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Monday, August 13, 2012


स्वतंत्रता दिवस के मायने?

राजन कुमार
हम 66वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। इन 65 वर्षों में नए आयामों को छूते हुए भारतवर्ष एक महाशक्ति के रुप में अपनी पहचान कायम किया है। विकास की इतनी तेज रफ्तार से उभरता हुआ भारत कई देशों के आंखो का दर्द बन चुका है। अंतरिक्ष से लेकर जमीन तक, हम कहीं किसी से पीछे नहीं है, लेकिन आज भी सीने में यह दर्द है कि भारत में लोग भूखे मरते हैं।
एक बहुत बड़े भू-भाग में असंतोषजनक स्थिति बनी हुई है। उग्रवाद और सरकारी नीतियों के बीच फंसा एक बहुत बड़ा तबका पीड़ित और शोषित होकर सरकार से विश्वास खो चुका है। ये वर्ग स्वतंत्र भारत में घुटन महसूस करता है। देश के विकास के नाम पर इनका हमेशा विनाश हुआ। इनके लिए अनेकों सरकारी योजनाएं हैं, लेकिन सिर्फ फाइलों तक ही इनका विकास दिखता है, जमीन तक पहुंचने से पहले ही खंूखार भेड़िये योजना राशि को गटक जाते हैं। आखिर इनके लिए स्वतंत्रता दिवस क्या मायने रखता है।
 'पिछले छह हजार साल से हमारा उत्पीड़न हो रहा है। आप लोग हमारे बाद इस देश में आए। सिंधु घाटी से हमें आप लोगों ने निकाला। अगर हमारा इतिहास विद्रोह और संघर्ष का है, तो वजह आप हैं। लेकिन मैं नेहरू की इस बात पर भरोसा कर रहा हूं कि आजाद भारत हमें बेहतर जिंदगी देगा।'
साठ साल पहले यह तल्ख टिप्पणी एक आदिवासी हाकी खिलाड़ी जयपाल सिंह ने की थी। उन्हें सुनने वालों में थे- डा. बीआर अंबेडकर, पुरुषोत्तम दास टंडन, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्र्जी, सोमनाथ लाहिड़ी जैसे विख्यात लोग। लेकिन जयपाल सिंह की उम्मीद अधूरी ही रही। इसका गवाह है बीते जून महीने में छत्तीसगढ़ के बीजापुर और नारायणपुर जिले में आदिवासियों पर बर्बरता पूर्वक पुलिसिया जुल्म। बीजापुर के सारकेगुडा गांव में सुरक्षा बलों द्वारा खुल्लेआम निर्दोष आदिवासियों की हत्या, नारायणपुर में न्याय के लिए शांति पूर्वक प्रदर्शन कर आदिवासियों पर पुलिसिया जुल्म कहां से आदिवासियों की स्वतंत्रता को दर्शाते हैं।
हकीकत तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद आदिवासियों को बहुत कम(नगण्य) मिला है, जबकि खोना बहुत   ज्यादा पड़ा है। हमेशा से आदिवासियों को सपोर्ट करने के बजाए दबाने की कोशिश की गई, चाहे राजनीति हो या सामाजिक मुद्दा। जयपाल सिंह मुण्डा- इन्हें हॉकी का जनक कह सकते हैं, विश्व में सबसे पहले हॉकी के माध्यम से भारत को ख्याति दिलाने वाले। लेकिन इन्हें सरकार ने कितना सम्मान दिया। भारत को हॉकी में ओलपिंक का पहला गोल्ड मेडल दिलाने वाले जयपाल सिंह मुण्डा को भारत के लोग शायद ही जानते होंगे, लेकिन हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद को हर कोई जानता है। सुविधाओं के अभाव में भी 8 प्रतिशत आदिवासी समुदाय से अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनेकों खिलाड़ी उपजे, लेकिन अन्य समुदायों की अपेक्षा इन्हें बहुत कम ख्याति मिली। वर्तमान में भी ओलंपिक में भारत को पदक दिलाने वाली आदिवासी महिला मैरीकाम को बहुत कम लोग जानते होंगे, लेकिन ज्वाला गुट्टा, सानिया मिर्जा, कृष्णा पुनिया को हर कोई जानता होगा।
देश के प्रति हमेशा ईमानदार रहने वाले आदिवासियों को हमेशा पीछे क्यों धकेला जाता है। एक तरफ सुप्रीमकोर्ट कहता है कि आदिवासी ही देश के मूल निवासी है, जबकि दूसरे तरफ योजनाबद्ध तरीके से इनका विनाश किया जाता है।
असम के चाय बागानों में कार्यरत आदिवासी समुदाय अपनी मूलभूमि से विछड़ चुका है, जिसका दर्द उसे हमेशा सालता रहता है, लेकिन सरकार भी उसके दर्द पर मिर्च रगड़ने से पीछे नहीं हटती! पश्चिम बंगाल के डुवार्स और असम के चाय बागानों में कार्यरत चाय श्रमिकों की दर्द को कोई सुनता ही नहीं। असम के चाय श्रमिकों को अनुसूचित जनजाति के दर्जे से वंचित किया गया है तो डुवार्स में आदिवासी चाय श्रमिक अभिशप्त होकर जीने को मजबूर हैं। सरकार मुक दर्शक बनकर देखती है और कोई मदद नहीं करती है।
सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश में तो आदिवासियों की जमीनों को योजनाबद्ध तरीके से लूट रही है। विकास के नाम पर आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है, जो अपनी जमीन छोड़ने को राजी नहीं उसे नक्सली बताकर मार दिया जाता है।
अनुसूचित क्षेत्रों में तो खुलेआम संविधान का उल्लघंन होता है। पांचवी अनुसूचि और पेसा कानून जैसे नियमों को ताक पर रख कर आदिवासियों की जमीन जबरन अधिग्रहण की जाती है। छत्तीसगढ़ के जशपुर और रायगढ़ में तो पूरा का पूरा जिला ही अवैध तरीके से अधिग्रहण करने का प्लान बन चुका है। झारखण्ड के कोल्हान क्षेत्र में कुछ ऐसा ही मामला है, जबकि रांची के समीप नगड़ी में आदिवासियों की उपजाऊ जमीन जबरन अधिग्रहण की जा रही है।
आदिवासियों के लिए स्वतंत्रता दिवस आखिर क्या मायने रखता है। जिस जमीन को अंग्रेज नहीं ले सके, उस जमीन को बहुत ही आसानी से सरकार जबरन ले रही है। आखिर आदिवासी कैसे महसूस करें कि वे स्वतंत्र हैं, जब उन्हें पूजा-अर्चना(सारकेगुडा में) करने पर मार दिया जाता है, अपनी सच्ची बेगुनाही पेश करने पर(सोनी सोरी मामला) बर्बर उत्पीड़न किया जाता है, हक के लिए आवाज उठाने पर नक्सली घोषित कर दिया जाता है, छत्तीसगढ़ के बस्तर और झारखण्ड के सारंडा क्षेत्र के आदिवासियों को इस लिए मारा जाता है कि वे क्षेत्र नक्सल प्रभावित हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा कहते हैं कि आदिवासियों को अंबेडकर जैसा अपना कोई मसीहा नहीं मिला। एक ऐसा नेता, जिसका अखिल-भारतीय महत्व हो और जो हर जगह आदिवासियों के मन में उम्मीद और प्रेरणा का अलख जगा सके। लेकिन हमें जयपाल सिंह मुंडा के उस अलख को कैसे भूल सकते हैं कि जिसके पीछे पूरा झारखण्ड चल पड़ा था, लेकिन उसको भी आखिर कुंद कर ही दिया गया।
Rajan Kumar
वर्तमान में पीए संगमा, नंद कुमार साय, वी किशोर चंद्र देव, अरविंद नेताम जैसे अनेक नेता हैं जो आदिवासियों में अलख को जगाने की पूरजोर कोशिश कर रहें हैं जबकि दूसरी तरफ अन्य राजनीतिक पार्टियों द्वारा इसे दबाने की भी पूरजोर कोशिश हो रही है। हकीकत तो यह है कि आदिवासी इलाकों की संपन्नता ही आदिवासियों की विनाश की कारण बन गई है, आदिवासी जमीन को लूटने के लिए सरकार से लेकर कारपोरेट जगत की इन इलाकों पर गिद्ध नजर गड़ी हुई है मगर आदिवासियों को अपना आस्तित्व की रक्षा करने का संकल्प लेकर देश का 66वां स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान करेंगे।

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