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Saturday, October 22, 2011

  वाह शांति तिग्गा
राजन कुमार
ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसी भारतीय महिला ने प्रशंसनीय काम नही किया था। इंदिरा गांधी से लेकर किरण बेदी, प्रतिभा पाटिल, सुनीता विलियम्स, मायावती, पीटी उषा या सरोजिनी नायडू इत्यादि ने अपने कार्य क्षेत्र मे एक अद्भुत कार्य कारनामा किया जिसकी खूब प्रशंसा भी की गई। उस समय (जब अद्भुत कारनामा किया) ये महिलाएं कई दिनों तक सुर्खियां बनी रहीं। इस श्रेणी में एक और नया नाम जुड़ गया है ‘‘शांति तिग्गा’’। आदिवसी बाला शांति तिग्गा भारत ही नही, विश्व की पहली महिला जवान हैं जिसने इतने कड़े मेहनत के बाद एकमात्र महिला जवान बनने का गौरव हासिल किया। शांति तिग्गा के कारनामे उपरोक्त महिलाओं से कहीं बहुत अद्भुत है, इसके बावजूद इस आदिवासी महिला और प्रथम महिला जवान को वो सम्मान, प्रशंसा नही मिला जो उपरोक्त महिलाएं किरण बेदी, सुनीता विलियम्स सरीखे महिलाओं को मिला(शांति तिग्गा: डेढ़ लाख पुरुष जवानों के बीच एकमात्र महिला जिन्होने डेढ़ लाख पुरुषों को पछाड़ कर ट्रायल के दो विभाग में प्रथम और एक विभाग में द्वितीय स्थान हासिल किया)। ऐसा अद्भुत कारनामा करने के बावजूद इस महिला जवान को वो प्रशंसा, वो सम्मान क्यों नही मिला? क्या वो आदिवासी थी? इसलिए। आखिर हमारा देश, हमारा समाज आदिवासियों के प्रति इतना सौतेला व्यवहार कैसे करता है? क्यों करता है?
आदिवासी हमारे समाज का वह व्यक्ति है जो बहुत पुराने समय से इस देश की धरती पर वास करता आया है और इस जमीन का मालिक भी है, फिर आदिवासियों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जाता है? भारत की एक बड़ी आबादी ‘‘आदिवासी’’ के साथ हम ऐसे नही कर सकते है। हमें आदिवासियों को भी समाज के मुख्य धारा से जोड़ना पड़ेगा, आदिवासियों का हौसला बढ़ाना पड़ेगा और इनके विकास पर विशेष ध्यान देना होगा। आज आदिवासियों इस पिछड़ेपन की जिम्मेदार सरकार और समाज है जो इनके भोलेपन का फायदा उठा कर इनके साथ हमेशा गलत व्यवहार किया गया है।
शांति तिग्गा जब भारत  की पहली महिला जवान बनी तो एकाध अखबारों ने जरुर छापा था लेकिन अंदर के पन्नो पर किसी कोने में, जहां शायद ही किसी का नजर पड़े। जबकि उपरोक्त महिलाओं के लिए सभी अखबारों ने, चैनलो ने तब जोरशोर से प्रकाशित किया था। कई संगठनों ने, राज्य सरकार, केन्द्र सरकार और अन्य लोगों ने सम्मानित किया था। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज उससे भी बेहतर कारनामा करने वाली पहली महिला जवान शांति तिग्गा के साथ मीडिया, समाज और केन्द्र से लेकर राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन ने सौतेला व्यवहार किया है। जब किसी खेल मे भी कोई टीम जीत दर्ज करती है तो उसे पुरस्कृत और सम्मानित किया जाता है,लेकिन शांति तिग्गा के इस असाधारण कारनामें के लिए सम्मानित न करके शांति तिग्गा की अवहेलना किया गया है, महिला पक्ष और आदिवासी पक्ष का अवहेलना किया गया है। एक तरफ जहां सरकार बेटी बचाओ अभियान चला रही है, आदिवासियों का हितैषी बता रही है, आदिवासियों के विकास के दावे कर रही है वहीं दूसरी तरफ उभरते आदिवासी विलक्षणों की अवहेलना कर रही है। सरकार को अपनी गलती सुधारने की जरुरत है। शांति तिग्गा जैसे विलक्षण आदिवासी महिला को विशेष रुप से सम्मानित करने की जरुरत है, शांति तिग्गा का हौसला बढ़ाने हेतु एक बेहतर राशि प्रदान करने की जरुरत है। ताकि आने वाले विलक्षण आदिवासियों को एक बेहतर रास्ता मिल सके।
  तेरा यूं चला जाना...
राजन कुमार
असम अपना एक जुझारु जनप्रतिनिधि खो दिया। असम के पूर्व मंत्री, विधानसभा के पूर्व विरोधी दल नेता तथा दूसरी बार राज्यसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित सिल्वियुस कोंडोपन का 10 अक्टूबर को नई दिल्ली स्थित एम्स में निधन से पूरा असम शोक मे डूब गया। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी अपना जन्मदिन नही मनाया जबकि कंडोपन की गिनती तरुण गोगोई के विरोधी खेमे के रुप मे होती थी।
 माजबाट विधानसभा से लगातार पाच बार निर्वाचित सिल्वियुस कोंडोपन धेकियाजुलि शहर के 6 नंबर वार्ड के स्थायी निवासी थे। लंबे समय तक निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में गुवाहाटी- दिल्ली में व्यस्त रहने के कारण श्री कोंडोपन का पिछले तीन दशकों से धेकियाजुलि से संपर्क टूट गया था। इसके बावजूद होंठो पर असम और वहां के जनता के प्रति दिवानगी इस कदर थी कि होठों पर असम ही रहता था। असम में कांग्रेस को मुश्किल हालातों से उबारकर प्रमुख स्थान पर लाने में कंडोपन का अपूर्र्णीय योगदान रहा है।
असम के जुझारु नेता सिल्वियुस कोंडोपन अपने पीछे पत्नी और तीन पुत्र और एक पुत्री को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए। उनके शव को जब गुवाहाटी ले जाया गया तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी उनकी एक झलक पाने के लिए। लोगों के नम आंखो मे एक ही ख्वाहिश थी वे अपने चहेता की एक झलक तो देख ले। बहुत दिनों से देखा नही आज मौका भी मिला तो इस हालात में।
एक किसान परिवार में जन्में सिल्वियुस कंडोपन एक अच्छे वकील, समाजिक कार्यकर्ता, एक जुझारु नेता, प्रभावशाली शिक्षक के साथ-साथ एक अच्छे इंसान भी थे। इसी के बल पर वे आगे बढ़ते गए। कभी पीछे मुड़ कर नही देखा। लोगों में कंडोपन के प्रति दिवानगी का आलम किस तरह था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोंडोपन की गिनती  मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के विरोधी खेमे में होती थी, बाबजूद इसके श्री गोगोई उन्हें श्रद्धाजंली देने दो दो बार राजीव भवन पहुचे। पहली बार वे सुबह 10 बजे जब पार्टी की तरफ से एक शोक संदेश पास किया गया। उसके बाद लगभग दो बजे जब कोंदापन के पाथर््िाव शरीर को नई दिल्ली से गुवाहाटी के राजीब भवन  लाया गया तब। ज्ञात हो की इसी दिन मुख्यमंत्री के जन्म दिवस होने के बाबजूद उन्होंने कोंडोपन के मौत हो जाने पर अपना जन्मदिन नहीं मनाया।
कोंडोपन का जन्म सोनितपुर जिले के सापोई चाय बागन में  19 जुलाई 1938 को हुई। उनके पिता स्वर्गीय सुकरू हेमो कोंदापन एक चौकिदार थे। एक चौकिदार के बेटे होते हुए भी वे राज्य सभा तक पहुचे। कोंदोपन पहली बार राज्यसभा में 2004 में आये।
फिर दोबारा 2010 में फिर से राज्यसभा में सांसद चुने गए। 1978-79 संसदीय सचिव, वो कई महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान थे। कोंडोपन असम के चाय  बागान क्षेत्र के प्रमुख नेताओं में से एक थे। 2004 में असम के आदिवासी और हरिजनों के आवाज उठाने के लिए उन्हे प्रसिद्ध बी.आर. आंबेडकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1978 में वह राज्य विधानसभा में चुने गए और राज्य के कई बार कैबिनेट मंत्री रहे। वे असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष्य उस समय रहे जब राज्य में अगप के सरकार थी और उल्फा के अतंग चरम पर था। आदिवासियों के विकास के बारे में हमेशा से सोचते रहने वाले कंडोपन का यूं चला जाना असम के आदिवासी को बहुत बड़ा झटका लगा है, जिसकी भरपाई नही हो सकती है।