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Saturday, December 3, 2011

 कथनी  कुछ करनी  कुछ 
Rajan Kumar
 हमारे नेतागण भाषणबाजी में माहिर हैं। उनकी बातें बहुत प्यारी लगती हैं। उनके भाषण को सुनकर मन मयूर नाच उठता है कि चलो अब शायद समस्याओं का अंत हो जाएगा, क्योंकि मंत्री जी के समझ में सारी बात आ गई है, लेकिन परिणाम  वही ढाक के तीन पात। देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा नक्सलवाद से जूझ रहा हैं और इसे खत्म करने के लिए तरह-तरह के उपाय सोचे जा रहे हैं, फिर भी इसे खत्म नहीं किया जा सका है। जबकि सभी मंत्री और अधिकारी इसे खत्म करने का मूल मंत्र ‘‘नक्सल प्रभावित क्षेत्र का चहुंमुखी विकास’’ का राग अलाप चुके है। पिछले दिनों जब पश्चिम बंगाल में ममता ने सत्ता संभाला तो घोषणा की कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए विकास का रास्ता अपनाया जाएगा। आखिरकार सरकार को विकास के बजाय बंदूक का सहारा लेना पड़ गया। इसी तरह पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने भी घोषणा किया था कि मओवादिओं से निबटने के लिए  बंदूक नहीं विकास का रास्ता सही है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले में पिछले साल नक्सली हमले कि एक घटना में 76 सुरक्षा कर्मी मारे गए थे। फिर भी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा था कि अकेले सैनिक कार्रवाई से नक्सलिओं पर विजय नहीं मिलेगा। उनके मुकाबले के लिए हमें तीर और तलवार नहीं शिक्षा, इलाज, कृषि और विकास का हथियार अपनाना होगा। हमें शिक्षा, चिकत्सा और विकास के रास्ते उनका ह्रदय जीतना होगा। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भूमि सुधारों पर भी जोर दिया।

माओवादियों की पीठ पर सवार होकर मां माटी मानुष का नारा देकर पंश्चिम बंगाल की सत्ता में बड़ा उलटफेर करने वाली ममता बनर्र्जी अब पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर आ गई है। ‘‘गणतंत्र अधिकार बचाओ’’ संघ को रैली की इजाजत न दिए जाने पर बुद्धिजीवी वर्ग इतना नाराज है कि तृणमूल की ममता बनर्र्जी सरकार को फासीवादी तक कह दिया। पूर्ववर्र्ती वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ संघर्ष के दिनों में ममता बनर्र्जी का साथ देने वाली सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने 21 नवंबर को पश्चिम बंगाल सरकार को 'फासीवादी' करार दिया। महाश्वेता ने यह टिप्पणी तब की जब लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संघ (एपीडीआर) को कोलकाता के केंद्रीय इलाके में स्थित मेट्रो चैनल में रैली करने की अनुमति नहीं दी गई।
अपने उपन्यास '1084 की मां' के लिए चर्चित एवं मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित लेखिका ने कहा कि वाम शासन के दौरान मैंने उसकी अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध किया था, लेकिन अब मैं देख रही हूं कि नई सरकार विरोध के स्वर को दबाने का प्रयास कर रही है। मैं इसकी निंदा करती हूं..हम कहीं फासीवादी युग में तो प्रवेश नहीं कर गए हैं? उन्होंने कहा कि आजादी के बाद 64 वर्षों में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यह फासीवाद के अलावा और कुछ नहीं है, हम फासीवाद का समर्थन कैसे कर सकते हैं? महाश्वेता ही नहीं, अभिनेत्री अपर्णा सेन, नाटककार विभास चक्रवर्र्ती,
सुमन मुखोपाध्याय, लेखिका सुचित्र भट्टाचार्य, गायक प्रतुल्ल मुखोपाध्याय, कवि शंख
घोष सहित कई और बुद्धिजीवियों ने पश्चिम बंगाल सरकार के इस कदम की तीखी आलोचना की।
मसला  जंगलमहल (वनक्षेत्र) में माओवादियों के विरुद्ध अभियान का है। यह रैली दरअसल इन्हीं मांगों को लेकर आयोजित की गई थी, जिसका मकसद जंगल महल के माओवादियों के विरुद्ध कारर्वाई करने से पहले जंगलमहल के विकास पर ध्यान दिया जाए। बुद्धिजीवियों का कहना है कि  हम लोगों ने चुनाव से पहले ममता बनर्र्जी के समर्थन में रैलियां निकाली थीं और हम तृणमूल की सरकार बनाने में ममता बनर्र्जी की मदद भी किए ताकि राज्य के कई ज्वलंत मुद्दों का समाधान हो सके, जंगलमहल का विकास हो सके, लेकिन ममता बनर्जी ने सरकार बनने के 6 महीने बाद ही अपना असली चेहरा दिखा दिया।
गौरतलब है कि ममता बनर्र्जी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राष्ट्रपति प्रतिभा पािटल समेत देश के नेता, केंद्रीय मंत्री और बुद्धिजीवी वर्ग भी यह स्वीकार कर थक चुके हैं कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों मे विकास नही होने के कारण ही नक्सलवाद पनपा है। फिर यह समझ में नही आ रहा ममता जंगलमहल में विकास की आंधी चलाने से पहले नक्सलियों के विरुद्ध कारर्वाई क्यों कर रही हैं? ममता तो जंगलमहल के विकास के लिए केंद्र से लेकर राज्य तक एक कर दिया ताकि जल्द से जल्द जंगलमहल में विकास की रोशनी आए, लेकिन अचानक उनकी भावनाएं और रवैया बदल कैसे गया? यह विचारणीय तथ्य है। जंगलमहल मेें माओवादियों से ममता ने शांति बनाए रखने के लिए अपील की, लेकिन भूख से मरते ये लोग कब तक शांति कायम रखें। ज्वलंत मुद्दों का त्वरित निपटारा और क्षेत्र का विकास करके ही शांति की अपील की जा सकती हैै। जबकि ममता बगैर कोई विकास कार्य किए ही उनसे शांति की अपील कर रहीं है और वे वहां भूखे मर रहें है। हकीकत तो यह है कि इन क्षेत्रों के  आदिवासियों के पास खोने को कुछ भी नही है। इन क्षेत्रों में खाना तो दूर, पीने का पानी तक सरकार मुहैया नही करा सकी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी। इसके लिए इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली तो यहीं बताता है कि इलाके में यह नए दौर के जमींदार है। जिनके पास सब कुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सब कुछ, जबकि गांव के कुओं में सीपीएम काडर केरोसिन तेल डाल देते है, जिससे गांववाले पानी ना पी सके। और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं   है, सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। जंगल-गांव की तरह यहां के आदिवासी रहते है। यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इनके भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना या किसी सरकारी अधिकारी को नफरत की नजर से देखते हैं। क्योंकि पिछले 30 वर्षों में यहां आदिवासी भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख 74 हजार से बढ़कर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। विकास तो यहां सपना है। क्या ऐसे में शांति की संभावना की जा सकती है?
जंगलमहल में सुरक्षा बलों को तैनात करने से पहले केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी कहा था कि युद्ध के द्वारा नक्सलियों को समाप्त नही किया जा सकता। जबकि पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग भी ममता के इस कदम को पूरजोर विरोध कर रहें है। ममता तृणमूल कार्यकर्ताओं की हत्या से बदले की भावना से चूर हो चुकी है और जंगलमहल के धरती को फिर एक बार लाल करना चाहती है। अगर माओवादी जंगलमहल में तृणमूल कार्यकर्ताओं की हत्या कर रहें है तो इसका मतलब यह नही कि ममता इसके लिए जंगलमहल के आदिवासियों को खतरे में डाल दें और आदिवासी खुलेआम नक्सलियों और सुरक्षाबलों के गोलियों का निशाना बने। ममता बनर्र्जी को चाहिए कि वे सुरक्षा बलों को जनता की सुरक्षा में लगाए और जंगलमहल के विकास पर जोर दें। माओवादी किसी की हत्या भी नही कर पाएंगे और विकास से जंगलमहल के आदिवासी सरकार के विश्वास में आएंगे।