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Tuesday, September 13, 2011

अगर देश से जात का भेदभाव मिटाना है तो आरक्षण जाति के आधार पर क्यों।एक आम आदमी, एक महीने का बिजली बिल न भर पाए तो कनेक्शन काट दिया जाता है, मगर एक नेता, पाखंडी बाबा या अफसर, जब तक देश समाज या कंपनी को पूरा निगल नहीं जाता तब तक पता ही नहीं चलता, आखिर क्यों॥

अगर देश से जात-पात का भेदभाव मिटाना है तो आरक्षण जाति के अधर पर क्यों.............

एक आम आदमी भूख और अत्याचार से मर जा रहा हैलिकिन सरकार मूर्तियाँ और खेल के नाम पर पैसे लुटने का कारोबार कर रही है........ आखिर क्यों?

एक आम आदमी किसी vip के आने पर अस्पताल नहीं पहुँच पाता है और मर जाता हैजबकि और प्लेन हाइजैक कर लेते है कैसे? क्यों..........?

और कब तक.................
इसके पीछे कौन है.....
पर्दा क्यों नहीं उठ रहा है........?

आज वक्त है जबाब लेने का...............
इस भ्रष्टाचार को मिटायें हम मिलकर...............
एक युवा भारत बनाने का संकल्प लें ..........
आपका संकल्प और हमारा संकल्प ही अपने देश को मजबूत बनता है.

भूमि अधिग्रहण विधेयक और किसान, आदिवासियों के अधिकार
 
 राजन कुमार                                                                                            

4 अगस्त 2011 को सुप्रीमकोर्ट ने राज्य सरकारों के जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण करने के रवैये पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून किसानों के साथ धोखा है, लिहाजा इसे निस्त होना चाहिए। इसके बाद सरकार ने दूसरी भूमि अधिग्रहण विधेयक 9 सितंबर को संसद मे पेश किया। लेकिन अफसोस कि यह भूमि अधिग्रहण भी आदिवासी और किसान विरोधी बताया जा रहा है। इस विधेयक को लेकर पूरे देश मे बहस चल रही है। लेकिन इस भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करने से पहले दूसरे देशों के उन भूमि अधिग्रहण विधेयकों पर नजर डालने की जरूरत है जहां पर भूमि अधिग्रहण को  लेकर किसानों, आदिवासियों, कंपनियों और सरकार के बीच कभी भी किसी प्रकार का विवाद नही होता। मौजूदा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक, अंग्रेजी भूमि अधिग्रहण विधेयक से भी ज्यादा किसान और आदिवासी विरोधी है। जब कि अंग्रेजी सत्ता ने जिन देशों को गुलाम बनाया था वहां अपने फायदें के लिए अपने अनुसार भूमि अधिग्रहण विधेयक बनाया था। अंग्रेजो के भूमि अधिग्रहण विधेयक का सभी गुलाम देशों मे विरोध हुआ। भारत मे भी उसका विरोध हुआ। आदिवासियों और किसानों ने अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध जंग छेड़ दिया। भारत सहित कई देश अंग्रेजी सत्ता से मुक्त हुए। सभी देश अपना-अपना कानून बनाये लेकिन भारत मे अंग्रेजो द्वारा बनाया गया जनविरोधी कानून ही चल रहा है। देश का कानून ऐसा है कि जिस पार्टी का सरकार बनेगा, जो देश का नेतृत्व करेगा वह एक तानाशाह की तरह देश का नेतृत्व करेगा, जब तक चाहे निर्दोष जनता को कुचलता रहेगा। हकीकत रूप से देखें तो कई भारतीय कानून ऐसे है पूर्ण रूप से जनविरोधी है और सरकार को तानाशाही नेतृत्व प्रदान करते है। एक तरह से तानाशाही नेतृत्व पर लोकतंत्र का ठप्पा लगा दिया गया है। प्रत्येक पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को भारत मे स्वतंत्र दिवस और गणतंत्र दिवस मनाया जाता है, ताकि हम आजाद है, लेकिन यह कैसी आजादी? जहां पर नागरिक अपने अधिकार के लिए लड़ रहा है। एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक अगर अपने अधिकार के लिए लड़ रहें है और उन्हे अभी तक न्याय भी नही मिला है फिर कैसा लोकतांत्रिक देश? क्या हम आजाद है? पहले अंग्रेजी सत्ता के अधीन था भारत और भारतवासी, अब देश के ही दबंग,भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के अधीन रह गया है भारत और भारतवासी। भारत आज भी अंग्रेजी कानून चल रहा है जिसे अंग्रेज अपने हित को ध्यान मे रखकर बनाये थे। फिर यह कैसे हो सकता है कि वर्तमान भारत मे वह कानून लोगों के हित मे हो सकता है। भारत मे जितनी बार भी सरकारें बनी भारतवासियों के उम्मीदों पर खरा नही उतर सकीं। प्रत्येक शासन मे लोगों का शोषण हुआ, लोग अपने अधिकार के लिए सड़क पर उतरे, अनशन किये, सरकारी गोलियों द्वारा अपना सीना छलनी करवायें। कितने निर्दोष लोगों की जाने गयी। अगर कोई अपने हक पर अधिकार के लिए अनशन करता है तो उसे जेल मे डाल दिया जाता है। कोई विरोध प्रदर्शन करता है तो उसे गोलियों से भून दिया जाता है। निर्दोषों को गोलियों से भूनने वाला अपराधी आराम से देश का नेतृत्व करता है। अगर कोई एक कत्ल कर देता है तो उसे फांसी चढ़ा दी जाती है यहां सैकड़ो लोगों के मौत के जिम्मेदार सरकार को कौन फांसी चढ़ायेगा। प्रत्येक सरकार मे निर्दोष लोगों मारा गया है। आखिर उनको इंसाफ कौन दिलायेगा? अभी पिछले दिनों ही मनमोहन सिंह ने कहा था कि नक्सली और आतंकवादी ही राष्ट्र के विकास मे रूकावट हैं। लेकिन इन नक्सलियों और आतंकवादियों को पैदा करने वाली सरकार ही तो है। कश्मीर और आदिवासी क्षेत्रों का विकास न करना और आये दिन उनके जमीनों को जबरन अधिग्रहण करने से ही तो इन क्षेत्रों मे नक्सलवाद और आतंकवाद फैला है। यानि सरकार से बड़ा कोई नक्सली और आतंकवादी नही है।
भारत मे न तो कानून बदला गया और न ही लोगों किस्मत बदली। छ: दशक बाद भी भारत के लोग कई ज्वलंत मुद्दों को लेकर प्रशासन के आग मे जल रहे हैं। जिसमें भूमि अधिग्रहण विधेयक प्रमुख है। संसद मे प्रस्तावित नई भूमि अधिग्रहण विधेकय पर तीखी बहस होना जाहिर करता है कि यह किसान और आदिवासी विरोधी है। विधेयक पेश होने से पहले सरकार ने किसानों और आदिवासियों को यह भरोसा दिलाया था कि यह विधेयक किसानो और आदिवासियों के हित मे होगा फिर किसान अ‍ौर आदिवासी विरोधी भूमि अधिग्रहण विधेयक क्यों पेश किया गया? यह विचारणीय तथ्य है। देश भर के आदिवासी और किसान अपनी जमीन के अधिकार के लिए लड़ रहें है आखिर क्यों? एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी नौबत क्यों आती है सभी को अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है? आखिर कमी किसमे है? आजादी के बाद से बनी सभी सरकारों मे या भारतीय कानून में? यह प्रमुख पहलू है, देश का नेतृत्व कर रही सरकार को इन प्रमुख पहलूओं पर ध्यान देने के जरूरत है। देश मे वहीं कानून पारित किये जायें जो सिर्फ राष्ट्रहित और जनहित मे आता हो, उन देशों के कानूनों को ध्यान मे रखा जाये जहां सरकार और जनता मे कभी कोई विवाद की नौबत नही आयी हो, जनता और सरकार मे बेहतर तालमेल हो।
संसद मे पेश भूमि अधिग्रहण विधेयक  को पारित करने से पहले आस्ट्रेलिया सहित कई देशों के उस भूमि अधिग्रहण विधेयक  पर ध्यान देने की जरूरत थी   जहां अधिग्रहण को लेकर सरकार और किसान/आदिवासी मे कोई विवाद नही है। इन देशों मे कंपनियों को सीधे आदिवासियों और किसानों से जमीन खरीदनी पड़ती है। यहां पर सीधे तौर पर किसानों और आदिवासियों को उनके जमीन का अधिकार दिया गया है।
आस्ट्रेलिया की भूमि अधिग्रहण विधेयक
आस्ट्रेलिया ने आठ साल पहले अपने भूमि अधिग्रहण कानून मे बदलाव करते हुए जमीन खरीदने की पूरी जिम्मेदारी कंपनियों पर डाल दी। इतना ही नही, कंपनियां जमीन खरीदते वक्त समझौतों मे किसी तरह की छेड़छाड़ न करे, इसके लिए किसानों और आदिवासियों को सरकार की तरफ से कानूनी सहायता मुहैया कराई जाती है। आस्टेÑलियाई कानून के मुताबिक कंपनी को 14 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को देनी होती है। कंपनी कोई भी चीज खरीदती है और उसके लिए कोई स्थानीय व्यक्ति टेंडर करता है, तो कानून के मुताबिक कंपनी को उसे तरहीज देनी होगी। स्थानीय लोग सिर्फ मजदूर बनकर न रह जाएं, इसके लिए कंपनी को लगातार उन लोगों को टेÑनिंग का इंतजाम करना होता है। कंपनी मे किसी स्तर पर नई भर्ती होती है और पुराना स्थानीय कर्मचारी उस योग्यता को पूरा करता है, तो पहले उसे नाम पर विचार किया जाता है। आस्टेÑेलिया के कई क्षेत्रों मे खनन कर रहे अंतर्राष्ट्रीय कंपनी रियो टिंटो के प्रबंधक कैरिस के दावे के मुताबिक, स्थानीय लोगों को तरक्की देने के लिए कंपनियां कई कार्यक्रम चलाती है। इसके तहत रियो टिंटो भी क्षेत्र मे कई टेÑनिंग कैम्प चला रहा है। कई बार ऐसा होता है कि कई बार ऐस होता है कि कई  लोग अपनी जमीन देने के लिए तैयार नही होते। ऐसी स्थिती मे जब कंपनी करीब 75 फीसदी जमीन खरीद लेती है, तब सरकार हस्तक्षेप कर बाकी लोगों को  इसके लिए तैयार करती है।  इसके अलावा भूमि अधिग्रहण मे सरकार का कोई हस्तक्षेप नही है। (आस्ट्रेलिया मे भूमि अधिग्रहण विधेयक, 9 सितंबर को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित सुहैल हामिद का लेख है।)

Posted By Rajan Kumar

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