हॉकी में हार के जिम्मेदार कौन?
Rajan Kumar
भारत में जिस तरह अन्य खेलों का स्तर लगातार सुधर रहा है, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय खेल हॉकी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। हाल ही में बीते ओलंपिक खेल में भारत सबसे नीचले पायदान पर रहकर इसका उदाहरण पेश किया। जैसे लगता है हॉकी अपने आखिरी पड़ाव पर है।
हॉकी में हार कर बाहर हो जाने तक पूरे देश की यह इच्छा रही कि हम ओलंपिक से बेशक कुछ लाएं या न लाएं, लेकिन हॉकी में एक पदक जरुर लाएं। सिर्फ इसलिए क्योंकि ‘‘कथित तौर पर’’ हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। देश का खेल है। देश, यानि आन, बान और शान। लेकिन हॉकी को इस देश में दोयम दर्जा प्राप्त है, अब इसे नि:संकोच स्वीकार करना चाहिए।
जब ओलंपिक खेल नजदीक आता है तभी भारत में हॉकी को याद किया जाता है, हॉकी की शौर्यगाथा लिखी जाती है, और इसी दावे के साथ यह कहा जाता है कि हॉकी के माध्यम से ही अपना सबसे ज्यादा ओलंपिक पदक जीतने वाला भारत इस बार जरुर कोई ओलंपिक पदक दिलाएगा, लेकिन हॉकी टीम ओलंपिक की सबसे फिसड्डी टीम साबित हो कर स्वदेश लौटती है। हॉकी में भारत ने अपना अंतिम ओलंपिक पदक 1980 में जीता था, उसके बाद हॉकी का स्तर लगातार गिरता गया है। जैसे-जैसे स्तर नीचे गिरता गया, वैसे-वैसे हॉकी की आलोचनाएं भी होती रही, भारत कभी पांचवे स्थान पर रहा तो कभी आठवें स्थान पर, काफी तीव्र आलोचनाएं हुई। पिछली ओलंपिक में तो भारतीय हॉकी टीम खेल भी नहीं पाई, जिसकी काफी व्यग्र आलोचना हुई। कहा गया कि ओलंपिक सबसे ज्यादा आठ स्वर्ण जीतने वाली टीम इतनी फिसड्डी हो सकती है, शर्म की बात है। फिर भी इस बार हॉकी टीम ने जैसे-तैसे ओलंपिक में खेलने का मौका तो हासिल कर लिया, लेकिन अपनी लुटिया डुबा ली और सबसे नीचले पायदान पर रही। आज हम यह सोचकर काफी हैरान होते हैं कि जिस खेल के माध्यम से हमारे देश को लोग पहचानते थे उसी हॉकी में हमारा क्या हाल हो गया है। हम उसी जर्मनी से हार रहे हैं जिसे हिटलर के सामने हमने हराया था। कभी हमारे मुकाबले की टीम नहीं हुआ करती थी, लेकिन स्पेन से भी हार जाते है, जो काफी फिसड्डी टीम है।
हॉकी में भारत के पतन का यह सिलसिला तो दो-तीन दशक पहले ही शुरू हुआ, जब जरूरत थी इसे दूर करने की, लेकिन इसके बजाय हॉकी के साथ एक के बाद एक उलजुलूल प्रयोग किया गया। कभी नौकरशाहों को हॉकी की कमान थमा दी गई, तो कभी विदेशी कोचों को हर मर्ज की दवा मान लिया गया, तो कभी हॉकी की बदहाली के लिए एस्ट्रो टर्फ का बहाना बनाया गया। न तो हॉकी के कौशल और रणनीति में आए वैश्विक बदलाव पर किसी ने ध्यान दिया और न ही हॉकी को लोकप्रिय बनाने का कोई तरीका अपनाया गया।
आज जिन भी देशों में हॉकी खेली जा रही है, वहां हमसे 10 गुना ज्यादा हॉकी खेली जा रही है। लेकिन हमारे यहां घरेलू स्तर पर यह लगातार मर रही है। हमारे देश में राष्ट्र, राज्य और जिला स्तर पर हॉकी की दो-दो संस्थाएं चल रही हैं। एक तरफ इंडियन हॉकी फेडरेशन है, दूसरी ओर हॉकी इंडिया है। इसके बावजूद भारत में हॉकी का स्तर लगातार गिर रहा है।
अभी हाल ही में पूर्व हॉकी खिलाड़ी धनराज पिल्लै ने आरोप लगाया था कि हॉकी में गंदी राजनीति और अहम के कारण हॉकी की लुटिया डुबती जा रही है। हॉकी हमने ग्यारह पदक जीते हैं, जिसका कोई देश बराबरी नहीं कर सका है, लेकिन अचानक हॉकी का स्तर इस तरह से ढह जाना गंदी राजनीति की देन है।
धनराज पिल्लै एक बेहतर हॉकी खिलाड़ी रहे हैं और हॉकी में हो रही दुर्व्यवहार को वे अच्छी तरह से समझते हैं। हकीकत में हम झारखण्ड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल प्रदेशों में सही निगरानी करें और गंदी राजनीति से परे रहकर हॉकी प्रतिभा तलाशे तो निश्चित ही ऐसी अनेकों हॉकी टीम बनेगी, जो डंके की चोट पर ओलंपिक में पदक लाने का दावा कर सकती है। भारत को ओलंपिक में सबसे पहले स्वर्ण पदक दिलाने वाले हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह मुंडा, नोएल टोप्पो, सिल्वानुस डुंगडुंग, दिलीप तिर्की, इग्नेस तिर्की, असुंता लकड़ा, सुभद्रा प्रधान, विनिता खेस, वीरेंद्र लकड़ा जैसे हॉकी खिलाड़ी इन्ही आदिवासी बहुल प्रदेशों से रहने वाले हैं जो सरकार की नगण्य सहयोग से अपनी प्रतिभा के बल पर हॉकी को नये आयाम पर पहुंचाया। चूंकि हॉकी आदिवासियों का लोकप्रिय खेल है, झारखण्ड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्य में इस खेल को काफी लोकप्रियता के साथ खेला जाता है। इसीलिए इन क्षेत्रों के खिलाड़ियों को अगर अल्प सहयोग भी मिलता है तो कई खिलाड़ी अर्श से फर्श पर पहुंच जाते है।
झारखण्ड, ओड़िशा में अनेकों हॉकी प्रतिभाएं आर्थिक अभाव, गंदी राजनीति और खेल के समुचित साधन न होने के कारण दम तोड़ रहीं है। राज्य स्तर पर जूनियर, सब जूनियर टीम में खेलने वाले अनेकों आदिवासी खिलाड़ी अपने खेल से सबका ध्यान आकृष्ट किए लेकिन इन्हें राज्य की सीनियर टीम या राष्ट्रीय टीम में कभी चयन नहीं हो सका। नेहरु हॉकी कप एक राज्यस्तरीय खेल है, जिसमें झारखण्ड, ओड़िशा की टीम पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली जैसे टीम को हराकर कई बार नेहरु हॉकी कप प्रतियोगिता जीते, लेकिन इन आदिवासी हॉकी खिलाड़ियों को हमेशा नजरअंदाज किया गया। धन और प्रोत्साहन के अभाव में ऐसे प्रतिभावान खिलाड़ी कहीं पत्थर तोड़ते पाए जाते हैं तो कहीं मेहनत-मजदूरी करके अपना गुजर-वशर कर रहें है।
झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में ऐसे अनेकों प्रतिभावान हॉकी खिलाड़ी हैं जो गांव और ब्लाक स्तर तक सीमित हो कर रह गए हैं। हॉकी तो आदिवासियों का पारंपरिक खेल है, लेकिन कभी हॉकी स्टीक के अभाव में तो कभी खेलने की जगह के अभाव में ये हॉकी खिलाड़ी महीने या साल में शायद दो-चार बार ही कोई हॉकी मैच खेल पाते हैं, लेकिन जब भी खेलते हैं अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ जाते हैं।
झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ से पलायन कर दिल्ली में भी जो आदिवासी खिलाड़ी रह रहे हैं, वे अपने पारंपरिक खेल को भूले नहीं है। आज भी दिन भर मजदूरी करके ये आदिवासी खिलाड़ी शाम को दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम या अपने किसी निकटम स्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स में रोज प्रैक्टिस करते हैं, जहां पर उनको किसी भी प्रकार की कोई सुविधा नहीं मिलती है। पानी तक खरीद कर पीना पड़ता है। साप्ताहिक छुट्टी के दिन ये आदिवासी खिलाड़ी दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में पूरा दिन प्रैक्टिस करते हैं। साल-छह महीने में ‘‘छोटानागपुर हॉकी एसोसिएशन’’ के बैनर तले मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में कोई हॉकी टूर्नामेंट का आयोजन करा दिया जाता है, जिसमें ये आदिवासी खिलाड़ी खेलकर अपने आप को बहुत धन्य समझते हैं।
इस आयोजन हमेंशा कोई बड़ी आदिवासी नेता या हस्ती आते है इन आदिवासी खिलाड़ियों को सांत्वना देकर चले जाते हैं। कभी लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा आए तो कभी पूर्व हॉकी स्टार एवं राज्यसभा के सांसद दिलीप तिर्की, तो कभी राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव तो कभी सांसद मनोहर तिर्की जैसे अनेकों नेता और हस्ती इस टूर्नामेंट में आए। सभी ने इन आदिवासी खिलाड़ियों से वादा किया कि उनके सहयोग हेतु संसद से लेकर सदन तक को सूचित करेंगे, लेकिन कभी किसी ने कोई आवाज नहीं उठाया।
आज हम हॉकी की दुर्दशा के लिए क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस जैसे इत्यादि खेलों को दोषी ठहराते हैं, जबकि हकीकत तो यह है कि हम अपनी कमियों को छुपाने के लिए इन खेलों पर दोष मढ़ देते हैं। हॉकी के प्रति ढुलमुल रवैया, गंदी राजनीति, घमंड और निष्क्रियताएं ही मूल कारण रही है। अन्य खेलों को दोषी बनाकर हम अपनी गलतियों पर पर्दा डालते हैं।
खेल के मैदान की सुविधा से वंचित एक बच्चे ने खेलमंत्री अजय माकन के नाम खुला पत्र लिखकर अगाह कराया है कि अगर खेलों के प्रति रवैया सुधारा नहीं गया तो भारत की खेल प्रतिभाएं मर जाएंगी। उसने पत्र के जरिए खेल मंत्री को संज्ञान कराया कि गरीब बच्चों को खेलों के जरिए अपनी प्रतिभा निखारने में किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अगर खेल मंत्री उस खुले पत्र को संज्ञान में लेकर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो निश्चित ही आदिवासी क्षेत्रों में व्याप्त खेल प्रतिभाएं निखर कर देश का नाम रोशन करेंगी।
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