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Sunday, February 13, 2011

लुटते रहे भोले भाले आदिवासी
संसद में आदिवासी कोटा मे 42 एमपी रिजर्व सीट से चुने जाने के बावजूद आदिवासियों के लिए कोई आवाज नही उठाता
राजन कुमार
आदिवासी बहुृत भोलेभाले और सीधे किस्म के इंसान होते हैं। इनके इसी भोलेपन का भरपूर फायदा नेता और अधिकारी उठाते है। आदिवासी लोग जन्मो-जन्मांतर से भारत मे रह रहें हैं। और आदिवासी ही देश के असली नागरिक है।  इन्हे अपने संस्कृति और अपने देश से बहुत ज्यादा लगाव होता है।  अगर कहा जाये कि वन, पर्यावरण, जानवर और भूमि के संरक्षक आदिवासी ही है तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी।  ये जन्मों-जन्मांतर से अपने देश के पर्यावरण, वन , जानवरों एवं भूमि की रक्षा कर रहे है। लेकिन आज के समय मे इनकी वनें, भूमि और जिवीका खतरे मे है।  भारत सरकार, स्थानीय अधिकारी और नेता इनकों अपनी भूमि, वन, और जीविका से बेदखल कर देना चाहते है।  आदिवासियों पर किये गये अत्याचार ये आदिवासी लोग बहुत  जल्दी ही भुल जाते है।  अधिकारी इन आदिवासी जनता पर अत्याचार करते है। फिर तुच्छ (बहुत मामूली) प्रभोलन देकर अपने वश मे कर लेते है, उसके बाद इनसे अपना कार्य करवा कर इनका फायदा उठाते है। नेता आदिवासियों से झृठे-झूठे वादे करते है। इनकी वोट लेते है, इनकी मदद लेते है, और तो और इनसे अपनी आर्थिक स्थिती भी मजबूत करते है। जब नेता चुनाव जीत जातें है तो इन आदिवासियों के एहसानों को भूल जाते है और इन आदिवासियों का शोषण करते है। जबकि नौकरशाह भी इनकी संपत्ति (वन, पर्यावरण, भूमि ) लूटने मे र्को कसर नही छोड़ते। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन समेत कई देशों मे इन आदिवासियों (रेड इंडियन) को मारकर खत्म कर दिया गया। जो कहीं बच गये  वो आज भी अपने संस्कृति से जुड़्े है और अपने संस्कृति की हाव-भाव एव देश से सच्चे दिल से लगनशील है। ये कत्तई बेइमान नही होते। ये किसी के भी धन-संपत्ति के तरफ ध्यान भी नही देते। फिर भी इनकी संपत्ति ( वन, भूमि ) को हर कोई हड़पना चाहता है। जो कि सरासर अन्याय है। भारत या किसी भी देश की सरकार संविधान, नियम, कानून बनाये। जिससे समाज के सभी वर्ग के लोगों का भला हो सकें, लेकिन इस संविधान, कानून और नियम से अभी तक इनकों कोई लाभ नही पहुंचा। जहां तक इनकों हाशिए पर ही धकेला गया है। इनका शोषण किया जाता ह। आदिवासियों का शोषण आज से नही, बहुत पुराने समय से होता चला आ रहा है। जिसका उल्लेख पुराणों और ग्रंथो मे मिलता है। महाभारत मे एकलव्य के साथ अन्याय हुआ तो रामायण मे आदिवासियों को  वानर और भालू की संज्ञा दी गयी। महाभारत मे द्रोणाचार्य ने एकलव्य से बर्गर धर्नुविद्या सिखाये उसका अंगूठा मांग लिया, वो भी दाहिना हाथ का अंगूठा जिससे कि एकलव्य कभी भी अच्छा धर्नुधारी न बन पाये। द्रोणाचार्य का एकलव्य के साथ यह बर्ताव  सबसे घटिया, घिनौना और कायरतापूर्ण था। जबकि एकलव्य ने अपने सच्चाई, भोलेपन और महानता का परिचय देते हुए तुरंत अपना दाहिना अगूंठा द्रोण को गुरू मानकर सौंप दिया था। भगवान राम की सहायता करने वालें आदिवासियों को वानर और भालू की संज्ञा दी गयी। उनकी पूंछ बना दी गयी। आदिवासियों को मानव जाति के लायक ही नही समझा गया। और ये वानर भालू की सेना कहलाये।  अगर भगवान राम की सेना मे सच मे भालू-वानर थे तो वो वानर-भालू आज क्यों नही अपने देश के लिए लड़ते। मानवों की भाषा क्यों नही बोलतें, क्यों नही एक दुसरे शादियां रचाते। अगर जामवंत भालू  थे तो क्या श्रीकृष्ण किसी भालू की संतान(पुत्री जामवंती) भालू से शादी करते। आदिवासियों के साथ आदिकाल से हो रहे अन्याय आज जारी है। यह तथ्य बहुत ही चिंताजनक और निंदनीय है। आदिवासियों को जगंलो से प्यार है और हमेशा से जंगलो मे रहें है। और इनकी पूजा किए है। पहले राजाओं का शासन होने के कारण उनक साथ अन्याय हुआ और आज लोकतांत्रिक शासन होने के बावजूद इनके साथ अन्याय किया जा रहा है। आदिवासियों से अत्याचार, अन्याय कोई एक वर्ग नही बल्कि केन्द्र सरकार से लेकर (ग्रीन हंट अभियान चलाकर, पर्यावरण विरोधी कंपनियों को आदिवासियों के जमीन पर कंपनी स्थापना करने की अनुमति देकर) से लेकर राज्य सरकार, अधिकारी, नेता और निम्न स्तर पर सामाजिक वर्ग के लोग कर रहें है। ग्रीन हंट का मतलब जंगलीजातियां(आदिवासी) का शिकार करना। यह अभियान केन्द्र सरकार की तरफ से चलाया गया है। लेकिन इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नही कर रहा है। ग्रीन हंट अभियान बहुत पहले अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन समेते कई देशो मे चलाये जा चुके है। भारत के लगभग 90 प्रतिशत  खनिज पदार्थों से भरी जमीन के मालिक ये आदिवासी है। इन्ही के जमीनो मे खनिज पदार्थ है। इनको इनके जमीन से बेदखल करके तरह-तरह के अभियान चला कर के इनकी जमीन हड़पी जा रही है। जबकि जन्मो-जन्मांतर से आदिवासी इस खनिज भरे जमीन और जंगल की रक्षा करते आ रहें है। इनके जमीन पर सरकारी-गैर सरकारी कंपनियां स्थापित की गयी और की जा रही हैं। लेकिन इन कंपनियों मे आदिवासियों के लिए थोड़ा सा भी आरक्षण नही है। आज भी बहुत आदिवासी जातियां कई क्षेत्रों मे खनाबदोशो की तरह जीवन यापन कर रहीं है।  आदिवासियों के 42 एमपी रिजर्व सीट से हैं जबकि अन्य सीटों के भी आदिवासी सांसदो को मिलाया जाये तो लगभग 50 से ज्यादा एमपी आदिवासियों के होंगे। इसके बावजूद कोइ भी आदिवासियों के लिए आवाज उठाता और सरकार आदिवासियों के साथ मनमानी करती रहती है। डेढ़ लाख से ज्यादा पढ़ी लिखी अविवाहित लड़कियां  दिल्ली मे लोगों के घरों मे बर्तन धोन और घर की सफाई करने पर मजबूर है। इन लडृकियों  को इनके क्षेत्र मे स्थापित कंपनियों मे काम नही दिया जाता है और ये भोली-भाली लड़कियां जालसाजों के बातों मे फंस जाती है और दिल्ली चली आती है जहां पर जालसाज इन्हे बेच कर चले जाते है और इनके साथ हर रोज अन्याय और बलात्कार होता रहता है। बीते दिनों ही  निम्न स्तर पर भी आदिवासियों से अत्याचार के कई मामले चर्चा मे आये है। बीते महिने महाराष्ट्र मे आदिवासी महिला के साथ बेहद क्रूर और घिनौना व्यवहार करने का मामला प्रकाश मे आया था। उस आदिवासी (भील)महिला को नग्न अवस्था मे परेड करने पर मजबूर किये थे आरोपियों ने। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस घिनौने करतूत को अंजाम देने वाले आरोपियों के प्रति कड़ा रूख अख्तियार करते हुए उचित फैसला सुनाया था। असम मे रिजर्व फारेस्ट एक्ट के तहत  आदिवासियों को उन्हीे के जमीन से राज्य सरकार बेदखल कर रही है। बीते पिछले महिने 14 जनवरी को आदिवासी महाजन उरांव की रांची मे कार्य करते हुए मौत हो गयी थी। उसके मौत के बदले उसके घरवालों को मात्र 15,000 रूपये दिये गये। जबकि महाजन उरांव जवान और स्वस्थ्य था और उसकी आर्थिक स्थिती काफी जर्जर थी। उसको अपनी बेटी की शादी करनी थी जिसके लिए वह पैैसे कमाने के उद्देश्य से रांची आया था।  झारखण्ड से असम ले जाये गये आदिवासियों के साथ भी काफी अन्याय हुआ और हो रहा है।  असम में घनों जंगलो को काटकर  ये आदिवासी चाय खेती के लायक बनाये। जिससे वहां के चाय बगान के मालिक खूूब पैसा कमाते है। लेकिन ये चाय की बगान बनाने वाले आदिवासियों की  हालत वहीं की वहीं है। इनके लिए कुछ नही किये ये चाय बगान मालिक। न ही इनके रहने के लिए कमरे की व्यवस्था है, न ही स्वास्थ्य सुविधाओं  की और न ही इनके बच्चो के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था की गयी है। उच्च शिक्षा तो दूर की बात इनके लिए हिन्दी की शिक्षा भी बहुत मुश्किल है। हिन्दुस्तान मे राष्ट्रीय भाषा हिन्दी कि शिक्षा के लिए इन आदिवासियों के बच्चो तरसना पड़ रहा है। हमेशा से इनके साथ अन्याय हुआ है,और आज भी यह जारी है।  इनके तरफ किसी का भी ध्यान नही  जा रहा है। आदिवासियों से जुडे़े  क्षेत्र मे जब भी कोई घटना घटती है, या कोई कार्य होता है तो हमेशा से इनके साथ अन्याय हुआ ह,और आज भी यह जारी है।  आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे  ना सड़को ं की व्यवस्था है ना ही स्वास्थ्य सुविधाओं की और ना ही शिक्षा की।  अगर कोई बीमार पड़ जाता है तो तो उसे खाट पर लेटाकर  या साइकिल पर बिठाकर दर्जनो मील दूर ले जाना पड़ता है। अस्पताल तक पहुंचते-पहुचते मरीज मृतक बना जाता है।  एक किलो चावल, एक पैकेट नमक के लिए भी इन्हे दर्जनो मील दूर जाना पड़ता है। स्कूल अधिक दूर होने के कारण आदिवासी बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते है। तमाम यातनांए सहने के बावजूद ये आदिवासी तन-मन-धन से अपने देश, जमीन, पर्यावरण की रक्षा कर रहे है, जिसका भोग पूरा देश कर रहा है। इसके बावजूद आदिवासियों पर कोई ध्यान नही दे रहा।

Friday, February 4, 2011

rajannaidunia.com

Wednesday, February 2, 2011

करमापा की संपत्ति

तिब्बती बौध्दों के तीसरे सबसे बड़े धर्मगुरु 17वें करमापा उग्येन त्रिनले दोरजी के धर्मशाला स्थित मठ से लगभग सात करोड़ रूपए की देशी और विदेशी मुद्रा की बरामदगी ने भारत के समक्ष कई गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। पहला प्रश्न यह कि एक धर्मस्थल पर इतनी बेनामी, बेहिसाब संपत्ति किस तरह एकत्र हो गई? दूसरा अगर यह राशि ट्रस्ट के लिए थी, तो फिर उसे किसी खाते में क्यों नहींरखा गया, एक होटल मालिक व बैंक प्रबंधक इसमें किस तरह लिप्त हो गए? बरामद राशि में चीनी मुद्रा युआन किस प्रयोजन से वहां दी गयी? यह राशि एक दिन में वहां नहींपहुंची होगी, यह खेल कई दिनों से चल रहा होगा, क्या खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक पहले से नहींथी? अगर थी, तो इसे उजागर करने में इतना वक्त क्यों लगा? तिब्बतियों के सबसे बड़े धर्मगुरु दलाई लामा ने इस तरह के संवेदनशील मसले पर कोई प्रतिक्रिया देने से पहले इंतजार क्यों नहींकिया और जांच एजेंसियों द्वारा पड़ताल करने से पहले ही करमापा का समर्थन क्यों किया? क्या दोरजी करमापा के मठ से विदेशी मुद्रा पकड़ाने के पीछे कोई गंभीर साजिश है? क्या करमापा चीन के एजेंट के रूप में भारत में रह रहे हैं, जैसा कि कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं। या यह चीन की कोई चाल है कि वह भारत में बौध्द अनुयायियों को भड़काकर भारत के लिए कोई मुश्किल खड़ा करना चाहता है? क्या करमापा को चीन का जासूस बताने से भारत-चीन संबंधों में पहले से कायम तल्खी और नहींबढ़ जाएगी? अगर भारत करमापा को चीन वापस भेज देता है, तो क्या चीन उन्हें भारत का एजेंट बताकर तंग नहींकरेगा? क्या तिब्बत पर चीन के दावे और भारत द्वारा तिब्बती शरणार्थियों को पनाह दिए जाने का कोई संबंध इस घटना से है? इन सारे सवालों पर भली-भांति विचार कर के ही भारत की जांच एजेंसियों को आगे बढ़ना चाहिए। चाहे घर हो या धार्मिक स्थल, छोटा कारखाना हो या किसी बड़े उद्योगपति का दफ्तर, देश की सुरक्षा से जुड़े नियम-कानून सबके लिए एक से होते हैं। बिना हिसाब-किताब के, प्रशासन को जानकारी दिए बिना करोड़ों की विदेशी मुद्रा अपने पास रखना एक गंभीर अपराध है। इस नजरिए से सोचें तो धर्मशाला में करमापा के मठ से विदेशी मुद्रा पकड़ाने के मामले को धार्मिक भावनाओं के परे होकर सुलझाने की आवश्यकता है। करमापा ने पूछताछ में कहा कि देश-विदेश में स्थित उनके विभिन्न श्रध्दालुओं ने दानस्वरूप यह राशि उन्हें दी है। लेकिन इस तर्क पर आंख मूंदकर विश्वास नहींकिया जा सकता। मठ, मंदिर, धार्मिक ट्रस्टों में दी जाने वाली दानराशि का भी बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाता है, उनके बैंक खाते होते हैं। खबरें हैं कि इस राशि से भूखंड खरीदने की योजना थी। जांच एजेंसियों ने इस मामले में करमापा से जो पूछताछ की, उसमें मिले जवाब से वे संतुष्ट नहींहैं। इधर श्रध्दालु करमापा के समर्थन में सामने आ रहे हैं। सोमवार को उनके मठ पर भक्त इस तरह एकत्र हुए मानो कोई उत्सव हो। इन हालात में जांच एजेंसियों के लिए इस गुत्थी को सुलझाना और भी कठिन हो गया है। चीन ने करमापा को अपना एजेंट होने की बात पर नाराजगी भरी प्रतिक्रिया दी है। उसने इस बात से साफ इन्कार किया है कि करमापा उसके जासूस हैं। भारत में यह संदेह इसलिए पनपा कि करमापा इस सदी की शुरुआत में जिन परिस्थितियों में चीन से भागकर भारत आए थे, तब भी उनकी बातों पर गुप्तचर एजेंसियों को यकीन नहींहुआ था। उनकी उम्र व करमापा के अवतार होने की बातों पर शक जताया गया था। धीरे-धीरे शक-शुबहे पर धार्मिक आस्था ने प्रभाव जमा लिया, और वे सारी बातें दब गयीं। अब विदेशी मुद्रा पकड़ाने से पुरानी बातों को भी खंगाला जा रहा है। फिलहाल यही उचित होगा कि इस प्रकरण में केवल कानून को ऊपर रखकर जांच-पड़ताल और कार्रवाई की जाए, और भावनाओं में बहकर अतिरेकपूर्ण बयानबाजी, विश्लेषण या अनुमान न लगाया जाए। धर्मशाला के मठ की तरह भारत के कई स्थानों में विभिन्न धार्मिक स्थलों में अकूत संपत्ति एकत्र है, जो धर्मगुरुओं को श्रध्दालुओं के दिए दान से एकत्र हुई है। धर्म के नाम पर एकत्र हो रही काली-सफेद कमाई का हिसाब-किताब सरकार लेती रहे, तो काले धन के कई मामले उजागर होंगे।


Tuesday, February 1, 2011


मजबूत दिखती हैं मगर पिटती हैं
आज महिला सशक्तीकरण की खूब चर्चा है। सरकार से लेकर मीडिया तक इस बात को दोहरा रहा है कि देश में महिलाओं की हालत में बदलाव आ गया है। अक्सर कुछ प्रसिद्ध महिलाओं की सफलता की मिसाल दी जाती है। यह सच है कि औरतों की हालत में सुधार हुआ है। वे सामाजिक-आर्थिक रूप से समर्थ हो रही हैं, लेकिन यह बदलाव एक खास तबके तक ही सीमित है। आज भी महिलाओं का बड़ा वर्ग पहले की तरह ही असहाय है। आज भी स्त्रियां भेदभाव और हिंसा का शिकार हो रही हैं। सशक्त समझी जाने वाली शिक्षित कामकाजी महिलाएं भी इससे बच नहीं पा रही हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान, बेंगलुरु और इंटरनैशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमन द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार उन शादीशुदा महिलाओं को, जो काम पर जाती हैं, घरेलू हिंसा का ज्यादा खतरा झेलना पड़ता है। जिन महिलाओं के पति को नौकरी मिलने में दिक्कत आ रही थी या नौकरी में मुश्किलें आ रही थी, उन्हें दोगुनी प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी। शोध मैं चौंकाने वाली बात यह थी कि प्रेम विवाह करने वाली महिलाएं भी बहुत ज्यादा हिंसा झेल रही थीं।
परिवार में पहले हिंसा की शिकार मां हुआ करती थीं, अब बेटियां भी हो रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में पिछले दो दशकों में करीब 18 लाख बालिकाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं। हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं के मुताबिक उन बालिकाओं की जान को खतरा बढ़ जाता है, जिनकी मां घरेलू हिंसा की शिकार होती रही हैं। जबकि ऐसा खतरा बालकों को नहीं होता। शोध के मुताबिक पति की हिंसा की शिकार औरतों की बच्चियों को पांच वर्षों तक सबसे ज्यादा खतरा होता है। हालांकि इसकी एक बड़ी वजह उपेक्षा भी है। लड़कियों के टीकाकरण तक में लापरवाही बरती जाती है। बीमारी में उनका इलाज तक नहीं कराया जाता।
भारत में इस समय करीब 21 लाख बच्चे हर साल मर जाते हैं। सहस्राब्दी विकास मानकों के तहत बाल मृत्यु दर में 2015 तक दो तिहाई कमी का लक्ष्य भारत ने रखा है, लेकिन फिलहाल लक्ष्य पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। इसलिए विशेषज्ञ कहते हैं कि घरों में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को समाप्त किया जाए तो हजारों बालिकाओं की जान बचाई जा सकती है। इसलिए लड़कियों के स्वास्थ्य संबंधी किसी भी कार्यक्रम और नीति को लागू करने में घरेलू हिंसा के पहलू पर ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है। विडंबना तो यह है कि भारत में पुरुषों का एक बड़ा तबका इस हिंसा को जायज ठहराता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे में इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य का खुलासा हुआ। इसमें आधे से ज्यादा लोगों ने हिंसा को सही ठहराया। ऐसे में बदलाव आए तो कैसे!
महिलाओं को जाने कितने मोर्चों पर यंत्रणा झेलनी पड़ती है। हिंदी फिल्मों का एक विदाई गीत है - मैं तो छोड़ चलीबाबुल का देस पिया का घर प्यारा लगे। दशकों से यह गाना बहुत लोकप्रिय रहा है पर अफसोस कि बाबुल का देसछोड़कर ससुराल जाने वाली बहुत सी महिलाओं के लिए यह बिल्कुल जले पर नमक छिड़कने जैसा मामला है।
अपने बाबुल का देस छोड़कर कितनी ही महिलाएं इस उम्मीद के साथ दक्षिण एशिया की दहलीज लांघती हैं कि ब्रिटेन मेंअपने जीवन साथी के साथ उनके सपने पूरे होंगे। लेकिन दक्षिण एशिया से ब्रिटेन आकर विवाह करने वाली अनेकमहिलाओं के साथ ससुराल में घरेलू नौकरों की तरह बर्ताव होता है। वर्ष 2008-09 में आवास के लिए आवेदन करनेवाली महिलाओं में से 500 से अधिक को शादी टूटने के बाद देश से बाहर निकाल दिया गया। ये महिलाएं साबित नहींकर पाईं कि इनके साथ किसी तरह का उत्पीड़न हुआ है। महिलाओं के साथ यह भी एक बड़ी समस्या है। वह अक्सर अपनेसाथ हुए अत्याचार को साबित नहीं कर पातीं। घरेलू हिंसा को रोकने के लिए 2006 में कानून लाया गया था। लेकिनआज भी इस कानून को ढंग से अमल में नहीं लाया जा रहा है। जब तक समाज के नजरिए में बदलाव नहीं आएगा तब तकमहिलाओं की स्थिति नहीं बदले गी।