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Monday, June 27, 2011

  सीएनटी-एसपीटी एक्ट
जल, जंगल, जमीन के  हक का मामला
राजन कुमार rajan kumar
गत 19 अप्रैल को झारखण्ड प्रदेश जनजातीय परामर्शदातृ समिती की बैठक की गयी जिसमें यह तय किया गया था कि एक महीने के अंदर-अंदर सीएनटी और एसपीटी एक्ट मे संशोधन किया जायेगा। जिससे आदिवासियों मे कुछ प्रसन्नता की लहर दौड़ी थी। लेकिन एक महीने बीत जाने के बावजूद भी सीएनटी और एसपीटी एक्ट पर बैठक नही हुआ जिससे आदिवासी समुदाय को गहरा झटका लगा।
झारखण्ड के आदिवासी समाज के आस्तित्व के संदर्भ मे सीएनटी-एसपीटी एक्ट महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट के आधार पर ही झारखण्ड का निर्माण हुआ है। सीएनटी और एसपीटी एक्ट मे संशोधन की बात पर  सभी दल एकमत नही है जिससे स्पष्ट है कि बहुत दल ऐसे है जो आदिवासियों का विकास नही चाहते। वैसे भी आजादी के बाद से ही आदिवासियों के साथ बर्बरता पूर्वक अन्याय और अत्याचार होते रहे है। उन्हे विस्थापित कर उनकी जमीने जबरन छीनी गयी, जिससे भोले भाले आदिवासी सड़क पर आ गये।
सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट आदिवासियों की सुरक्षा हेतु बनाये गये थे जिससे कि ये अपनी जल, जंगल, जमीन और संस्कृति से जुड़े रहे लेकिन आजादी के बाद इसमें कई बार आदिवासियों के हित के विपरीत संशोधन किया गया, और इनकी जमीने जबरन हथिया ली गयी। किसी भी देश मे विकास का महत्वपूर्ण पहलू होता है कि विकास का सामान अधिकार मिले, सभी का विकास हो लेकिन हमारे देश मे आज आजादी के बाद सातवें दशक मे भी हमारा अनुभव यही जाहिर करता है कि इस नीति से कुछ  लोगों का विकास असंख्य लोगों की कीमत पर हुआ है, खासकर आदिवासियसों की  कीमत पर।
1895 ई0 मे बिरसा मुंडा ने जल जंगल, जमीन की सुरक्षा हेतु अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल फूंका था और खूंटकट्टीदार की जमीन  और वन  अधिकारों पर जमींदार ,  ठेकेदार और सरकार के अतिक्रमण के खिलाफ संग्राम शुरू कर दिया। जिससे बहुत आदिवासी जागृत हुए। इसी के मद्देनजर फादर होप मैन आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा हेतु सरकार को सीएनटी एक्ट का निर्माण करने का सुझाव दिया और 1908 मे छोटानागपुर कश्तकारी अधिनियम का गठन किया गया। इसके अनुसार आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासी नही ले सकता।
आदिवासी भी उपायुक्त की अनुमति से ही जमीन खरीद या बेच सकता है। दिगर किस्म की जमीन का हस्तांरण गैर कानूनी है, हां आदिवासी किसी को भी 7 वर्ष का मुक्त बंधक  दे सकता है, लेकिन 7 वर्ष बीत जाने के बाद खतियानी रैयत के पक्ष मे जमीन निर्मुक्त होने का कानून है। जबकि संथाल परगना अधिनियम आजादी के बाद 1969 मे बनाया गया।
28 दिसम्बर सन् 1967 को  अखिल भारतीय झारखण्ड पार्टी गठित की गयी जबकि जयपाल सिंह मुण्डा के नेतृत्व वाली पुरानी झारखण्ड पार्टी मे 1968 ई0 में काफी फूट पड़ गयी छोटानागपुर के आदिवासियो से अलग होकर संथाल परगना के संथालों ने अपने आप को अलग कर लिया। इस चरण का एक और पहलू हुुआ शिक्षित आदिवासियों के नेतृत्व वाले दलों का उभरना।  ये विकसित हुए जो कि आदिवासी युवकों को प्रशासनिक एवं औद्योगिक  संस्थानों मे रोजगार प्रदान किए जाने की करने के लिए  जो औद्योगिक परिसरों मे केन्द्रीत थे। और इसी के तहत संथाल आदिवासियों के विकास एवं सुरक्षा हेतु सन् 1969 मे संथाल परगना अधिनियम बनाया गया।
आदिवासियों और उनके जमीनों की सुरक्षा हेतु कई नियम , अधिनियम , परिषद बनाए गए। 1951 ई बिहार जनजातीय सलाहकार परिषद बनाया गया, छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम  1908 मे ही बनाया गया था। संथाल परगना काश्तकारी  अधिनियम 1969 मे बनाया गया। ये अधिनियम  आदिवासियों के सुरक्षा को ध्यान मे रखकर बनाये गये।
 छोटानागपुर  संथाल परगना के लिए , इसके विकास के मद्देनजर छोटानागपुर-संथाल परगना स्वायत्त विकास प्राधिकरण 1971 मे बनाया गया। इसके 1974 मे जनजातीय उपयोजना बनाई गयी। 1978 मे झारखंड  विकास परिषद बनाया गया। इसे 1991 मे विधान सभा मे पारित भी कराया गया। आजादी के बाद योजनाबद्ध  विकास से आर्थिक क्षेत्र से विशेषतया उर्जा, खनिज, भारी उद्योग, सिंचाई तथा आधारभूत विकास कार्याें मे क्रांतिकारी प्रगति तो हुई लेकिन  इस प्रगति के लिए उन लाखों लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी , जिन्हे बिना इच्छा के अपनी जमीन और रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा।
आजादी के पहले पांच वर्षों मे  लगभग ढाई लाख लोगों मे से 25 प्रतिशत  लोगों को विस्थापित होना पड़ा, उनका थोड़ा बहुत पुुनर्वास तो किया गया लेकिन वह बहुत ही अपर्याप्त था।  उनके मूलभूत अधिकार जो उनकी जमीनों के साथ जुड़े हुए थे, जैसे जंगल व जंगल उत्पाद तथा जमीन के खुंटकट्टी या कोड़कर जैसे विशेष अधिकार, पुनर्वासित होने पर भी उन्हे प्राप्त नही हो पाए। विकास नीति के निर्धारित लक्ष्य के अनुसार विभिन्न  क्षेत्रो मे बन रही परियोजनाओं के माध्यम से पुरे समाज को  प्रगति की राह पर लाना था, लेकिन हुआ ठीक इसके विपरित।  अमीर और गरीब, साधन- सम्पन्न और साधन-विहिन के मध्य की खाई पटने के बजाये और भी गहरा होता गया। राष्ट्रहित के नाम पर बेशुमार लोगोें की जमीनें  अधिग्रहित कर उन्हे न केवल विस्थापित किया गया बल्कि उनके संदर्भ मे , संविधान मे प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का भी उल्लघंन किया गया।   आवश्यकता  थी कि विकास परियोजनाओं से प्रदेश अथवा क्षेत्र का आर्थिक संतुलन न बिगडे और सभी संसाधनों का लाभ सभी वर्गों को प्राप्त हो लेकिन ऐसा नही । विकास के बदले विशेष क्षेत्रों व प्रदेशों  की जनता का विध्वंस ही हुआ । सरकार  इतने पर भी नही रूकी, उसके द्वारा सन् 1998 मे भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक , पुनर्वास बिल, फॉरेस्ट बिल और बायो डायवसिटी बिल लाए गए।  भूमि अधिग्रहण विधेयक तो इसलिए लाया गया ताकि शासक  वर्ग बहुराष्ट्रीय  कंपनियों को मनचाही जमीन जल्दी से जल्दी उपलब्ध हो सके यानि विस्थापन की प्रक्रिया तेज की जा सके।  छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट जैसे कानूनों के तहत आदिवासियों की जमीन लेने पर रोक थी।  इसके प्रावधानों से मुक्ति पाने के लिए भी सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम मे मनचाहे संशोधन किए, मसलन 1894 के अधिनियम मे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आपत्ति की  अवधि 30 दिन थी, उसे घटाकर 21 दिन कर दिया गया। पहले भूमि- अधिग्रहण के नोटिस की अवधि 6 माह बीत जाने पर नये नोटिस की सीमा 3 वर्ष थी, उसे घटाकर 6 माह  कर दिया।
पहले डुगडुगी  पिटवाकर गांव मे मुनादी  कराई जाती थी ताकि सभी गांव वालों को इसकी सूचना मिल जाये, लेकिन संशोधित अधिनियम मे केवल अखबारों और गजट  से सूचित करने का प्रावधान कर दिया गया है। गजट अखबार गांव के अधिकांश लोग नही पढ़ पाते।
भूमि अधिग्रहण बिल और पुनर्वास  बिल दोनो एक ही मंत्रालय  से निर्गत हुए है , जो एक दूसरे के विपरीत है। एक जनविरोधी है तो दूसरा जन पक्षधर लेकिन इस कानून मे भी विस्थापितों  के पुनर्वास की बाध्यता नही है। ये तथ्य जाहिर करते है कि सरकार अपनी उदार नीति के तहत  बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने मे जल्दबाजी मे जमीनें लेने की हड़बड़ी  मे है, खासकर आदिवासियों की क्यों कि देश के संसाधनों का बड़ा हिस्सा उन्ही के क्षेत्रों मे पड़ता है, जहां आदिवासी बहुतायत मे निवास करते है।
सरकार की भूमि अधिग्रहण बिल और पुनर्वास बिल इन्ही दोनो नीतियों के कारण 1951 और 1995 में झारखंड मे 50 हजार एकड़ भूमि पर 15 लाख लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें लगभग आधा के करीब आदिवासी है। रक्षा परियोंजना मे 89.7 प्रतिशत आदिवासी विस्थापित हुए , जल संसाधन परियोजना मे 75.2 प्रतिशत आदिवासी विस्थापित हुए, कोयला खदानों के लिए हजारों एकड़ जमीन पहले ही नीजि मालिकों ने कब्जा ली उसके बाद फिर सरकार ने कब्जा ली। कोयला के लिए तो सरकार ने एक नया कानून कोल बियरिंग एरिया एक्ट 1957, भी बनाया जिसके तहत वह अधिग्रहित भूमि को  जबरदस्ती भी कब्जे मे ले सकती है। आदिवासियों कई हजारों एकड़ जमीन सरकार ने अधिग्रहण कर लिया, कई लाखों आदिवासियों को सरकार ने विस्थापित कर दिया। लेकिन आदिवासियों के बारे मे नही सोचा गया। उन्हे सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। सीएनटी-एसपीटी एक्ट तो आदिवासियों के जमीनों की सुरक्षा के मद्देनजर सरकार ने ही बनाया था और अपने नीजि लाभ के लिए सरकार ने ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट में झारखंडी आदिवासियों के अहित मे संशोधन किया और मनमाने ढंग से उनके जमीनों का अधिग्रहण किया , उन्हे विस्थापित किया। सरकार का बर्बरता पूर्वक अत्याचार झारखंडी आदिवासियों पर अब भी जारी है। सरकार ने पिछले 10 वर्षों मे कई उद्योगपतियों के साथ 100 से ज्यादा एमओयू(सहमती पत्र) किया है, जिसके तहत एक लाख एकड़ से भी अधिक जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है, इनमे अधिकांश झारखण्ड एवं कई प्रदेशों के आदिवासी बहुल क्षेत्र है। अंग्र्रेजों द्वारा भूमि अधिग्रहण के तहत बनाये गये कानून और भी कड़ा करके स्वतंत्र भारत मे आदिवासियों और उनके जमीनों पर लागू किया जा रहा है, आदिवासी किसानों पर कहर बरपाया जा रहा है, अंग्रेजो की तरह सरकार भी भोले भाले आदिवासियों को बहला फुसला कर , नौकरी की झूठी वायदा करके , बिना सरकारी नोटिस जमीने कब्जे मे ले ली, और खनन कार्य भी हो रहे है। अभी Ñझारखण्ड का निर्माण नही हुआ था तब से और झारखण्ड के निर्माण होने के बावजूद भी आदिवासियों को न्याय नही मिला है। सरकार ने पुनर्वास और नौकरी के किये गये वादे को नजरअंदाज कर दिया, बिहार विधान सभा मे सवाल उठे, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया, छोटानागपुर और संथाल परगना इलाके मे जबरदस्त आंदोलन हुए, तब जाकर सरकार ने तीन एकड़ पर नौकरी और मुआवजे की राशि देने का आश्वासन दिया, आश्वासन के बाद भी ये मामले कई वर्षों तक अधर मे लटके रहे , कुछ विशेष लोगों को तो नौकरी और मुआवजे मिले लेकिन अभी भी एक बड़ा हिस्सा इससे वंचित है। खुले आसमान  के नीचे कठिनाइयों भरा जीवन यापन कर रहा है।
कहा जाता है कि हम लोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है क्यों देश मे बड़े पैमाने पर चुनाव होता है। लेकिन लोकतंत्र का मतलब चुनाव नही होता, लोकतंत्र  का मतलब होता है देश के फैसलों मे जनता की भागीदारी और इस कसौटी पर देखे तो अपने देश मे लोकतंत्र नही है- सीधे, सपाट और किसी आंदोलनकारी के मुंह से निकलने का आभास देते शब्द, लेकिन ये शब्द सवोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज पी.वी. सांवत के है। ज्यूरी ने पिछले साल कहा था कि सरकार नई आर्थिक नीतियों के दौर मे विकास का जो मॉडल अपनाया है उसमे सरकार सक्रिय रूप से जल , जंगल और जमीन जैसे संसाधन बहुराष्ट्रीय कंपनियों   को खनन कार्य और औद्योगिक दोहन के लिए दे रही है जबकि ये संसाधन आदिवासी जनता के जीवन और जीविका के लिए है।
देश मे मौजूद आदिवासियों की तादाद यूरोप के कुछ देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा है जातीय विभिन्नता के एक अहम साक्ष्य के तौर पर देश की मानवता की विरासत है। पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को छोड़ दे तो भी प्राकृतिक संसाधनों को लेने के लिए सरकार पुलिस के सहारे जितनी बड़ी आबादी(आदिवासी) पर जुल्म कर रही है वह लोकतंत्र के इतिहास मे अभूतपूर्व है। अगर हमारा देश वाकई एक लोकतंत्र है तो सरकार को सीएनटी-एसपीटी एक्ट मे संशोधन करते समय आदिवासी हितों को ध्यान मे रख कर संशोधन करना होगा, अगर सरकार ने इस बार भी सीएनटी-एसपीटी एक्ट मे आदिवासियों के विपरीत संसोधन किया तो देश का एक बड़ा हिस्सा हिंसा और आंदोलन करने पर मजबूर हो जायेगा। सरकार ने अपने विकास नीतियों के चलते ही देश के एक बड़े हिस्से को विस्थापित कर दिया है जिससे ये विस्थापित आदिवासी आज तक न्याय नही मिलने के कारण ही हथियार उठाने पर मजबूर हो चुके है सरकार के लिए सिरदर्द बने हुए है।
सरकार अपने हित को ध्यान मे रखकर एक के बाद एक नये नियम बनाती है एक बार कई लाखों लोगों(आदिवासियों) को विस्थापित  कर देती है, अब तो नई नीति के तहत जमीन के बदले  नौकरी देना भी बंद कर दिया है। किसानों के खेत खदानों मे बदल गए, घर-बाड़ी पर बुलडोजर चल गए, महुआ और साल के वृक्ष उखाड़ दिए गए, वनपति से रैयत बना आदिवासी किसान अंतोगत्वा विस्थापित बन गया है, जीने के लिए अपनी ही जमीनों से खतरे उठाकर, कोयला चुराकर बेचने को मजबूर हो गया। गैर कानूनी खदानों के तांते लग गए है, मजदूर बने आदिवासी किसान बेनाम- गुमनाम कोल माफिया के चंगुल मे फंस कर कोयला चुराने लगे। खदानें धांसती रहीं और सैकड़ों की तदाद में वे मरते रहे।
उनकी लाशों को उठाने वाला कोई नहीं क्योंकि जो भी लाश को पहचानता उसे भी चोरी के जुर्म में अंदर बंद कर दिया जाता था। लावारिस लाशें सड़ने लगीं। आज भी कई लाशें उन खदानों में दबी पड़ी हैं, बाहर पत्थरों के बीच उनके जूते-चप्पल, कमीज़ वाट जोह रहे हैं। अच्छा-खासा इज्जतदार, खाता-पीता वनपति आदिवासी किसान, गांवों की सामूहिक जमीन का भागीदार पहले मजदूर बना, फिर विस्थापित और अब कोयलाचोर। उसकी जमीन, जंगल, संस्कृति और भाषा सब खत्म की जा ही हैं और ये सब हो रहा है 'राष्ट्रहित के नाम पर,। ट्रकों में चोरी कर कोयला जाता है, तो कोई नहीं पकड़ता लेकिन साइकिल पर दो टन कोयला लादकर, साठ किलोमीटर घाटी चढ़कर कुजू से रांची पहुंचने वाला मजदूर चोरी के इलजाम में पकड़ कर हवालात में बंद कर दिया जाता है, जबकि उसका पूरा परिवार उसकी इसी कमाई पर निर्भर है।
हाल ही में अपनी औद्योगिक नीति के तहत झारखंड सरकार ने रांची से बहिरागोड़ तक चार लेन की 300 किलोमीटर लंबी एक सड़क बनाने का निर्णय लिया है। इस सड़क के दोनों तरफ 10-10 किलोमीटर तक जमीन अधिागृहित करने की योजना है। ये ज़मीनें आदिवासियों की ही हैं। इस योजना को लागू करने पर अनुमानत: तीन लाख लोग विस्थापित होंगे।
कहां जाएंगे ये लोगक्या करेंगे? सरकार बेपरवाह है, इसलिए अब लोगों ने बंदूकें उठा ली हैं। उधर सरकार की सार्वजनिक सरकारी संस्थाओं के निजिकरण करने की नीति के चलते मजदूरों की भारी छटनी जारी है। झारखंड में सबसे ज्यादा सार्वजनिक संस्थान हैं, जिनमें अकेले कोयला-क्षेत्र में ढाई लाख से ऊपर मजदूर कार्यरत हैं। फलस्वरूप मजदूरों की सबसे ज्यादा छटनी झारखंड में ही हो रही है। आदिवासी यहां कोयला चोरी करने पर मजबूर होकर रोज जेल की हवा खाता है। वह या तो कुली-मज़दूर बन जाता है या फिर कोयलाचोर! और जब ये भी नहीं हो पाता तो लौटकर अपना हिसाब-किताब चुकाने के लिए बंदूक उठाकर जंगलों में चला जाता है, कोई विकल्प नहीं उसके पास। पता नहीं देश और समाज उनकी सुधा कब लेगा? कब कोई विकल्प देगा? देश मे आदिवासियों की मुख्य समस्या विस्थापन रही है। वे पहले भी खदेड़े जा रहे है। ये खदेड़ना सदियों से चालू है, बस केवल रूप या तरीका बदल गया है। वे उजड़ रहे जंगल, जल, जमीन, तीन महत्वपूर्ण मूल अधिकारों से वे वंचित हो रहे है और विडबंना यह है कि ये सब हो रहा उसके विकास या उनकी स्थिती मे सुधार के नाम पर। आज जंगल मे उनके प्रवेश पर रोक है। जिस धरती पर वे बसते है, उसके गर्भ मे खनिज है यानि संपदा  है, उपर नदियां और जंगल हैं। पर वहां उनके प्रवेश पर रोक है। नदियां कोयले की धूल से काली होकर प्रदूषित हो गयी, उनका पानी किसी काम का न रहा , जंगल कट गए, जमीन गढ़ा-पोखर बन गयी, खेत धंस गए, पानी के स्रोत सूख गए या नीचे चले एक और पहुंच के बाहर हो गए।  आग पर बैठा है आज इस क्षेत्र का आदमी। धरती के नीचे आग लगी है, कब धंस जाएगी धरती , पता नही।  व्यवसायीकरण होेने के कारण आदिवासियों को उनके ही जंगल से बर्बरता पूर्वक उजाड़ा गया, इस प्रकार आजादी के बाद की सरकार ने न केवल साम्राज्यवादी सरकार के सिद्धांतो को दोहराया बल्कि उन्हे और भी सशक्त और सबल बनाया जिसका नतीजा हुआ वन मे रहने वाले आदिवासियों  का खदेड़ा जाना, और जंगल पर राज्य के वन विभाग का एकाधिकार स्थापित होना। आदिवासियों के विकास, उनकी भाषा   संस्कृति तथा उनकी पहचान की रक्षा  के केन्द्र मे मुख्यत: जमीन है। झारखण्ड हो या छत्तीसगढ़ या अन्य आदिवासी बहुल प्रदेश, वहां के गरीब आदिवासियों के लिए भूमि का प्रश्न महत्वपूर्ण है। भूमि से संबधित सबसे महत्वपूर्ण समस्या है भूमि का अलगाव। ब्रिटिश शासन द्वारा 1793 की स्थायी बंदोबस्ती के माध्यम से एक नए प्रकार की जमींदारी व्यवस्था आदिवासियों पर  थोप दी गयी थी। इस व्यवस्था के चलते जमीन सामूहिक संपत्ति से एकाएक निजी संम्पति मे तब्दील हो गयी। इस कानून के माध्यम से अंग्रेजो ने  विभिन्न सर्वे सेटलमेंट के माध्यम से भू-रिकार्ड तो तैयार किये , उनका हस्तांतरण जमीन के निजी संपत्ति बन जाने के बाद शुरू हो गया। 1793 से शुरू इस प्रक्रिया ने सामूहिकता पर आधारित आदिवासी जीवन पद्धति को झकझोर कर रख दिया। जिसके फलस्वरूप विद्रोह की भावना बढ़ी, और 1797 मे दुक्खन माझी के नेतृत्व मे मुण्डा विद्रोह हुआ और 1820-21 मे सिंहभूम मे हो विद्रोह। 1831-32 मे पुन: सिंहभूम मे बिंदाराय और सिंह राय के नेतृत्व मे द्वितीय विद्रोह हुआ और 1832 मे ही बुद्धू भगत ने सिल्ली मे विद्रोह किया।
1793 मे बनी जमींदारी व्यवस्था ही आदिवासियों को जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया। जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए बिरसा मुण्डा ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर आगे तक कायम रखा।
ब्रिटिश सरकार ने आदिवासी हितो की रक्षा के लिए सीएनटी एक्ट 1908 तथा संथाल परगना के लिए रेगुलेशन 1872 बनाया। आजादी के बाद यही रेगुलेशन 1949 मे विकसित होकर  एसपीटी एक्ट बना।  1969 मे  अनुसूचित भूमि अधिनियम बनाया गया। लेकिन इन काश्तकारी कानूनों से भी जमींदारी व्यवस्था समाप्त नही हुई।
आजादी के बाद आदिवासियों की रक्षा करने की बजाए भारत सरकार अंग्रेजो द्वारा निर्मित कानून को और सख्ती से लागू करना शुरू कर दिया। सरकार के इस तानाशाही कानून के कारण सिंहभूम मे 1978 मे जंगल आंदोलन छिड़ गया। 1978 और 1985 के बीच बिहार मे 18 पुलिस गोली कांड हुए , सैकड़ो आदिवासियों को उजाड़ दिया गया, हजारों आदिवासियों को झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। 14 अप्रैल  1984 को उच्चतम न्यायालय सिंहभूम द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट के अनुसार 14 हजार आदिवासियों पर 5160 मुकदमे लंबित थे। जिनमे से कुछ 1960 से ही लंबित थे। आदिवासियों के त्रासदी के मुख्य कारण उनके गांवो से विस्थापन और जंगल , जमीन के परंपरागत स्वामित्व से वंचित किया जाना।
1984 मे नेशनल रिपोर्ट सेंसिंग एजेंसी द्वारा किया गया अध्ययन दर्शाता है कि 70 से 80 के दशक तक आते आते भारत मे वनो का  विस्तारण  16.9 प्रतिशत से घटकर 14.1 प्रतिशत रह गया। यानि हर वर्ष औसत 10 लाख 30 हजार  हेक्टेयर वनो का नुकसान  हुआ। बाद मे यह घटकर  केवल 10 प्रतिशत रह गया।  आदिवासी मुख्य रूप से जंगल पर निर्भर रहते हे।  वर्षों से इनके जिवीका का साधन जंगल रहा है। ट्राइबल रिसर्च  एण्ड ट्रेनिंग सेंटर चाईबासा के मैथ्यू अपीपरमपील ने इस कमी को दूर करने के लिए कहा था कि यह तभी संभव  होगा जब आदिवासी वन प्रबधंक मे आर्थिक रूप से साझेदार तथा जंगल के उत्पादकों मे भागीदार बन पाएंगे।
डा0 राय बर्मन के शब्दो में - साम्राज्यवादी  शासन काल मे इस प्रतीकात्मक संबंध को तब गहरा झटका लगा, जब  जंगल को आर्थिक अधिकृत मुनाफे का स्त्रोत मात्र समझा जाने लगा और मानव निवास तथा विस्तृत जीवन परिसर के बीच की जीवंत कड़ी के रूप मे इसे अनदेखा कर दिया गया।
इस प्रकार आजादी के बाद भारतीय शासको ने जंगल को एक मुनाफे की वस्तु बना दिया। और सरकारी अधिकारियों , नेताओं, ठेकेदारों  ने मिलकर बर्बरतापूर्वक उसे बर्बाद कर दिया।  ठेकेदारो द्वारा जंगलों की निर्मम कटाई की प्रतिक्रिया स्वरूप ही उत्तराखण्ड मे चिपको आंदोलन चला, बिहार झारखण्ड मे सखुआ के जंगल काटकर सागवान और सफेदे युकेलिप्टिस के जंगल  लगाने का जबरदस्त विरोध हुआ क्योंकि  मिश्रित जंगल आदिवासियों को रोजगार, पानी और समय से वर्षा से देता है। कटाव का संरक्षण तथा पानी के स्त्रोतां की रक्षा भी करता है। जबकि सफेदे  का जंगल  पानी के स्त्रोत को  सूखा देता है। सखुआ का पेड़ अकाल मे भी उनके जीवन की रक्षा करता है, उसके बीजों से पेट भरकर वह जिंदा रहता है, बीड़ी पत्तों के पेड़ उसे रोजगार देते है। कुसुम के बीज तेल देते है तो महुआ के फल और फूल भोजन और पेय  दोनो, उसकी गुठली  तेल मुहैया करती है। पलाश का पेड़ गोंद और रंग देता है। जबकि जंगल माफिया, सरकार और व्यापारी कीमती पेड़ो को काटकर उंचे दामो पर बेचते है। पेड़ काटने के आरोप मे आदिवासी दण्ड भरता है या जेल जाता है।
सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी जमीन के मालिक बनने के बजाय पहले मजदूर बने, फिर बंधुआ मजदूर। पहले वे वनपति , भूमिपति और किसान थे। उनके अपने खेत थे, जिन पर सामूहिक खेती होती थी, परस्पर सहयोग से झूम की खेती होती थी। व्यक्तिगत संपत्ति शब्द से वे अनजान थे। आजादी के बाद विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनी, जिनके घर उजड़े, जिनके खेत और गांव डूबे, वे आदिवासी कही स्थाई रूप से बस नही पाए।
अंग्रेजो के समय मे बने सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे  बदलाव समय की मांग है।  1908 और 2011 के समय मे बहुत अंतर है। पहले के झारखण्ड मे और सन् 2000 मे बने झारखण्ड राज्य मे अप्रत्याशित बदलाव आया है।   पहले आदिवासी मुख्य रूप से जल, जंगल , जमीन पर आश्रित था लेकिन समय और समाज के बदलते परिवेश के चलते आदिवासियों के भी विचार मे बहुत परिवर्तन आया है। आज का आदिवासी समाज भी जमाने के मद्देनजर अपने आप को बदलना चाहता है। अपने संस्कृति के साथ-साथ अपने आप को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना चाहता है। जिसके लिए (रोजगार)आदिवासी राज्य के विभिन्न हिस्सों मे जाकर बसना चाहता है। 1908 के बहुत सारे थाने आज जिला बन चुके है। जबकि सीएनटी एक्ट मे किसी जनजातीय परिवार की जमीन खरीदने  का हक केवल उसी थाना क्षेत्र  के जनजातीय  परिवार को दिया गया है।  आदिवासियों के परिवार बढ़ चुके है, जरूरतें बढ़ चुकी है। इन सभी बातों को ध्यान मे रखते हुए सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट की मूल भावना को सुरक्षित रखते हुए अपेक्षित करना चाहिए। जिसके तहत आदिवासी राज्य के किसी भी जा कर बस सके। अपने जमीनों को पूरे राज्य के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को बेच सके।
संथाल परगना एवं छोटानागपुर परगना काश्तकारी कानूनों को बनने के बाद भी भूमि का हस्तांतरण कानूनी एवं गैर कानूनी , दोनो ही तरीकों से जारी है। संथाला परगना के मुकाबले छोटानागपुर मे आदिवासियों  के हाथों से जमीन का छीना जाना आसान रहा है और अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े पैमाने पर हुआ है। जिस प्रकार  सन् 1949 के संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम  मे गैर कानूनी तरीकों से हस्तांतरित जमीन  की वापसी  पर से समय सीमा खत्म कर दी गयी उसी प्रकार छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम  मे भी कम से कम आदिवासियों  की गैर कानूनी तरीके से हस्तांतरित जमीन  की वापसी पर भी समय सीमा हटाये जाने की जरूरत है।
आदिवासी समाज ने बहादुरी की विरासत अपने पूर्वज से पाई है। झारखण्ड राज्य की लड़ाई मे जाने क्यों इनके नेता कामयाब मुहिम  चलाने के बाद भी उसे अंजाम नही दे पाए।  अपनी लड़ाई  छोड़कर सत्ता से सुलह करते रहे । वे बिक गए या डर गए,  उसी का फल है कि वृहत्त राज्य से घटकर एक छोटा राज्य तो बना झारखण्ड लेकिन यह आदिवासियों के आधार पर नही बना। वह बना क्षेत्रियता के आधार पर, झारखण्डी संस्कृति के नाम पर  जिसके  नाम पर  बहुत से छद्म  झारखंडी घुस गए और घुस गए वे जिन्होने आदिवासियों की जमीनें  हड़पी थी, जिन्हे आदिवासी दिकु कहते है। आज उन्हीे के कब्जे मे चला गया है झारखण्ड । तब कौन लाटाएगा जमीन? सत्ताधारी आदिवासियों के विकास के लिए नही बल्कि क्षेत्र और जातीय आधार पर अपने वोट बैंक सुरक्षित कर , आदिवासियों को विस्थापित करने पर तुले है।
 अपने ही घर मे आज बेगाना है आदिवासी, परदेशी बन गया है, अल्प संख्यक हो गया है, माओवादी-नक्सली बन गया है।  छोटानागपुर और संथाल परगना के टेैनेंसी  एक्ट मे बदलाव लाकर, बड़ी-बड़ी कंपनियों को जमीन देने की योजना बनाई जा चुकी है। फिजी जैसी हालत हो गयी है झारखण्ड की।
आदिवासियों द्वारा देश के विभिन्न भागों मे अनेक अभियान चलाये गये। इनमे से अधिकांश आंदोलन , विस्थापन या भूमि से उनका कब्जा छिनने , साहुकारों एवं जमींदारों द्वारा कानूनों को अपने फायदे के लिए दुरूपयोग करने से उत्पन्न असंतोष से पैदा हुए। कहीं अधिक तो कहीं कम, पर सब जगह विद्रोह हुए। अपने जमीन के लिए लड़ रहे आदिवासियों को नक्सली और माओवादी बना दिया गया, उनका एनकाउंटर कर दिया गया। उनपर बर्बरता पूर्वक अत्याचार किया गया।
निश्चय ही आदिवासी लोगों को वह सब कुछ प्राप्त कराया जाना चाहिए, जो मूल रूप से उनका था पर जिन्हे गैर जनजातीयों  के शोषण के कारण उससे वंचित होना पड़ा।  1908 मे बने सीएनटी एक्ट प्रभावकारी हो सकता है लेकिन कानून बना देने से ही सब कुद ठीक  नही हो जाता और न ही कानून के उल्लंघन करने वालो को रोका जा सकता है। इस कानून का मतलब है पूर्व मे , जिस तरह  आदिवासियों  की जमीने छीनी या हड़पी  गयी है  और आने वाले कल मे भी   छीनी जा सकती है, इस पर राक लगे।
क्या कानून बना देने से ही भूमि  के हस्तांतरण पर रोक लग गयी? सच तो यह है कि कानून  बनाने वाले ढांचे की इच्छाशक्ति और ईमानदारी न होने के कारण इन कानूनों के रहते हुए भी आदिवासियों  की जमीने हस्तांतरित होती रही है। वास्तव मे शुरूआत  ही गलत रही है। सिर्र्फ कानून बना देना किसी समस्या का इलाज नही है दरअसल सीमित  अर्थों मे ही आदिवासी हितों  की रक्षा  करने वाले  कानूनों  की हिफाजत तथा इनके  प्रभावी अमल के लिए कभी भी  कोई कठोर प्रशासनिक उपाय या प्रयास  सरकार ने नही किया। बल्कि अभी तक तो शोषक वर्गों द्वारा ही पुलिस एवं प्रशासन का इस्तेमाल इन कानूनों को निष्प्रभावी बनाने एवं विफल करने के लिए किया जाता रहा है।  यहीं कारण है कि सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे संशोधन की बात पर सभी दल एकमत नही है। लेकिन समय की मांग के मद्देनजर आदिवासी हित को ध्यान मे रखकर सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट मे संशोधन जरूरी है।

Sunday, June 26, 2011

बंद चाय बगान के आदिवासियों के लिए पैकेज
राजन कुमार rajan kumar
पश्चिम बंगाल की नवनिर्वाचित सरकार ने राज्य के आदिवासियों के प्रति अपने विशेष चिंता  प्रदर्शित करते हुए  आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए  सुलभ मूल्य पर चावल की आपूूर्ति हेतु 156 करोड़ रूपयों की राशि आवंटित करने की घोषणा की है। आदिवासियों के प्रति मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विशेष रूप से चिंतित है तभी तो उन्होने उत्तर बंगाल के 16 बंद चाय बगानो के  बेरोजगार परिवारों के लिए खाद्य मंत्री ज्योति प्रिय मलिक को विशेष रूप से निर्देष दिया है कि वे आगामी 30 जून के अंदर उत्तर बंगाल के बंद चाय बगानों का दौरा करके सरकार को रिपोर्ट पेश करें। सरकार द्वारा आवंटित उपरोक्त राशि  के तहत बीपीएल  एवं अन्नपूर्णा और अन्त्योदय  कार्डधारियों को दो रूपया प्रति किलो के दर से चावल उपलब्ध किया जायेगा। एवं इस उद्देश्य से अगले तीन माह के लिए 1 लाख 22 हजार 256 मैट्रिक टन चावल खरीदा जायेगा। उधर केन्द्र सरकार द्वारा उसी अनुपात में फुड कार्पोरेशन आॅफ इण्डिया द्वारा चावल की आपूर्ति करने की घोषणा की गयी है। 
16 बंद चाय बगानो के बारे में उपलब्ध जानकारी पर वर्तमान सरकार को भरोसा नही है क्यो कि ये सूचना  पूर्ववर्ती सरकार द्वारा संकलित की गयी थी।   इनमे से 15 चाय बगान जलपाईगुड़ी जिले मे और एक चाय बगान दार्जलिंग जिले में अवस्थित है। एक मोटे अनुमान के साथ इन चाय बगानो में 50 हजार  से ज्यादा आदिवासी श्रमिक परिवार  के पास जीविका का कोई साधन उपलब्ध नही है। रोटी और भोजन  की बात तो दूर इन बंद चाय बगानो में  पीने का पानी भी  उपलब्ध नही है, ना ही परविारों को आवासीय सुविधा या बिजली  उपलब्ध है। अत: मुख्यमंत्री ने  बंद चाय बागानो की दुरावस्था पर आवश्यक कदम उठाने का निर्णाय लेकर सराहनीय कार्य किया है। 
प्रश्न उठता है कि उपरोक्त 16 चाय बागान  क्यो बंद हैं  और  इनकी  विषय में राज्य सरकार के श्रम विभाग द्वारा आज तक क्या कार्रवाई की गयी है। क्या कारण है कि चाय बगान के मालिकों द्वारा  जब कभी भी चाय बगान में ताला बंदी की घोषणा  कर दी जाती है यह ताला बंदी का नोटिस चिपकाकर चाय बगान के मालिक या मैनेजर  रात के अंधेरे मे चाय बगान  छोड़ कर  भाग जाते है।  और चाय बागान  के मजदूरों  के वेतन , राशन, पानी, बिजली, दवा, के लिए किसी तरह की व्यवस्था नही की जाती है।  बंद चाय बागानों के बारे में राज्य सरकार को ठोस एवं कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है।  ठोस कानूनी कार्रवाई  द्वारा चाय बागान मालिकों को  सतर्क कर देने की आवश्यकता है, कि वे  मनमाने ढंग से चाय बागान बंद करके  न भाग सके।  बंद चाय बागानों को अविलम्ब  खुलवाने की दिशा में भी राज्य सरकार को आवश्यक कानूनी एवं शासकीय कार्रवाई करने की आवश्यकता है। 
नवनिर्वाचित सरकार पश्चिम बंगाल में नये उद्योगों के स्थापना के लिए  उत्सुक एवं सक्रिय  है।  तो जो पुराने उद्योग हैं और  विशेषकर उत्तर बंगाल का एकमात्र उद्योग चाय बगान है।  उनका पुनर्उद्धार एवं विकास के लिए सरकार को आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए।
नवनिर्वाचित सरकार के सामने बंद चाय बागान एक चुनौती है जो उद्योगों के विषय में सरकार नीति  और कार्यक्रम  को  उजागर करेंगी। 
उसी तरह जंगल महल में पश्चिम मिदनापुर जिला के 13 ब्लाक  और बाकुड़ा जिले के 5 ब्लाक  एवं संपूर्ण पुरूलिया जिला में जनसंख्या पर गौर किया जाये तो यह भी आदिवासियों की जनसंख्या 35 प्रतिशत से ज्यादा है।  और इनके साथ है कुर्मी महतो सम्प्रदाय के लोग  जिनकी संख्या 30 प्रतिशत है।  कुर्मी महतो एवं आदिवासी   की भाषा एवं संस्कृति  में एक रूपता है।  इनकी भाषा संथाल, मुण्डारी , कुर्माली , कुड़ुख  इत्यादी है। उल्लेखनीय है कि 1935 तक  कुर्मी महतो समुदाय भी अनुसूचित जनजाति में शामिल था।  सरकारी अवहेलना के  कारण  जंगल महल  का यह  कुर्मी महतो एवं आदिवासी  समुदाय  आर्थिक दृष्टि से  पिछड़ा रह गया। हर्ष का विषय है कि  नई सरकार ने जंगल महल के  आदिवासियों के विकास  के लिए  विशेष पैकेज  की घोषणा करके   उनका  ध्यान रखा। 
 गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्तर पर  अनुसूचित जातियों, जनजातियों  पिछडे  वर्गों  , अल्पसंख्यकों , महिलाओं  आदि के उन अधिकारी  की बहाल करने का जिक्र नही है जिनमें एक  के बाद एक सरकार घेर तिरस्कार का रवैया  अपनाए रही।  यहां तक कि  उपेक्षित  वर्गों की सत्ता में आनुपातिक  हिस्सेदारी देने वाले संवैधानिक  प्रावधानोंं की भी ठीक से  लागू नही किया गया।  जिसका फलस्वरूप  आज भी सरकारी नौकरियों  मे 2006-07 की कार्मिक विभाग की रिपोर्ट के  अनुसार  श्रेणी एक और दो में अनुसूचित जातियो का प्रतिशत 11.9 और 13.7 ( कुल 16 .00 ) की तुलना में   अनुसूचित जातियों को  4.3 और 4.5 (7.5 की तुलना में )  रहा है। 
इन उपेक्षित वर्गोंं की समस्याओं का  आकलन  केवल राशन कार्ड , बीपीएल कार्ड  , एवं  मनरेगा,  योजनाओं के संन्दर्भ में  होता है।  इस का उद्देश्य इन उपेक्षित वर्गों को  भीखमंगे पन के स्तर पर   ( रोजाना 20 रूपयें ) किसी तरह  जिंदा रखना  है।

Saturday, June 11, 2011