कुछ खट्टा, कुछ मीठा
राजन कुमार
जमीन का मामला
जमीन का मामला इतना ज्वलंत हो गया है कि आदिवासी जमीन का नाम सुनकर ही डर जाता है। उसे इस बात भयानक डर लगा रहता है कि कभी भी हमारी जमीन सरकार या कारपोरेट हमसे छीन न ले। जहां आदिवासियों की जमीन छीन ली गई है वहां आदिवासी धरना प्रदर्शन कर रहें है, जबकि कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा जिला ही जबरन लूटने का प्लान बन चुका है। अगर इस तरह से इनके जमीन छीने जाएंगे तो निश्चित आदिवासी इलाका और ज्वलंत हो जाएगा। नर्मदा बांध से लेकर नगड़ी मामले में तो आदिवासी अभी तक सिर्फ धरना प्रदर्शन कर रहें है, लेकिन अगर पूरा का पूरा जिला लूट लिया जाएगा तो शायद वहां निश्चित ही कोई बड़ा खूनी संघर्ष हो सकता है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और जशपुर जिले में सरकार वहां की पूरी जमीन लूटने का प्लान बना चुकी है, जबकि मध्यप्रदेश के सिंगरौली में यह खेल जारी है। जमीन लूटने के लिए आदिवासियों को अभी फुसलाया जा रहा है, अगर आदिवासी अपनी जमीन मामले पर अपनी भौंह टेढ़ी कर लिया तो निश्चित ही आदिवासियों को नक्सली बताकर मारने का सरकार का अगला प्लान होगा।
जीवन में बिजली
बिहार के किशनगंज जिले के पहाड़कट्टा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले गांव गुवाबाड़ी आदिवासी टोला में आजादी के पहली बार विद्युत सप्लाई हुआ। आदिवासी खुशी के मारे में पागल हो गए, रात भर झूमे, गाए, नाचे, मौज मनाए। वैसे इस गांव को बिजली नहीं मिलती अगर 3 जून को सेवा यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस क्षेत्र का दौरा नहीं करते तो, लेकिन दौरे के दौरान नीतिश कुमार की नजर इस गांव पर पड़ी और उन्होंने गुवाबाड़ी आदिवासी टोला में विद्युत आपूर्ति के लिए आश्वासन दिया। इस आदिवासी गांव में 40 आदिवासी परिवार रहता है, जो जिंदगी में पहली बार बिजली देख कर इतना खुश हुआ है। लेकिन इन बेचारे आदिवासियों को क्या पता कि जिस बिजली को ये आजादी के 65 साल बाद देख रहें है वो बिजली उन्हीं के क्षेत्र से पैदा होती है, और दूसरे लोग इसके मजे लेते हैं। हकीकत तो यहीं है कि आज भी बहुत सुदूर आदिवासी इलाकों में बिजली, स्वास्थ्य समेत विभिन्न मूलभूत योजनाएं नहीं पहुंची है, जबकि यह इलाका प्राकृतिक संसाधन से भरपूर है और बिजली इन्हीं क्षेत्रों से पैदा होती है।
चाय श्रमिकों का दर्द
पश्चिम बंगाल के डुवार्स और असम के चाय बागानों में रह रहे चाय श्रमिक राजनीति के नाम पर अपना बाजार चलाने वाले से इतना क्षुब्ध हो गए हैं कि अब अगर कोई भी उनके हित में आवाज उठाने की कोशिश करता है तो वे(चाय श्रमिक) कहते है कि आ गए अपने राजनीति का बाजार लेकर। चाय श्रमिकों का कहना जायज ही है, क्योंकि चाय श्रमिकों के हित की बात तो वर्षों से होती चली आ रही है, लेकिन सिर्फ बात होती चली आ रही है, काम इनके हित में नहीं होता है। अगर चाय श्रमिकों को यहां रहना है तो चाय बागान मालिकों के रहमों करम पर। चाय बागान मालिक इनको मारे-पीटे, इनके इज्जत के साथ खिलवाड़ करे या शोषण करे, सब सहना है। ये आदिवासी चाय श्रमिक अंग्रेजों का शोषण का शिकार होकर अपने मूलभूमि से कट गए और घने जंगलों को काट कर चाय बागान बनाया। उस चाय बागान से सरकार और गैर आदिवासी आज फायदे कमा रहें है, लेकिन चाय बागान श्रमिकों की हालत वहीं की वहीं है। चाय श्रमिकों के नाम अनेकों संस्थाएं, मजदूर संगठन और आदिवासी संगठनों का निर्माण हुआ, उनके हित में आवाज उठाने का ऐलान किया गया, लेकिन समय के साथ सभी संस्थाओं और संगठनों ने अपना नीजि हित ही साधा और चाय श्रमिकों को वहीं का वहीं का छोड़ दिया जहां पर वे हैं।
हाशिए पर आदिवासी राजनीति
छत्तीसगढ़ में एक नई राजनीतिक पार्टी का उदय हुआ है- भारतीय गोंडवाना पार्टी। भारतीय गोंडवाना पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारने का ऐलान की है। पार्टी का कहना है कि छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बहुल प्रदेश है और यहां के राजनीति में आदिवासी हाशिए पर हैं। जब तक आदिवासी स्वतंत्र रुप से यहां का मुख्यमंत्री नहीं बनेगा तब तक प्रदेश का विकास नहीं होगा।
गोंडवाना पार्टी की बात तो सही है, अरविंद नेताम और नंदकुमार साय छत्तीसगढ़ के तेजतर्रार और खांटी आदिवासी नेता है। अरविंद नेताम कांग्रेस से हैं तो नंद कुमार साय भाजपा से। लेकिन भाजपा और कांग्रेस ने हमेशा इन दोनो को आगे बढ़ने ही नहीं दिया। 38 साल के जिस तेजतर्रार और आदिवासियों के लोकप्रिय युवा नेता अरविंद नेताम को इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी उसी नेताम को कांग्रेस ने आज हाशिए पर धकेल दिया है। नंद कुमार साय, जो शराब के खिलाफ आंदोलन कर आदिवासियों में जागृति पैदा की, और हमेशा जमीन से जुडेÞ रहे। छत्तीसगढ़ अगर भाजपा की सरकार है तो नंद कुमार साय के कारण, लेकिन भाजपा ने इन्हें भी धीरे-धीरे किनारे पर लगाने की कोशिश कर रही है। नंद कुमार साय को छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री न बनाकर भाजपा ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया, जिससे आदिवासी अपने आप को ठगा महसूस कर रहें है। शायद इसी वजह से गोंडवाना पार्टी का उदय हुआ है।
समाज से बिछड़ने का दुख
देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली में आकर बसें आदिवासियों का अपने संस्कृति और समाज से कट जाने दुख स्पष्ट दिखाई देता है। जब कोई पर्व-त्यौहार पर आदिवासी अपने गांव-समाज में न होकर दिल्ली में होता है तो उसे बहुत दुख होता है। पर्व-त्यौहार के मौके पर कुछ आदिवासी एकजुट होकर अपने पर्व-त्यौहार के याद में कुछ कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। एक साथ नाचते-गाते हैं और हड़िया बनाकर पीते हैं। लेकिन इन कार्यक्रमों से भी उनके दिल की इच्छा पूरी नहीं होती। उनको सबसे ज्यादा दुख इस बात का है कि उनके बच्चे अब दिल्ली में रहकर अपने संस्कृति और समाज को भूलते जा रहे हैं। ये बच्चे अब मन से नहीं, सिर्फ नाम से आदिवासी हैं और आदिवासी कहने पर चिढ़ जाते हैं।
उत्तर प्रदेश के आदिवासी
उत्तर प्रदेश में आदिवासियों को कोई खास आरक्षण नहीं प्राप्त है। आरक्षण की नग्णयता के कारण बहुत आदिवासी आरक्षण से भी अनभिज्ञ हैं और अनुसूचित जनजाति कोटे के आरक्षण का लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं। इसके लिए खास तौर से उत्तर प्रदेश सरकार का गैरजिम्मेदाराना रवैया है। अगर उत्तर प्रदेश सरकार कुछ चपलता दिखाए तो निश्चित ही इन लोगों तक इनके अधिकारों को पहुंचाया जा सकता है।
इनके लिए मुख्य समस्या यह है कि आरक्षण लाभ न पा सकने के कारण ये आदिवासी अपने को सामान्य समझ लेते हैं। उत्तर प्रदेश के गोंड, थारु आदि समुदाय के आदिवासियों को अगर कोई आदिवासी कहता है या अनुसूचित जनजाति कोटे की आरक्षण की बात करता है तो ये लोग चिढ़ जाते हैं। हालांकि सभी आदिवासी नहीं चिढ़ते, गोंड, थारु आदि समुदायों के कुछ लोग ही तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अब धीरे-धीरे ये लोग आरक्षण और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रहें है और अपने अधिकारों को प्राप्त करने की कोशिश में लगे हुए है।
झारखण्ड या लूटखण्ड
झारखण्ड में आदिवासियों के हित के लिए जितने एनजीओ, संस्था या राजनीतिक पार्टियां है, उतना शायद ही किसी राज्य में होगी। सभी एनजीओ, संस्थाए या राजनीतिक पार्टियां आदिवासियों के हितकर होने की दावा करती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इनके लाख दावा करने के बावजूद आदिवासियों की स्थिति में कोई साकारात्मक परिवर्तन नहीं आया, बल्कि दिन प्रतिदिन और दयनीय होती गई। क्या पता ये संस्था या पार्टियां आदिवासियों के हित में कितना काम करती है, लेकिन ये बात है कि ये आदिवासियों के नाम पर पैसा बहुत कमाती हैं।
संस्थाओं या पार्टियों के मालिक जो कभी 100 रुपए के लिए कई दिन मेहनत करते थे वे आज 100 करोड़ के मकान में रहते हैं। यहां लोगों को समझ में आ गया है कि अगर झारखण्ड में पैसा कमाना है तो एनजीओ, संस्था या राजनीतिक पार्टी बनाओं और मालामाल हो जाओ, झारखण्ड आदिवासियों के लिए है, हमारे लिए तो लूटखंड है। लूट सको तो लूट! आए दिन झारखण्ड में नए-नए एनजीओं, संस्थाओं और राजनीतिक पार्टियों का अभ्युदय हो रहा है, जिनका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना है, न कि आदिवासी हित के लिए लड़ना। जैसा कि पिछले दिनो राष्ट्रपति चुनाव में भी देखने को मिला, सभी छोटी-बड़ी पार्टियां आदिवासी राष्ट्रपति के विरोध में खड़ी थी। अब तो आदिवासी मुख्यमंत्री का भी विरोध होने लगा है।
अंतरात्मा की आवाज
सोशल साइटों पर इस खबर सुगबुगाहट है कि राष्ट्रपति का चुनाव सांसद का चुनाव जीतने से बहुत आसान हैं, कठिन है तो राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनना। लगता भी ऐसा है! क्यों कि राष्ट्रपति का चुनाव भले ही पांच हजार से ज्यादा सांसद, विधायक करते हैं, लेकिन अपनी मर्जी से नहीं, पार्टी प्रमुख की मर्जी से। यानि कोई भी सांसद या विधायक अंतरात्मा की आवाज पर राष्ट्रपति नहीं चुनता है। यानि कि राष्ट्रपति का चुनाव 10-12 लोगों के फैसले पर ही निर्भर है। यानि कोई भी व्यक्ति 10-12 पार्टी प्रमुखों को मना लिया तो समझों राष्ट्रपति बन गया। राष्ट्रपति जनता का नहीं, कुछ विशेष लोगों का होता है, क्यों जनता के प्रतिनिधि जनता के हाथ में नहीं, कुछ विशेष लोगों की मुट्ठी में है।
लाडली योजना से लाडली दूर
झारखण्ड, मध्य प्रदेश जैसे कई आदिवासी बहुल राज्यों में लड़कियों के सुनहरे भविष्य के लिए कन्या लाडली योजना चलाई जा रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य लड़कियों को शिक्षित करना एवं उनके बाल जीवन को बचाना है। इस योजना के तहत सरकार द्वारा करोड़ो रुपए आवंटन किए गए है, फिर भी झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िशा जैसे अनेक आदिवासी क्षेत्रों में नाबालिग लड़कियों का पलायन जारी है। ‘‘भूखे भजन ना होत गोपाला, ले लो अपनी कंठी माला’’ जैसी इनकी हालत हो गई। हकीकत यह है कि भूख और गरीबी से तंग इन आदिवासी लड़कियों तक सरकारी योजनाएं नहीं पहुंच पा रहीं है। भूख से व्याकुल ये लड़कियां सीधे महानगरों की तरफ रुख कर रहीं हैं, जहां इनके बाल जीवन का शोषण हो रहा है। सरकार की लाडली योजना आदिवासी क्षेत्रों औंधे मुंह गिर रहीं हैं।
पुलिस की दादागिरी
अगर किसी राज्य पुलिस को दादागिरी नहीं आती है तो वह छत्तीसगढ़ पुलिस से सीख सकती है। छत्तीसगढ़ पुलिस की दादागिरी का सहज अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है जब बीजापुर जिले के साकेरगुडा हत्याकांड(28 जून की रात इस हत्याकांड में सुरक्षाबलों ने 17 निर्दोष आदिवासियों को मार दिया था।) के खिलाफ आदिवासी नारायणपुर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने जा रहे थे। अबूझमाड़ के ये आदिवासी सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर न्याय की उम्मीद में यहाँ आ रहे थे।
हत्याकांड के खिलाफ आदिवासी अपनी संगठित आवाज सरकार को सुना पाते उससे पहले ही नारायणपूर से तीन किलोमीटर पहले गढबेंगाल में लाठी-डंडों व बंदूको की बट से हमला कर बस्तर पुलिस ने उन्हें रोक लिया और जता दिया कि उसे अघोषित रूप से यही आदेश है कि अब अन्याय के खिलाफ प्रदर्शन नहीं होने दिया जायेगा। फोर्स व पुलिस के निरकुंश हो चुके जवानों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होना तो पहले ही बंद हो चुका है। सरकार का इतना सपोर्ट मिलने पर तो स्वाभाविक दादागिरी चमकानी पड़ेगी! पुलिस ने दादागिरी के संदर्भ में आदिवासियों को पहुंचते ही बिना किसी चेतावनी के लाठी-डंडा चलाना शुरू कर दिया। घबराये आदिवासी अपने छत्ता, चप्पल व अन्य सामान छोड कर भाग खड़े हुए। पुलिस ने इस दादागिरी का जश्न भी खुब शोर-शराब के साथ मनाया और निर्दोष आदिवासियो की पिटाई का उत्सव के तौर पर 25 जुलाई की शाम पुलिस ने छक कर दारु भी पी।
वैसे पुलिस और सुरक्षाबलों की दादागिरी की यह कोई नई घटना नहीं है। पहले से आदिवासियों के नागरिक अधिकार छत्तीसगढ़ में अघोषित रूप से छीन लिये गये हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने पहले ही सुरक्षाबलों और पुलिस के जवानों को बलात्कार, फर्जी मामले दर्ज करने और नरसंहार की खुली छूट दे रखी है। दादागिरी का ताजा मामला यह है कि आदिवासियों द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस खूब लाठी-डंडा भांजा, जिसमें सैकड़ों आदिवासी बुरी तरह जख्मी हुए हैं और कई डर मारे जंगलों में छुपे हुए हैं।
दिल्ली में आकर बन रहे शराबी
जो लोग गांवों हड़िया पीते थे, वे अब दिल्ली में आकर शराब पी रहें है। अधिक पैसा है तो अंग्रेजी शराब, कम पैसा है तो देशी शराब। आदिवासियों को हड़िया पीने की अलग ही तरीका है, जब पेट न भरे तब तक पीते रहतें है। यहां तो हड़िया मिलता नहीं हैं, इसलिए शराब से पेट भरने की लत लग जाती है, लेकिन क्या करें पैसे कम पड़ जाते हैं। जो कमाए, शराब में जाए। आए थे पैसे कमाने, बन गए शराबी। जो आदिवासी यहां रिक्शा चलाते हैं वे तो दिन भर कमाते हैं, रात को भर पेट पिएंगे, फिर कहीं सड़क किनारे रिक्शा लगाके रिक्शा पर ही सो जाएंगे। जो सरकारी नौकरी करते हैं वे तो अंग्रेजी शराब पीते हैं, लेकिन दाम अधिक होने से पेट नहीं भरता। अन्य प्राइवेट नौकरी करने वाले बहुत किफायत से शराब पीते हैं, लेकिन फिर भी आधी कमाई तो शराब में जाती ही जाती है। हां, कहीं किसी पार्टी में शामिल होने का मौका मिला तो उस दिन का पैसा भी बच गया, पेट भी भर गया।
क्या सच, क्या झूठ
झारखण्ड की बात ही निराली है, यहां तो सरकारी काम कितनी सफाई से होती है, इसका अंदाजा लगाना बहुत सहज है। झारखण्ड एक आदिवासी बहुल राज्य है और झारखण्ड की निराली बात यह है कि यहां के सभी गांवो में बिजली पहुंच रहीं है, लेकिन किसी के घर में जलती नहीं है, जैसे बिजली में ही जंग लग गया हो। वहां के लोगों का कहना है कि गांव-गांव में बिजली के खंभे खड़ा कर दिए, तार का अता-पता ही नहीं है, बिजली कैसे आएगी। जबकि सरकारी फाइलों में स्पष्ट दिख रहा है कि बिजली प्रत्येक गांवो में पहुंच रहीं है। पता नहीं सच्चाई क्या है, सरकार की फाइले झूठ हैं या जनता की बात।
सवर्ण डायन क्यों नहीं?
भारत में आज भी लोग जादू-टोना, डायन, भूत-प्रेत आदि पर विश्वास करते हैं। इनसे मुक्ति दिलाने के लिए बकायदा अखबारों मे विज्ञापन छपता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि डायन, जादू-टोना, भूत-प्रेत की बातें आदिवासी और पिछड़े क्षेत्रों में काफी प्रचलित हैं, और इसके प्रचलन में मुख्य रोल कुछ सभ्य कहे जाने वाले लोगों का ही है। दरअसल डायन का आरोप आदिवासी, दलित या पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाली महिलाओं पर ही लगाया जाता है। किसी सवर्ण महिला पर डायन का आरोप नहीं लगता है। लगे भी क्यों? सबको अपने प्यारे होते हैं, और इसके प्रचारक तो सवर्ण ही हैै। दरअसल आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं को डायन घोषित करके उनके जमीनों को हड़प लिया जाता है।
आदिवासी, सरकार और नक्सली
आदिवासियों की मौत सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखती, चाहें आदिवासी सुरक्षाबलों द्वारा मारे जाएं या नक्सलियों द्वारा। अगर सुरक्षाबल आदिवासियों को मारेंगे तो उन्हें मेडल दिया जाएगा और प्रमोशन मिलेगा, यदि नक्सली आदिवासियों को मारेंगे तो सरकार आदिवासियों पर ताने मारती है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के सारकेगुडा गांव में बेरहमी से 17 निर्दोष आदिवासियों को सुरक्षाबलों ने भुन दिया था, केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक इन निर्दोष आदिवासियों को नक्सली साबित करने में लगे रहें, लेकिन नाबालिगों के मरने के कारण सरकार इन आदिवासियों को नक्सली नहीं साबित कर सकी। हकीकत तो यह है कि बड़े आराम से व्यापारी वर्ग नक्सल क्षेत्रों मे काम कर रहा है, जिसे सरकार मदद भी कर रहीं है, जबकि जनहित कार्य में हमेशा रुकावट आती है, रोकने वाले पता नहीं कंपनियों के चमचे है या सरकार के या नक्सली है?
जंगल एक्ट का जिन्न
सरकार जंगल एक्ट को जिन्न समझकर किसी ठंडे बस्ते में डाल दी है, सोच रहीं है कि निकलेगा तो बड़ी मुसीबत पैदा कर देगा। आदिवासियों एवं जंगलवासियों के हित के लिए बना जंगल एक्ट को लागू हुए लगभग पांच साल हो रहे हैं लेकिन आदिवासियों एवं जंगलवासियों को अभी तक वन अधिकार नहीं मिल पाया हैं। राज्य सरकारें आगे सर्वेक्षण नहीं कराना चाहती हैं।
सरकार की मंशा जंगलों से आदिवासियों को वेदखल करने की है। सरकार जंगलों को कम्पनियों के हवाले करना चाहती है, लेकिन ये आदिवासी सरकार के राह में रोड़े बन रहें है। आदिवासी सरकार के ठंडे बस्ते को ढूंढ रहें हैं कि ठंडा बस्ता को गर्म करके जिन्न निकाला जाए। आदिवासी-जंगलवासी सरकार और वन विभाग के प्रति इतने गुस्सा है कि अपने हक के लिये फिर निणार्यक लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहें है। 2 अक्टूबर 2012 को एक लाख लोग ग्वालियर से दिल्ली तक की जनसत्याग्रह 2012 में जाने की तैयारी कर रहे हैं। शायद जिन्न ठंडे बस्ते से बाहर निकल आए?
कांग्रेस आदिवासी विरोधी!
चाहें जो भी हो, कांग्रेस ने स्पष्ट कह दिया कि वह आदिवासी विरोधी पार्टी है। वह आदिवासियों को अपने पार्टी में न तो कोई विशेष सम्मान दे सकती है और न ही किसी विशेष पद के लिए सपोर्ट कर सकती है। राष्ट्रपति मुद्दा उछला तो लगा कि संगमा कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे, लेकिन संगमा को कांग्रेस ने किनारे कर दिया, बाद में आदिवासी वोटों के लिए भाजपा ने संगमा को लपक लिया।
हालांकि अधिकतर आदिवासी नेता कांग्रेस से ही उभरे हैं, लेकिन कांग्रेस की वोट नीति के चक्कर में निचले स्तर तक ही सीमित हो रह गए। उपराष्ट्रपति चुनाव में भी कांग्रेस खेमे में आदिवासी मुद्दा गरम हो गया था, आदिवासियों को लगा कि चलो राष्ट्रपति न सहीं उपराष्ट्रपति ही सही। लेकिन आदिवासियों के दिलों को ठेस पहुंचाते हुए कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार आदिवासी मंत्री वी. किशोर चंद्र देव के बजाए हामिद अंसारी को दुबारा उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया गया। बेचारे आदिवासी सबसे अमीर धरती के मालिक सबसे गरीब! अगर आदिवासी बन गया राष्ट्रपति तो कैसे लूटेंगे अमीर धरती।
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