जारी है। सरकार ने पिछले 10 वर्षों मे कई उद्योगपतियों के साथ 100 से ज्यादा एमओयू(सहमती पत्र) किया है, जिसके तहत एक लाख एकड़ से भी अधिक जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है, इनमे अधिकांश झारखण्ड एवं कई प्रदेशों के आदिवासी बहुल क्षेत्र है। अंग्र्रेजों द्वारा भूमि अधिग्रहण के तहत बनाये गये कानून और भी कड़ा करके स्वतंत्र भारत मे आदिवासियों और उनके जमीनों पर लागू किया जा रहा है, आदिवासी किसानों पर कहर बरपाया जा रहा है, अंग्रेजो की तरह सरकार भी भोले भाले आदिवासियों को बहला फुसला कर , नौकरी की झूठी वायदा करके , बिना सरकारी नोटिस जमीने कब्जे मे ले ली, और खनन कार्य भी हो रहे है। अभी Ñझारखण्ड का निर्माण नही हुआ था तब से और झारखण्ड के निर्माण होने के बावजूद भी आदिवासियों को न्याय नही मिला है। सरकार ने पुनर्वास और नौकरी के किये गये वादे को नजरअंदाज कर दिया, बिहार विधान सभा मे सवाल उठे, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया, छोटानागपुर और संथाल परगना इलाके मे जबरदस्त आंदोलन हुए, तब जाकर सरकार ने तीन एकड़ पर नौकरी और मुआवजे की राशि देने का आश्वासन दिया, आश्वासन के बाद भी ये मामले कई वर्षों तक अधर मे लटके रहे , कुछ विशेष लोगों को तो नौकरी और मुआवजे मिले लेकिन अभी भी एक बड़ा हिस्सा इससे वंचित है। खुले आसमान के नीचे कठिनाइयों भरा जीवन यापन कर रहा है।
कहा जाता है कि हम लोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है क्यों देश मे बड़े पैमाने पर चुनाव होता है। लेकिन लोकतंत्र का मतलब चुनाव नही होता, लोकतंत्र का मतलब होता है देश के फैसलों मे जनता की भागीदारी और इस कसौटी पर देखे तो अपने देश मे लोकतंत्र नही है- सीधे, सपाट और किसी आंदोलनकारी के मुंह से निकलने का आभास देते शब्द, लेकिन ये शब्द सवोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज पी.वी. सांवत के है। ज्यूरी ने पिछले साल कहा था कि सरकार नई आर्थिक नीतियों के दौर मे विकास का जो मॉडल अपनाया है उसमे सरकार सक्रिय रूप से जल , जंगल और जमीन जैसे संसाधन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खनन कार्य और औद्योगिक दोहन के लिए दे रही है जबकि ये संसाधन आदिवासी जनता के जीवन और जीविका के लिए है।
देश मे मौजूद आदिवासियों की तादाद यूरोप के कुछ देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा है जातीय विभिन्नता के एक अहम साक्ष्य के तौर पर देश की मानवता की विरासत है। पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को छोड़ दे तो भी प्राकृतिक संसाधनों को लेने के लिए सरकार पुलिस के सहारे जितनी बड़ी आबादी(आदिवासी) पर जुल्म कर रही है वह लोकतंत्र के इतिहास मे अभूतपूर्व है। अगर हमारा देश वाकई एक लोकतंत्र है तो सरकार को सीएनटी-एसपीटी एक्ट मे संशोधन करते समय आदिवासी हितों को ध्यान मे रख कर संशोधन करना होगा, अगर सरकार ने इस बार भी सीएनटी-एसपीटी एक्ट मे आदिवासियों के विपरीत संसोधन किया तो देश का एक बड़ा हिस्सा हिंसा और आंदोलन करने पर मजबूर हो जायेगा। सरकार ने अपने विकास नीतियों के चलते ही देश के एक बड़े हिस्से को विस्थापित कर दिया है जिससे ये विस्थापित आदिवासी आज तक न्याय नही मिलने के कारण ही हथियार उठाने पर मजबूर हो चुके है सरकार के लिए सिरदर्द बने हुए है।
सरकार अपने हित को ध्यान मे रखकर एक के बाद एक नये नियम बनाती है एक बार कई लाखों लोगों(आदिवासियों) को विस्थापित कर देती है, अब तो नई नीति के तहत जमीन के बदले नौकरी देना भी बंद कर दिया है। किसानों के खेत खदानों मे बदल गए, घर-बाड़ी पर बुलडोजर चल गए, महुआ और साल के वृक्ष उखाड़ दिए गए, वनपति से रैयत बना आदिवासी किसान अंतोगत्वा विस्थापित बन गया है, जीने के लिए अपनी ही जमीनों से खतरे उठाकर, कोयला चुराकर बेचने को मजबूर हो गया। गैर कानूनी खदानों के तांते लग गए है, मजदूर बने आदिवासी किसान बेनाम- गुमनाम कोल माफिया के चंगुल मे फंस कर कोयला चुराने लगे। खदानें धांसती रहीं और सैकड़ों की तदाद में वे मरते रहे।
उनकी लाशों को उठाने वाला कोई नहीं क्योंकि जो भी लाश को पहचानता उसे भी चोरी के जुर्म में अंदर बंद कर दिया जाता था। लावारिस लाशें सड़ने लगीं। आज भी कई लाशें उन खदानों में दबी पड़ी हैं, बाहर पत्थरों के बीच उनके जूते-चप्पल, कमीज़ वाट जोह रहे हैं। अच्छा-खासा इज्जतदार, खाता-पीता वनपति आदिवासी किसान, गांवों की सामूहिक जमीन का भागीदार पहले मजदूर बना, फिर विस्थापित और अब कोयलाचोर। उसकी जमीन, जंगल, संस्कृति और भाषा सब खत्म की जा ही हैं और ये सब हो रहा है 'राष्ट्रहित के नाम पर,। ट्रकों में चोरी कर कोयला जाता है, तो कोई नहीं पकड़ता लेकिन साइकिल पर दो टन कोयला लादकर, साठ किलोमीटर घाटी चढ़कर कुजू से रांची पहुंचने वाला मजदूर चोरी के इलजाम में पकड़ कर हवालात में बंद कर दिया जाता है, जबकि उसका पूरा परिवार उसकी इसी कमाई पर निर्भर है।
हाल ही में अपनी औद्योगिक नीति के तहत झारखंड सरकार ने रांची से बहिरागोड़ तक चार लेन की 300 किलोमीटर लंबी एक सड़क बनाने का निर्णय लिया है। इस सड़क के दोनों तरफ 10-10 किलोमीटर तक जमीन अधिागृहित करने की योजना है। ये ज़मीनें आदिवासियों की ही हैं। इस योजना को लागू करने पर अनुमानत: तीन लाख लोग विस्थापित होंगे।
कहां जाएंगे ये लोगक्या करेंगे? सरकार बेपरवाह है, इसलिए अब लोगों ने बंदूकें उठा ली हैं। उधर सरकार की सार्वजनिक सरकारी संस्थाओं के निजिकरण करने की नीति के चलते मजदूरों की भारी छटनी जारी है। झारखंड में सबसे ज्यादा सार्वजनिक संस्थान हैं, जिनमें अकेले कोयला-क्षेत्र में ढाई लाख से ऊपर मजदूर कार्यरत हैं। फलस्वरूप मजदूरों की सबसे ज्यादा छटनी झारखंड में ही हो रही है। आदिवासी यहां कोयला चोरी करने पर मजबूर होकर रोज जेल की हवा खाता है। वह या तो कुली-मज़दूर बन जाता है या फिर कोयलाचोर! और जब ये भी नहीं हो पाता तो लौटकर अपना हिसाब-किताब चुकाने के लिए बंदूक उठाकर जंगलों में चला जाता है, कोई विकल्प नहीं उसके पास। पता नहीं देश और समाज उनकी सुधा कब लेगा? कब कोई विकल्प देगा? देश मे आदिवासियों की मुख्य समस्या विस्थापन रही है। वे पहले भी खदेड़े जा रहे है। ये खदेड़ना सदियों से चालू है, बस केवल रूप या तरीका बदल गया है। वे उजड़ रहे जंगल, जल, जमीन, तीन महत्वपूर्ण मूल अधिकारों से वे वंचित हो रहे है और विडबंना यह है कि ये सब हो रहा उसके विकास या उनकी स्थिती मे सुधार के नाम पर। आज जंगल मे उनके प्रवेश पर रोक है। जिस धरती पर वे बसते है, उसके गर्भ मे खनिज है यानि संपदा है, उपर नदियां और जंगल हैं। पर वहां उनके प्रवेश पर रोक है। नदियां कोयले की धूल से काली होकर प्रदूषित हो गयी, उनका पानी किसी काम का न रहा , जंगल कट गए, जमीन गढ़ा-पोखर बन गयी, खेत धंस गए, पानी के स्रोत सूख गए या नीचे चले एक और पहुंच के बाहर हो गए। आग पर बैठा है आज इस क्षेत्र का आदमी। धरती के नीचे आग लगी है, कब धंस जाएगी धरती , पता नही। व्यवसायीकरण होेने के कारण आदिवासियों को उनके ही जंगल से बर्बरता पूर्वक उजाड़ा गया, इस प्रकार आजादी के बाद की सरकार ने न केवल साम्राज्यवादी सरकार के सिद्धांतो को दोहराया बल्कि उन्हे और भी सशक्त और सबल बनाया जिसका नतीजा हुआ वन मे रहने वाले आदिवासियों का खदेड़ा जाना, और जंगल पर राज्य के वन विभाग का एकाधिकार स्थापित होना। आदिवासियों के विकास, उनकी भाषा संस्कृति तथा उनकी पहचान की रक्षा के केन्द्र मे मुख्यत: जमीन है। झारखण्ड हो या छत्तीसगढ़ या अन्य आदिवासी बहुल प्रदेश, वहां के गरीब आदिवासियों के लिए भूमि का प्रश्न महत्वपूर्ण है। भूमि से संबधित सबसे महत्वपूर्ण समस्या है भूमि का अलगाव। ब्रिटिश शासन द्वारा 1793 की स्थायी बंदोबस्ती के माध्यम से एक नए प्रकार की जमींदारी व्यवस्था आदिवासियों पर थोप दी गयी थी। इस व्यवस्था के चलते जमीन सामूहिक संपत्ति से एकाएक निजी संम्पति मे तब्दील हो गयी। इस कानून के माध्यम से अंग्रेजो ने विभिन्न सर्वे सेटलमेंट के माध्यम से भू-रिकार्ड तो तैयार किये , उनका हस्तांतरण जमीन के निजी संपत्ति बन जाने के बाद शुरू हो गया। 1793 से शुरू इस प्रक्रिया ने सामूहिकता पर आधारित आदिवासी जीवन पद्धति को झकझोर कर रख दिया। जिसके फलस्वरूप विद्रोह की भावना बढ़ी, और 1797 मे दुक्खन माझी के नेतृत्व मे मुण्डा विद्रोह हुआ और 1820-21 मे सिंहभूम मे हो विद्रोह। 1831-32 मे पुन: सिंहभूम मे बिंदाराय और सिंह राय के नेतृत्व मे द्वितीय विद्रोह हुआ और 1832 मे ही बुद्धू भगत ने सिल्ली मे विद्रोह किया।
1793 मे बनी जमींदारी व्यवस्था ही आदिवासियों को जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया। जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए बिरसा मुण्डा ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर आगे तक कायम रखा।
ब्रिटिश सरकार ने आदिवासी हितो की रक्षा के लिए सीएनटी एक्ट 1908 तथा संथाल परगना के लिए रेगुलेशन 1872 बनाया। आजादी के बाद यही रेगुलेशन 1949 मे विकसित होकर एसपीटी एक्ट बना। 1969 मे अनुसूचित भूमि अधिनियम बनाया गया। लेकिन इन काश्तकारी कानूनों से भी जमींदारी व्यवस्था समाप्त नही हुई।
आजादी के बाद आदिवासियों की रक्षा करने की बजाए भारत सरकार अंग्रेजो द्वारा निर्मित कानून को और सख्ती से लागू करना शुरू कर दिया। सरकार के इस तानाशाही कानून के कारण सिंहभूम मे 1978 मे जंगल आंदोलन छिड़ गया। 1978 और 1985 के बीच बिहार मे 18 पुलिस गोली कांड हुए , सैकड़ो आदिवासियों को उजाड़ दिया गया, हजारों आदिवासियों को झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। 14 अप्रैल 1984 को उच्चतम न्यायालय सिंहभूम द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट के अनुसार 14 हजार आदिवासियों पर 5160 मुकदमे लंबित थे। जिनमे से कुछ 1960 से ही लंबित थे। आदिवासियों के त्रासदी के मुख्य कारण उनके गांवो से विस्थापन और जंगल , जमीन के परंपरागत स्वामित्व से वंचित किया जाना।
1984 मे नेशनल रिपोर्ट सेंसिंग एजेंसी द्वारा किया गया अध्ययन दर्शाता है कि 70 से 80 के दशक तक आते आते भारत मे वनो का विस्तारण 16.9 प्रतिशत से घटकर 14.1 प्रतिशत रह गया। यानि हर वर्ष औसत 10 लाख 30 हजार हेक्टेयर वनो का नुकसान हुआ। बाद मे यह घटकर केवल 10 प्रतिशत रह गया। आदिवासी मुख्य रूप से जंगल पर निर्भर रहते हे। वर्षों से इनके जिवीका का साधन जंगल रहा है। ट्राइबल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग सेंटर चाईबासा के मैथ्यू अपीपरमपील ने इस कमी को दूर करने के लिए कहा था कि यह तभी संभव होगा जब आदिवासी वन प्रबधंक मे आर्थिक रूप से साझेदार तथा जंगल के उत्पादकों मे भागीदार बन पाएंगे।
डा0 राय बर्मन के शब्दो में - साम्राज्यवादी शासन काल मे इस प्रतीकात्मक संबंध को तब गहरा झटका लगा, जब जंगल को आर्थिक अधिकृत मुनाफे का स्त्रोत मात्र समझा जाने लगा और मानव निवास तथा विस्तृत जीवन परिसर के बीच की जीवंत कड़ी के रूप मे इसे अनदेखा कर दिया गया।
इस प्रकार आजादी के बाद भारतीय शासको ने जंगल को एक मुनाफे की वस्तु बना दिया। और सरकारी अधिकारियों , नेताओं, ठेकेदारों ने मिलकर बर्बरतापूर्वक उसे बर्बाद कर दिया। ठेकेदारो द्वारा जंगलों की निर्मम कटाई की प्रतिक्रिया स्वरूप ही उत्तराखण्ड मे चिपको आंदोलन चला, बिहार झारखण्ड मे सखुआ के जंगल काटकर सागवान और सफेदे युकेलिप्टिस के जंगल लगाने का जबरदस्त विरोध हुआ क्योंकि मिश्रित जंगल आदिवासियों को रोजगार, पानी और समय से वर्षा से देता है। कटाव का संरक्षण तथा पानी के स्त्रोतां की रक्षा भी करता है। जबकि सफेदे का जंगल पानी के स्त्रोत को सूखा देता है। सखुआ का पेड़ अकाल मे भी उनके जीवन की रक्षा करता है, उसके बीजों से पेट भरकर वह जिंदा रहता है, बीड़ी पत्तों के पेड़ उसे रोजगार देते है। कुसुम के बीज तेल देते है तो महुआ के फल और फूल भोजन और पेय दोनो, उसकी गुठली तेल मुहैया करती है। पलाश का पेड़ गोंद और रंग देता है। जबकि जंगल माफिया, सरकार और व्यापारी कीमती पेड़ो को काटकर उंचे दामो पर बेचते है। पेड़ काटने के आरोप मे आदिवासी दण्ड भरता है या जेल जाता है।
सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी जमीन के मालिक बनने के बजाय पहले मजदूर बने, फिर बंधुआ मजदूर। पहले वे वनपति , भूमिपति और किसान थे। उनके अपने खेत थे, जिन पर सामूहिक खेती होती थी, परस्पर सहयोग से झूम की खेती होती थी। व्यक्तिगत संपत्ति शब्द से वे अनजान थे। आजादी के बाद विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनी, जिनके घर उजड़े, जिनके खेत और गांव डूबे, वे आदिवासी कही स्थाई रूप से बस नही पाए।
अंग्रेजो के समय मे बने सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे बदलाव समय की मांग है। 1908 और 2011 के समय मे बहुत अंतर है। पहले के झारखण्ड मे और सन् 2000 मे बने झारखण्ड राज्य मे अप्रत्याशित बदलाव आया है। पहले आदिवासी मुख्य रूप से जल, जंगल , जमीन पर आश्रित था लेकिन समय और समाज के बदलते परिवेश के चलते आदिवासियों के भी विचार मे बहुत परिवर्तन आया है। आज का आदिवासी समाज भी जमाने के मद्देनजर अपने आप को बदलना चाहता है। अपने संस्कृति के साथ-साथ अपने आप को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना चाहता है। जिसके लिए (रोजगार)आदिवासी राज्य के विभिन्न हिस्सों मे जाकर बसना चाहता है। 1908 के बहुत सारे थाने आज जिला बन चुके है। जबकि सीएनटी एक्ट मे किसी जनजातीय परिवार की जमीन खरीदने का हक केवल उसी थाना क्षेत्र के जनजातीय परिवार को दिया गया है। आदिवासियों के परिवार बढ़ चुके है, जरूरतें बढ़ चुकी है। इन सभी बातों को ध्यान मे रखते हुए सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट की मूल भावना को सुरक्षित रखते हुए अपेक्षित करना चाहिए। जिसके तहत आदिवासी राज्य के किसी भी जा कर बस सके। अपने जमीनों को पूरे राज्य के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को बेच सके।
संथाल परगना एवं छोटानागपुर परगना काश्तकारी कानूनों को बनने के बाद भी भूमि का हस्तांतरण कानूनी एवं गैर कानूनी , दोनो ही तरीकों से जारी है। संथाला परगना के मुकाबले छोटानागपुर मे आदिवासियों के हाथों से जमीन का छीना जाना आसान रहा है और अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े पैमाने पर हुआ है। जिस प्रकार सन् 1949 के संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम मे गैर कानूनी तरीकों से हस्तांतरित जमीन की वापसी पर से समय सीमा खत्म कर दी गयी उसी प्रकार छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम मे भी कम से कम आदिवासियों की गैर कानूनी तरीके से हस्तांतरित जमीन की वापसी पर भी समय सीमा हटाये जाने की जरूरत है।
आदिवासी समाज ने बहादुरी की विरासत अपने पूर्वज से पाई है। झारखण्ड राज्य की लड़ाई मे जाने क्यों इनके नेता कामयाब मुहिम चलाने के बाद भी उसे अंजाम नही दे पाए। अपनी लड़ाई छोड़कर सत्ता से सुलह करते रहे । वे बिक गए या डर गए, उसी का फल है कि वृहत्त राज्य से घटकर एक छोटा राज्य तो बना झारखण्ड लेकिन यह आदिवासियों के आधार पर नही बना। वह बना क्षेत्रियता के आधार पर, झारखण्डी संस्कृति के नाम पर जिसके नाम पर बहुत से छद्म झारखंडी घुस गए और घुस गए वे जिन्होने आदिवासियों की जमीनें हड़पी थी, जिन्हे आदिवासी दिकु कहते है। आज उन्हीे के कब्जे मे चला गया है झारखण्ड । तब कौन लाटाएगा जमीन? सत्ताधारी आदिवासियों के विकास के लिए नही बल्कि क्षेत्र और जातीय आधार पर अपने वोट बैंक सुरक्षित कर , आदिवासियों को विस्थापित करने पर तुले है।
अपने ही घर मे आज बेगाना है आदिवासी, परदेशी बन गया है, अल्प संख्यक हो गया है, माओवादी-नक्सली बन गया है। छोटानागपुर और संथाल परगना के टेैनेंसी एक्ट मे बदलाव लाकर, बड़ी-बड़ी कंपनियों को जमीन देने की योजना बनाई जा चुकी है। फिजी जैसी हालत हो गयी है झारखण्ड की।
आदिवासियों द्वारा देश के विभिन्न भागों मे अनेक अभियान चलाये गये। इनमे से अधिकांश आंदोलन , विस्थापन या भूमि से उनका कब्जा छिनने , साहुकारों एवं जमींदारों द्वारा कानूनों को अपने फायदे के लिए दुरूपयोग करने से उत्पन्न असंतोष से पैदा हुए। कहीं अधिक तो कहीं कम, पर सब जगह विद्रोह हुए। अपने जमीन के लिए लड़ रहे आदिवासियों को नक्सली और माओवादी बना दिया गया, उनका एनकाउंटर कर दिया गया। उनपर बर्बरता पूर्वक अत्याचार किया गया।
निश्चय ही आदिवासी लोगों को वह सब कुछ प्राप्त कराया जाना चाहिए, जो मूल रूप से उनका था पर जिन्हे गैर जनजातीयों के शोषण के कारण उससे वंचित होना पड़ा। 1908 मे बने सीएनटी एक्ट प्रभावकारी हो सकता है लेकिन कानून बना देने से ही सब कुद ठीक नही हो जाता और न ही कानून के उल्लंघन करने वालो को रोका जा सकता है। इस कानून का मतलब है पूर्व मे , जिस तरह आदिवासियों की जमीने छीनी या हड़पी गयी है और आने वाले कल मे भी छीनी जा सकती है, इस पर राक लगे।
क्या कानून बना देने से ही भूमि के हस्तांतरण पर रोक लग गयी? सच तो यह है कि कानून बनाने वाले ढांचे की इच्छाशक्ति और ईमानदारी न होने के कारण इन कानूनों के रहते हुए भी आदिवासियों की जमीने हस्तांतरित होती रही है। वास्तव मे शुरूआत ही गलत रही है। सिर्र्फ कानून बना देना किसी समस्या का इलाज नही है दरअसल सीमित अर्थों मे ही आदिवासी हितों की रक्षा करने वाले कानूनों की हिफाजत तथा इनके प्रभावी अमल के लिए कभी भी कोई कठोर प्रशासनिक उपाय या प्रयास सरकार ने नही किया। बल्कि अभी तक तो शोषक वर्गों द्वारा ही पुलिस एवं प्रशासन का इस्तेमाल इन कानूनों को निष्प्रभावी बनाने एवं विफल करने के लिए किया जाता रहा है। यहीं कारण है कि सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे संशोधन की बात पर सभी दल एकमत नही है। लेकिन समय की मांग के मद्देनजर आदिवासी हित को ध्यान मे रखकर सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे संशोधन जरूरी है।
जल, जंगल, जमीन के हक का मामला
राजन कुमार rajan kumar
गत 19 अप्रैल को झारखण्ड प्रदेश जनजातीय परामर्शदातृ समिती की बैठक की गयी जिसमें यह तय किया गया था कि एक महीने के अंदर-अंदर सीएनटी और एसपीटी एक्ट मे संशोधन किया जायेगा। जिससे आदिवासियों मे कुछ प्रसन्नता की लहर दौड़ी थी। लेकिन एक महीने बीत जाने के बावजूद भी सीएनटी और एसपीटी एक्ट पर बैठक नही हुआ जिससे आदिवासी समुदाय को गहरा झटका लगा।
झारखण्ड के आदिवासी समाज के आस्तित्व के संदर्भ मे सीएनटी-एसपीटी एक्ट महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट के आधार पर ही झारखण्ड का निर्माण हुआ है। सीएनटी और एसपीटी एक्ट मे संशोधन की बात पर सभी दल एकमत नही है जिससे स्पष्ट है कि बहुत दल ऐसे है जो आदिवासियों का विकास नही चाहते। वैसे भी आजादी के बाद से ही आदिवासियों के साथ बर्बरता पूर्वक अन्याय और अत्याचार होते रहे है। उन्हे विस्थापित कर उनकी जमीने जबरन छीनी गयी, जिससे भोले भाले आदिवासी सड़क पर आ गये।
सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट आदिवासियों की सुरक्षा हेतु बनाये गये थे जिससे कि ये अपनी जल, जंगल, जमीन और संस्कृति से जुड़े रहे लेकिन आजादी के बाद इसमें कई बार आदिवासियों के हित के विपरीत संशोधन किया गया, और इनकी जमीने जबरन हथिया ली गयी। किसी भी देश मे विकास का महत्वपूर्ण पहलू होता है कि विकास का सामान अधिकार मिले, सभी का विकास हो लेकिन हमारे देश मे आज आजादी के बाद सातवें दशक मे भी हमारा अनुभव यही जाहिर करता है कि इस नीति से कुछ लोगों का विकास असंख्य लोगों की कीमत पर हुआ है, खासकर आदिवासियसों की कीमत पर।
1895 ई0 मे बिरसा मुंडा ने जल जंगल, जमीन की सुरक्षा हेतु अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल फूंका था और खूंटकट्टीदार की जमीन और वन अधिकारों पर जमींदार , ठेकेदार और सरकार के अतिक्रमण के खिलाफ संग्राम शुरू कर दिया। जिससे बहुत आदिवासी जागृत हुए। इसी के मद्देनजर फादर होप मैन आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा हेतु सरकार को सीएनटी एक्ट का निर्माण करने का सुझाव दिया और 1908 मे छोटानागपुर कश्तकारी अधिनियम का गठन किया गया। इसके अनुसार आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासी नही ले सकता।
आदिवासी भी उपायुक्त की अनुमति से ही जमीन खरीद या बेच सकता है। दिगर किस्म की जमीन का हस्तांरण गैर कानूनी है, हां आदिवासी किसी को भी 7 वर्ष का मुक्त बंधक दे सकता है, लेकिन 7 वर्ष बीत जाने के बाद खतियानी रैयत के पक्ष मे जमीन निर्मुक्त होने का कानून है। जबकि संथाल परगना अधिनियम आजादी के बाद 1969 मे बनाया गया।
28 दिसम्बर सन् 1967 को अखिल भारतीय झारखण्ड पार्टी गठित की गयी जबकि जयपाल सिंह मुण्डा के नेतृत्व वाली पुरानी झारखण्ड पार्टी मे 1968 ई0 में काफी फूट पड़ गयी छोटानागपुर के आदिवासियो से अलग होकर संथाल परगना के संथालों ने अपने आप को अलग कर लिया। इस चरण का एक और पहलू हुुआ शिक्षित आदिवासियों के नेतृत्व वाले दलों का उभरना। ये विकसित हुए जो कि आदिवासी युवकों को प्रशासनिक एवं औद्योगिक संस्थानों मे रोजगार प्रदान किए जाने की करने के लिए जो औद्योगिक परिसरों मे केन्द्रीत थे। और इसी के तहत संथाल आदिवासियों के विकास एवं सुरक्षा हेतु सन् 1969 मे संथाल परगना अधिनियम बनाया गया।
आदिवासियों और उनके जमीनों की सुरक्षा हेतु कई नियम , अधिनियम , परिषद बनाए गए। 1951 ई बिहार जनजातीय सलाहकार परिषद बनाया गया, छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 मे ही बनाया गया था। संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1969 मे बनाया गया। ये अधिनियम आदिवासियों के सुरक्षा को ध्यान मे रखकर बनाये गये।
छोटानागपुर संथाल परगना के लिए , इसके विकास के मद्देनजर छोटानागपुर-संथाल परगना स्वायत्त विकास प्राधिकरण 1971 मे बनाया गया। इसके 1974 मे जनजातीय उपयोजना बनाई गयी। 1978 मे झारखंड विकास परिषद बनाया गया। इसे 1991 मे विधान सभा मे पारित भी कराया गया। आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास से आर्थिक क्षेत्र से विशेषतया उर्जा, खनिज, भारी उद्योग, सिंचाई तथा आधारभूत विकास कार्याें मे क्रांतिकारी प्रगति तो हुई लेकिन इस प्रगति के लिए उन लाखों लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी , जिन्हे बिना इच्छा के अपनी जमीन और रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा।
आजादी के पहले पांच वर्षों मे लगभग ढाई लाख लोगों मे से 25 प्रतिशत लोगों को विस्थापित होना पड़ा, उनका थोड़ा बहुत पुुनर्वास तो किया गया लेकिन वह बहुत ही अपर्याप्त था। उनके मूलभूत अधिकार जो उनकी जमीनों के साथ जुड़े हुए थे, जैसे जंगल व जंगल उत्पाद तथा जमीन के खुंटकट्टी या कोड़कर जैसे विशेष अधिकार, पुनर्वासित होने पर भी उन्हे प्राप्त नही हो पाए। विकास नीति के निर्धारित लक्ष्य के अनुसार विभिन्न क्षेत्रो मे बन रही परियोजनाओं के माध्यम से पुरे समाज को प्रगति की राह पर लाना था, लेकिन हुआ ठीक इसके विपरित। अमीर और गरीब, साधन- सम्पन्न और साधन-विहिन के मध्य की खाई पटने के बजाये और भी गहरा होता गया। राष्ट्रहित के नाम पर बेशुमार लोगोें की जमीनें अधिग्रहित कर उन्हे न केवल विस्थापित किया गया बल्कि उनके संदर्भ मे , संविधान मे प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का भी उल्लघंन किया गया। आवश्यकता थी कि विकास परियोजनाओं से प्रदेश अथवा क्षेत्र का आर्थिक संतुलन न बिगडे और सभी संसाधनों का लाभ सभी वर्गों को प्राप्त हो लेकिन ऐसा नही । विकास के बदले विशेष क्षेत्रों व प्रदेशों की जनता का विध्वंस ही हुआ । सरकार इतने पर भी नही रूकी, उसके द्वारा सन् 1998 मे भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक , पुनर्वास बिल, फॉरेस्ट बिल और बायो डायवसिटी बिल लाए गए। भूमि अधिग्रहण विधेयक तो इसलिए लाया गया ताकि शासक वर्ग बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मनचाही जमीन जल्दी से जल्दी उपलब्ध हो सके यानि विस्थापन की प्रक्रिया तेज की जा सके। छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट जैसे कानूनों के तहत आदिवासियों की जमीन लेने पर रोक थी। इसके प्रावधानों से मुक्ति पाने के लिए भी सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम मे मनचाहे संशोधन किए, मसलन 1894 के अधिनियम मे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आपत्ति की अवधि 30 दिन थी, उसे घटाकर 21 दिन कर दिया गया। पहले भूमि- अधिग्रहण के नोटिस की अवधि 6 माह बीत जाने पर नये नोटिस की सीमा 3 वर्ष थी, उसे घटाकर 6 माह कर दिया।
पहले डुगडुगी पिटवाकर गांव मे मुनादी कराई जाती थी ताकि सभी गांव वालों को इसकी सूचना मिल जाये, लेकिन संशोधित अधिनियम मे केवल अखबारों और गजट से सूचित करने का प्रावधान कर दिया गया है। गजट अखबार गांव के अधिकांश लोग नही पढ़ पाते।
भूमि अधिग्रहण बिल और पुनर्वास बिल दोनो एक ही मंत्रालय से निर्गत हुए है , जो एक दूसरे के विपरीत है। एक जनविरोधी है तो दूसरा जन पक्षधर लेकिन इस कानून मे भी विस्थापितों के पुनर्वास की बाध्यता नही है। ये तथ्य जाहिर करते है कि सरकार अपनी उदार नीति के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने मे जल्दबाजी मे जमीनें लेने की हड़बड़ी मे है, खासकर आदिवासियों की क्यों कि देश के संसाधनों का बड़ा हिस्सा उन्ही के क्षेत्रों मे पड़ता है, जहां आदिवासी बहुतायत मे निवास करते है।
सरकार की भूमि अधिग्रहण बिल और पुनर्वास बिल इन्ही दोनो नीतियों के कारण 1951 और 1995 में झारखंड मे 50 हजार एकड़ भूमि पर 15 लाख लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें लगभग आधा के करीब आदिवासी है। रक्षा परियोंजना मे 89.7 प्रतिशत आदिवासी विस्थापित हुए , जल संसाधन परियोजना मे 75.2 प्रतिशत आदिवासी विस्थापित हुए, कोयला खदानों के लिए हजारों एकड़ जमीन पहले ही नीजि मालिकों ने कब्जा ली उसके बाद फिर सरकार ने कब्जा ली। कोयला के लिए तो सरकार ने एक नया कानून कोल बियरिंग एरिया एक्ट 1957, भी बनाया जिसके तहत वह अधिग्रहित भूमि को जबरदस्ती भी कब्जे मे ले सकती है। आदिवासियों कई हजारों एकड़ जमीन सरकार ने अधिग्रहण कर लिया, कई लाखों आदिवासियों को सरकार ने विस्थापित कर दिया। लेकिन आदिवासियों के बारे मे नही सोचा गया। उन्हे सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। सीएनटी-एसपीटी एक्ट तो आदिवासियों के जमीनों की सुरक्षा के मद्देनजर सरकार ने ही बनाया था और अपने नीजि लाभ के लिए सरकार ने ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट में झारखंडी आदिवासियों के अहित मे संशोधन किया और मनमाने ढंग से उनके जमीनों का अधिग्रहण किया , उन्हे विस्थापित किया। सरकार का बर्बरता पूर्वक अत्याचार झारखंडी आदिवासियों पर अब भी जारी है। सरकार ने पिछले 10 वर्षों मे कई उद्योगपतियों के साथ 100 से ज्यादा एमओयू(सहमती पत्र) किया है, जिसके तहत एक लाख एकड़ से भी अधिक जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है, इनमे अधिकांश झारखण्ड एवं कई प्रदेशों के आदिवासी बहुल क्षेत्र है। अंग्र्रेजों द्वारा भूमि अधिग्रहण के तहत बनाये गये कानून और भी कड़ा करके स्वतंत्र भारत मे आदिवासियों और उनके जमीनों पर लागू किया जा रहा है, आदिवासी किसानों पर कहर बरपाया जा रहा है, अंग्रेजो की तरह सरकार भी भोले भाले आदिवासियों को बहला फुसला कर , नौकरी की झूठी वायदा करके , बिना सरकारी नोटिस जमीने कब्जे मे ले ली, और खनन कार्य भी हो रहे है। अभी Ñझारखण्ड का निर्माण नही हुआ था तब से और झारखण्ड के निर्माण होने के बावजूद भी आदिवासियों को न्याय नही मिला है। सरकार ने पुनर्वास और नौकरी के किये गये वादे को नजरअंदाज कर दिया, बिहार विधान सभा मे सवाल उठे, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया, छोटानागपुर और संथाल परगना इलाके मे जबरदस्त आंदोलन हुए, तब जाकर सरकार ने तीन एकड़ पर नौकरी और मुआवजे की राशि देने का आश्वासन दिया, आश्वासन के बाद भी ये मामले कई वर्षों तक अधर मे लटके रहे , कुछ विशेष लोगों को तो नौकरी और मुआवजे मिले लेकिन अभी भी एक बड़ा हिस्सा इससे वंचित है। खुले आसमान के नीचे कठिनाइयों भरा जीवन यापन कर रहा है।
कहा जाता है कि हम लोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है क्यों देश मे बड़े पैमाने पर चुनाव होता है। लेकिन लोकतंत्र का मतलब चुनाव नही होता, लोकतंत्र का मतलब होता है देश के फैसलों मे जनता की भागीदारी और इस कसौटी पर देखे तो अपने देश मे लोकतंत्र नही है- सीधे, सपाट और किसी आंदोलनकारी के मुंह से निकलने का आभास देते शब्द, लेकिन ये शब्द सवोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज पी.वी. सांवत के है। ज्यूरी ने पिछले साल कहा था कि सरकार नई आर्थिक नीतियों के दौर मे विकास का जो मॉडल अपनाया है उसमे सरकार सक्रिय रूप से जल , जंगल और जमीन जैसे संसाधन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खनन कार्य और औद्योगिक दोहन के लिए दे रही है जबकि ये संसाधन आदिवासी जनता के जीवन और जीविका के लिए है।
देश मे मौजूद आदिवासियों की तादाद यूरोप के कुछ देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा है जातीय विभिन्नता के एक अहम साक्ष्य के तौर पर देश की मानवता की विरासत है। पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को छोड़ दे तो भी प्राकृतिक संसाधनों को लेने के लिए सरकार पुलिस के सहारे जितनी बड़ी आबादी(आदिवासी) पर जुल्म कर रही है वह लोकतंत्र के इतिहास मे अभूतपूर्व है। अगर हमारा देश वाकई एक लोकतंत्र है तो सरकार को सीएनटी-एसपीटी एक्ट मे संशोधन करते समय आदिवासी हितों को ध्यान मे रख कर संशोधन करना होगा, अगर सरकार ने इस बार भी सीएनटी-एसपीटी एक्ट मे आदिवासियों के विपरीत संसोधन किया तो देश का एक बड़ा हिस्सा हिंसा और आंदोलन करने पर मजबूर हो जायेगा। सरकार ने अपने विकास नीतियों के चलते ही देश के एक बड़े हिस्से को विस्थापित कर दिया है जिससे ये विस्थापित आदिवासी आज तक न्याय नही मिलने के कारण ही हथियार उठाने पर मजबूर हो चुके है सरकार के लिए सिरदर्द बने हुए है।
सरकार अपने हित को ध्यान मे रखकर एक के बाद एक नये नियम बनाती है एक बार कई लाखों लोगों(आदिवासियों) को विस्थापित कर देती है, अब तो नई नीति के तहत जमीन के बदले नौकरी देना भी बंद कर दिया है। किसानों के खेत खदानों मे बदल गए, घर-बाड़ी पर बुलडोजर चल गए, महुआ और साल के वृक्ष उखाड़ दिए गए, वनपति से रैयत बना आदिवासी किसान अंतोगत्वा विस्थापित बन गया है, जीने के लिए अपनी ही जमीनों से खतरे उठाकर, कोयला चुराकर बेचने को मजबूर हो गया। गैर कानूनी खदानों के तांते लग गए है, मजदूर बने आदिवासी किसान बेनाम- गुमनाम कोल माफिया के चंगुल मे फंस कर कोयला चुराने लगे। खदानें धांसती रहीं और सैकड़ों की तदाद में वे मरते रहे।
उनकी लाशों को उठाने वाला कोई नहीं क्योंकि जो भी लाश को पहचानता उसे भी चोरी के जुर्म में अंदर बंद कर दिया जाता था। लावारिस लाशें सड़ने लगीं। आज भी कई लाशें उन खदानों में दबी पड़ी हैं, बाहर पत्थरों के बीच उनके जूते-चप्पल, कमीज़ वाट जोह रहे हैं। अच्छा-खासा इज्जतदार, खाता-पीता वनपति आदिवासी किसान, गांवों की सामूहिक जमीन का भागीदार पहले मजदूर बना, फिर विस्थापित और अब कोयलाचोर। उसकी जमीन, जंगल, संस्कृति और भाषा सब खत्म की जा ही हैं और ये सब हो रहा है 'राष्ट्रहित के नाम पर,। ट्रकों में चोरी कर कोयला जाता है, तो कोई नहीं पकड़ता लेकिन साइकिल पर दो टन कोयला लादकर, साठ किलोमीटर घाटी चढ़कर कुजू से रांची पहुंचने वाला मजदूर चोरी के इलजाम में पकड़ कर हवालात में बंद कर दिया जाता है, जबकि उसका पूरा परिवार उसकी इसी कमाई पर निर्भर है।
हाल ही में अपनी औद्योगिक नीति के तहत झारखंड सरकार ने रांची से बहिरागोड़ तक चार लेन की 300 किलोमीटर लंबी एक सड़क बनाने का निर्णय लिया है। इस सड़क के दोनों तरफ 10-10 किलोमीटर तक जमीन अधिागृहित करने की योजना है। ये ज़मीनें आदिवासियों की ही हैं। इस योजना को लागू करने पर अनुमानत: तीन लाख लोग विस्थापित होंगे।
कहां जाएंगे ये लोगक्या करेंगे? सरकार बेपरवाह है, इसलिए अब लोगों ने बंदूकें उठा ली हैं। उधर सरकार की सार्वजनिक सरकारी संस्थाओं के निजिकरण करने की नीति के चलते मजदूरों की भारी छटनी जारी है। झारखंड में सबसे ज्यादा सार्वजनिक संस्थान हैं, जिनमें अकेले कोयला-क्षेत्र में ढाई लाख से ऊपर मजदूर कार्यरत हैं। फलस्वरूप मजदूरों की सबसे ज्यादा छटनी झारखंड में ही हो रही है। आदिवासी यहां कोयला चोरी करने पर मजबूर होकर रोज जेल की हवा खाता है। वह या तो कुली-मज़दूर बन जाता है या फिर कोयलाचोर! और जब ये भी नहीं हो पाता तो लौटकर अपना हिसाब-किताब चुकाने के लिए बंदूक उठाकर जंगलों में चला जाता है, कोई विकल्प नहीं उसके पास। पता नहीं देश और समाज उनकी सुधा कब लेगा? कब कोई विकल्प देगा? देश मे आदिवासियों की मुख्य समस्या विस्थापन रही है। वे पहले भी खदेड़े जा रहे है। ये खदेड़ना सदियों से चालू है, बस केवल रूप या तरीका बदल गया है। वे उजड़ रहे जंगल, जल, जमीन, तीन महत्वपूर्ण मूल अधिकारों से वे वंचित हो रहे है और विडबंना यह है कि ये सब हो रहा उसके विकास या उनकी स्थिती मे सुधार के नाम पर। आज जंगल मे उनके प्रवेश पर रोक है। जिस धरती पर वे बसते है, उसके गर्भ मे खनिज है यानि संपदा है, उपर नदियां और जंगल हैं। पर वहां उनके प्रवेश पर रोक है। नदियां कोयले की धूल से काली होकर प्रदूषित हो गयी, उनका पानी किसी काम का न रहा , जंगल कट गए, जमीन गढ़ा-पोखर बन गयी, खेत धंस गए, पानी के स्रोत सूख गए या नीचे चले एक और पहुंच के बाहर हो गए। आग पर बैठा है आज इस क्षेत्र का आदमी। धरती के नीचे आग लगी है, कब धंस जाएगी धरती , पता नही। व्यवसायीकरण होेने के कारण आदिवासियों को उनके ही जंगल से बर्बरता पूर्वक उजाड़ा गया, इस प्रकार आजादी के बाद की सरकार ने न केवल साम्राज्यवादी सरकार के सिद्धांतो को दोहराया बल्कि उन्हे और भी सशक्त और सबल बनाया जिसका नतीजा हुआ वन मे रहने वाले आदिवासियों का खदेड़ा जाना, और जंगल पर राज्य के वन विभाग का एकाधिकार स्थापित होना। आदिवासियों के विकास, उनकी भाषा संस्कृति तथा उनकी पहचान की रक्षा के केन्द्र मे मुख्यत: जमीन है। झारखण्ड हो या छत्तीसगढ़ या अन्य आदिवासी बहुल प्रदेश, वहां के गरीब आदिवासियों के लिए भूमि का प्रश्न महत्वपूर्ण है। भूमि से संबधित सबसे महत्वपूर्ण समस्या है भूमि का अलगाव। ब्रिटिश शासन द्वारा 1793 की स्थायी बंदोबस्ती के माध्यम से एक नए प्रकार की जमींदारी व्यवस्था आदिवासियों पर थोप दी गयी थी। इस व्यवस्था के चलते जमीन सामूहिक संपत्ति से एकाएक निजी संम्पति मे तब्दील हो गयी। इस कानून के माध्यम से अंग्रेजो ने विभिन्न सर्वे सेटलमेंट के माध्यम से भू-रिकार्ड तो तैयार किये , उनका हस्तांतरण जमीन के निजी संपत्ति बन जाने के बाद शुरू हो गया। 1793 से शुरू इस प्रक्रिया ने सामूहिकता पर आधारित आदिवासी जीवन पद्धति को झकझोर कर रख दिया। जिसके फलस्वरूप विद्रोह की भावना बढ़ी, और 1797 मे दुक्खन माझी के नेतृत्व मे मुण्डा विद्रोह हुआ और 1820-21 मे सिंहभूम मे हो विद्रोह। 1831-32 मे पुन: सिंहभूम मे बिंदाराय और सिंह राय के नेतृत्व मे द्वितीय विद्रोह हुआ और 1832 मे ही बुद्धू भगत ने सिल्ली मे विद्रोह किया।
1793 मे बनी जमींदारी व्यवस्था ही आदिवासियों को जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया। जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए बिरसा मुण्डा ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर आगे तक कायम रखा।
ब्रिटिश सरकार ने आदिवासी हितो की रक्षा के लिए सीएनटी एक्ट 1908 तथा संथाल परगना के लिए रेगुलेशन 1872 बनाया। आजादी के बाद यही रेगुलेशन 1949 मे विकसित होकर एसपीटी एक्ट बना। 1969 मे अनुसूचित भूमि अधिनियम बनाया गया। लेकिन इन काश्तकारी कानूनों से भी जमींदारी व्यवस्था समाप्त नही हुई।
आजादी के बाद आदिवासियों की रक्षा करने की बजाए भारत सरकार अंग्रेजो द्वारा निर्मित कानून को और सख्ती से लागू करना शुरू कर दिया। सरकार के इस तानाशाही कानून के कारण सिंहभूम मे 1978 मे जंगल आंदोलन छिड़ गया। 1978 और 1985 के बीच बिहार मे 18 पुलिस गोली कांड हुए , सैकड़ो आदिवासियों को उजाड़ दिया गया, हजारों आदिवासियों को झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। 14 अप्रैल 1984 को उच्चतम न्यायालय सिंहभूम द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट के अनुसार 14 हजार आदिवासियों पर 5160 मुकदमे लंबित थे। जिनमे से कुछ 1960 से ही लंबित थे। आदिवासियों के त्रासदी के मुख्य कारण उनके गांवो से विस्थापन और जंगल , जमीन के परंपरागत स्वामित्व से वंचित किया जाना।
1984 मे नेशनल रिपोर्ट सेंसिंग एजेंसी द्वारा किया गया अध्ययन दर्शाता है कि 70 से 80 के दशक तक आते आते भारत मे वनो का विस्तारण 16.9 प्रतिशत से घटकर 14.1 प्रतिशत रह गया। यानि हर वर्ष औसत 10 लाख 30 हजार हेक्टेयर वनो का नुकसान हुआ। बाद मे यह घटकर केवल 10 प्रतिशत रह गया। आदिवासी मुख्य रूप से जंगल पर निर्भर रहते हे। वर्षों से इनके जिवीका का साधन जंगल रहा है। ट्राइबल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग सेंटर चाईबासा के मैथ्यू अपीपरमपील ने इस कमी को दूर करने के लिए कहा था कि यह तभी संभव होगा जब आदिवासी वन प्रबधंक मे आर्थिक रूप से साझेदार तथा जंगल के उत्पादकों मे भागीदार बन पाएंगे।
डा0 राय बर्मन के शब्दो में - साम्राज्यवादी शासन काल मे इस प्रतीकात्मक संबंध को तब गहरा झटका लगा, जब जंगल को आर्थिक अधिकृत मुनाफे का स्त्रोत मात्र समझा जाने लगा और मानव निवास तथा विस्तृत जीवन परिसर के बीच की जीवंत कड़ी के रूप मे इसे अनदेखा कर दिया गया।
इस प्रकार आजादी के बाद भारतीय शासको ने जंगल को एक मुनाफे की वस्तु बना दिया। और सरकारी अधिकारियों , नेताओं, ठेकेदारों ने मिलकर बर्बरतापूर्वक उसे बर्बाद कर दिया। ठेकेदारो द्वारा जंगलों की निर्मम कटाई की प्रतिक्रिया स्वरूप ही उत्तराखण्ड मे चिपको आंदोलन चला, बिहार झारखण्ड मे सखुआ के जंगल काटकर सागवान और सफेदे युकेलिप्टिस के जंगल लगाने का जबरदस्त विरोध हुआ क्योंकि मिश्रित जंगल आदिवासियों को रोजगार, पानी और समय से वर्षा से देता है। कटाव का संरक्षण तथा पानी के स्त्रोतां की रक्षा भी करता है। जबकि सफेदे का जंगल पानी के स्त्रोत को सूखा देता है। सखुआ का पेड़ अकाल मे भी उनके जीवन की रक्षा करता है, उसके बीजों से पेट भरकर वह जिंदा रहता है, बीड़ी पत्तों के पेड़ उसे रोजगार देते है। कुसुम के बीज तेल देते है तो महुआ के फल और फूल भोजन और पेय दोनो, उसकी गुठली तेल मुहैया करती है। पलाश का पेड़ गोंद और रंग देता है। जबकि जंगल माफिया, सरकार और व्यापारी कीमती पेड़ो को काटकर उंचे दामो पर बेचते है। पेड़ काटने के आरोप मे आदिवासी दण्ड भरता है या जेल जाता है।
सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी जमीन के मालिक बनने के बजाय पहले मजदूर बने, फिर बंधुआ मजदूर। पहले वे वनपति , भूमिपति और किसान थे। उनके अपने खेत थे, जिन पर सामूहिक खेती होती थी, परस्पर सहयोग से झूम की खेती होती थी। व्यक्तिगत संपत्ति शब्द से वे अनजान थे। आजादी के बाद विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनी, जिनके घर उजड़े, जिनके खेत और गांव डूबे, वे आदिवासी कही स्थाई रूप से बस नही पाए।
अंग्रेजो के समय मे बने सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे बदलाव समय की मांग है। 1908 और 2011 के समय मे बहुत अंतर है। पहले के झारखण्ड मे और सन् 2000 मे बने झारखण्ड राज्य मे अप्रत्याशित बदलाव आया है। पहले आदिवासी मुख्य रूप से जल, जंगल , जमीन पर आश्रित था लेकिन समय और समाज के बदलते परिवेश के चलते आदिवासियों के भी विचार मे बहुत परिवर्तन आया है। आज का आदिवासी समाज भी जमाने के मद्देनजर अपने आप को बदलना चाहता है। अपने संस्कृति के साथ-साथ अपने आप को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना चाहता है। जिसके लिए (रोजगार)आदिवासी राज्य के विभिन्न हिस्सों मे जाकर बसना चाहता है। 1908 के बहुत सारे थाने आज जिला बन चुके है। जबकि सीएनटी एक्ट मे किसी जनजातीय परिवार की जमीन खरीदने का हक केवल उसी थाना क्षेत्र के जनजातीय परिवार को दिया गया है। आदिवासियों के परिवार बढ़ चुके है, जरूरतें बढ़ चुकी है। इन सभी बातों को ध्यान मे रखते हुए सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट की मूल भावना को सुरक्षित रखते हुए अपेक्षित करना चाहिए। जिसके तहत आदिवासी राज्य के किसी भी जा कर बस सके। अपने जमीनों को पूरे राज्य के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को बेच सके।
संथाल परगना एवं छोटानागपुर परगना काश्तकारी कानूनों को बनने के बाद भी भूमि का हस्तांतरण कानूनी एवं गैर कानूनी , दोनो ही तरीकों से जारी है। संथाला परगना के मुकाबले छोटानागपुर मे आदिवासियों के हाथों से जमीन का छीना जाना आसान रहा है और अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े पैमाने पर हुआ है। जिस प्रकार सन् 1949 के संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम मे गैर कानूनी तरीकों से हस्तांतरित जमीन की वापसी पर से समय सीमा खत्म कर दी गयी उसी प्रकार छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम मे भी कम से कम आदिवासियों की गैर कानूनी तरीके से हस्तांतरित जमीन की वापसी पर भी समय सीमा हटाये जाने की जरूरत है।
आदिवासी समाज ने बहादुरी की विरासत अपने पूर्वज से पाई है। झारखण्ड राज्य की लड़ाई मे जाने क्यों इनके नेता कामयाब मुहिम चलाने के बाद भी उसे अंजाम नही दे पाए। अपनी लड़ाई छोड़कर सत्ता से सुलह करते रहे । वे बिक गए या डर गए, उसी का फल है कि वृहत्त राज्य से घटकर एक छोटा राज्य तो बना झारखण्ड लेकिन यह आदिवासियों के आधार पर नही बना। वह बना क्षेत्रियता के आधार पर, झारखण्डी संस्कृति के नाम पर जिसके नाम पर बहुत से छद्म झारखंडी घुस गए और घुस गए वे जिन्होने आदिवासियों की जमीनें हड़पी थी, जिन्हे आदिवासी दिकु कहते है। आज उन्हीे के कब्जे मे चला गया है झारखण्ड । तब कौन लाटाएगा जमीन? सत्ताधारी आदिवासियों के विकास के लिए नही बल्कि क्षेत्र और जातीय आधार पर अपने वोट बैंक सुरक्षित कर , आदिवासियों को विस्थापित करने पर तुले है।
अपने ही घर मे आज बेगाना है आदिवासी, परदेशी बन गया है, अल्प संख्यक हो गया है, माओवादी-नक्सली बन गया है। छोटानागपुर और संथाल परगना के टेैनेंसी एक्ट मे बदलाव लाकर, बड़ी-बड़ी कंपनियों को जमीन देने की योजना बनाई जा चुकी है। फिजी जैसी हालत हो गयी है झारखण्ड की।
आदिवासियों द्वारा देश के विभिन्न भागों मे अनेक अभियान चलाये गये। इनमे से अधिकांश आंदोलन , विस्थापन या भूमि से उनका कब्जा छिनने , साहुकारों एवं जमींदारों द्वारा कानूनों को अपने फायदे के लिए दुरूपयोग करने से उत्पन्न असंतोष से पैदा हुए। कहीं अधिक तो कहीं कम, पर सब जगह विद्रोह हुए। अपने जमीन के लिए लड़ रहे आदिवासियों को नक्सली और माओवादी बना दिया गया, उनका एनकाउंटर कर दिया गया। उनपर बर्बरता पूर्वक अत्याचार किया गया।
निश्चय ही आदिवासी लोगों को वह सब कुछ प्राप्त कराया जाना चाहिए, जो मूल रूप से उनका था पर जिन्हे गैर जनजातीयों के शोषण के कारण उससे वंचित होना पड़ा। 1908 मे बने सीएनटी एक्ट प्रभावकारी हो सकता है लेकिन कानून बना देने से ही सब कुद ठीक नही हो जाता और न ही कानून के उल्लंघन करने वालो को रोका जा सकता है। इस कानून का मतलब है पूर्व मे , जिस तरह आदिवासियों की जमीने छीनी या हड़पी गयी है और आने वाले कल मे भी छीनी जा सकती है, इस पर राक लगे।
क्या कानून बना देने से ही भूमि के हस्तांतरण पर रोक लग गयी? सच तो यह है कि कानून बनाने वाले ढांचे की इच्छाशक्ति और ईमानदारी न होने के कारण इन कानूनों के रहते हुए भी आदिवासियों की जमीने हस्तांतरित होती रही है। वास्तव मे शुरूआत ही गलत रही है। सिर्र्फ कानून बना देना किसी समस्या का इलाज नही है दरअसल सीमित अर्थों मे ही आदिवासी हितों की रक्षा करने वाले कानूनों की हिफाजत तथा इनके प्रभावी अमल के लिए कभी भी कोई कठोर प्रशासनिक उपाय या प्रयास सरकार ने नही किया। बल्कि अभी तक तो शोषक वर्गों द्वारा ही पुलिस एवं प्रशासन का इस्तेमाल इन कानूनों को निष्प्रभावी बनाने एवं विफल करने के लिए किया जाता रहा है। यहीं कारण है कि सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे संशोधन की बात पर सभी दल एकमत नही है। लेकिन समय की मांग के मद्देनजर आदिवासी हित को ध्यान मे रखकर सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे संशोधन जरूरी है।
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