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Wednesday, October 10, 2012


पत्थर जैसी जिंदगी
Rajan Kumar
दिल्ली में घरेलू कामगार के रुप में कार्यरत लाखों आदिवासी महिलाओं की हालत इतनी बद्त्तर है कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। आदिवासी का जंगल, जमीन सिकुड़ने लगा है, नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है, खाने के लाले पड़ चुके है। ऐसी परिस्थिति में 10-12 साल की लड़कियों से लेकर बड़ी उम्र की लड़कियां तक दिल्ली समेत विभिन्न महानगरों में काम की तलाश में मजबूरन पलायन कर रहीं हैं। ना कोई हाई क्वालिफिकेशन है, ना ही कोई टेक्निकल जानकारी, सिर्फ घरेलू काम की जानकारी रहती है, काम भी वहीं मिलता है। लेकिन इतनी शोषण और विवशता के साथ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अनेको तो10-12 या 15 साल की नाबालिग लड़कियां, जो सिर्फ काम करती हैं, खाती है, पहनने को कपड़ा मिल जाता है, इतना ही पाकर खुश हो जाती है। महीने-दो महीने पर मालिक 500 या 1000 रुपया दे देता है, जिसे वे घर भेज देती हैं। लगभग-लगभग सभी घरेलू कामगारों की यहीं स्थिति है। जगह-जगह प्लेसमेंट एजेंसी खुल चुकी हैं। कोई आदिवासी संस्कृति, आदिवासी महानायकों के नाम पर अपनी प्लेसमेंट एजेंसी का नाम रखकर इन आदिवासी घरेलू कामगारों को लूट रहें हैं तो कुछ प्रसिद्ध चर्च और ईसाई महापुरुष का नाम रखकर अपनी प्लेसमेंट एजेंसी चला रहें हैं।
ये प्लेसमेंट एजेंसी इन नाबालिग-बालिग लड़कियों को किसी भी घर में काम पर लगा देते हैं, महीने की पूरी सैलरी खुद डकारते हैं। हजार-पांच सौ उनके घर भेज देते है। घरेलू कामगारों के घरवाले भी खुश, प्लेसमेंट एजेंसी वाले भी खुश, घरेलू कामगारों को तो खाने पहनने को मिल ही रहा है। आदिवासी संस्कृति, आदिवासी महानायक और प्रसिद्ध चर्च के नाम पर चलने वाले इन प्लेसमेंट एजेंसी वालों पर न तो कोई चर्च कार्रवाई करता है, न तो कोई आदिवासी समाजसेवी, और न ही स्थानीय पुलिस या सरकार। कोई भी इन घरेलू कामगारों की खोज-खबर नहीं लेता और धीरे-धीरे इनकी जिंदगी सरकती हुई ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है जहां इनको आगे जींदगी के लिए किसी के सहारे की जरुरत महसूस होती है। लेकिन करें भी तो क्या, घरवालों क्या फिक्र, पैसा आ ही रहा है। कौन करता है इनकी शादी की फिक्र। 10-12 की लड़कियां नाबालिग से बालिग होती हैं, फिर बालिग से बूढ़ी हो जाती है, और बिना शादी के ही पूरी जिंदगी गुजर जाती है। जब ये घरेलू कामकाजी महिलाएं जीवन की आखिरी पड़ाव पर पहुंचती हैं तो इनकों किसी के सहारे की कमी खलती है, जिसके बारे में वे पहले कभी सोची तक नहीं।
अगर कोई भूल-चूक से किसी गैर आदिवासी से शादी करके जब घर पहुंचती हैं तो उनका समाज उन्हे समाज और घर से बहिष्कृत कर देता है। जबतक वह पैसा भेजती है, बाप-भाई शराब पीने में एक दूसरे से मुकाबला करते है। शराब के नशे में उसकी शादी, उसका जीवन सब कुछ भूल जाते हैं। इन घरेलू कामगार महिलाओं की जिंदगी भी क्या खूब जिंदगी है। जब तक जान थी, तब तक होश नहीं था, जब होश आया तो उम्र ढल चुकी है। कहने के लिए मां, बाप, भाई। किसी ने भी इन बेचारी की फिक्र नहीं की। प्लेसमेंट एजेंसी वालों ने लूटा, भाई-बाप ने इनके पैसे से ऐश किया, अब तो हाथ में कुछ पैसा भी नहीं है। कैसे कटेगी जिंदगी? कौन जाने?
विवशताओं के कारण शहर पहुंची इन महिलाओं की आज हालत इतनी दयनीय है कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर सिर्फ दिल्ली की बात करें तो यहां पर लगभग 15 लाख से भी ज्यादा घरेलू कामगार महिलाएं काम कर रही हैं। इसमें सत्तर प्रतिशत महिलाएं शायद ही घर जाएं, 60 प्रतिशत महिलाएं अविवाहित ही रह जाएंगी, क्यों कि इनकी उम्र इतनी ढल चुकी है कि शायद ही कोई शादी करे इनसे। आखिर इनकी जिंदगी इतनी कठोर कैसे हो गई और इनके इस कठोर जिंदगी का कौन जिम्मेदार है?
-राजन कुमार