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Sunday, August 26, 2012

एक आशा की किरण  
राजन कुमार
22 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा हुई, जिसमें प्रणब मुखर्जी को विजयी घोषित किया गया और 25 जुलाई को प्रणब ने राष्ट्रपति पद की शपथ भी ले लिए। देश भर में कई जगहों पर लोगों ने खूब खुशियां भी मनाई और आदिवासी लोगों में उम्मीद जगी है कि उनके विषय में उठाए मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस होगी और सामाधान ढूंढा जाएगा। राष्ट्रपति चुनाव पूर्व संविधान द्वारा प्रदत्त आदिवासियों के अधिकार की रक्षा का मुद्दा उठाया गया था।
आदिवासियों की दलील थी कि स्वतंत्र भारत के अब तक के सभी राष्ट्रपतियों द्वारा अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं करने के कारण ही आज आदिवासी क्षेत्र काफी ज्वलनशील हैं, विकास के नाम पर आदिवासियों का जबरन विस्थापन और शोषण किया गया है, जो अभी भी जारी हैं। संविधान के नियमों का आदिवासी क्षेत्रों में खुलेआम उल्लघंन किया गया है, जो राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
आज आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की दयनीय स्थिति पर भारत के के राष्ट्रपति और राज्यपाल को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। आदिवासी समुदाय का सवाल है कि आखिर आदिवासी क्षेत्रों में क्यों नहीं ये(राष्ट्रपति और राज्यपाल) अपने अधिकारों का इस्तेमाल किए? आदिवासी समुदाय शोषण से तंग आकर आदिवासी क्षेत्रों में संविधान के नियमों के पालन के लिए ही राष्ट्रपति चुनाव में अपना आदिवासी उम्मीवार उतारा।
लेकिन सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में संविधान के नियमों का हमेशा उल्लघंन होता रहेगा? क्या आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा नहीं होगी और हमेशा इसी तरह आदिवासियों का शोषण होता रहेगा? क्या अनुसूचित क्षेत्रों में असंतोषजनक स्थिति बनी रहेगी?
आदिवासी समुदाय पिछले 62 वर्षों की तरह आज फिर अपने नए महामहिम प्रणब मुखर्जी से आदिवासी क्षेत्रों में संविधान के नियमों की रक्षा के लिए टकटकी निगाह लगाए बैठा है। आदिवासी समुदाय इस आशा में है कि नए महामहिम अपने अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे और अनुसूचित क्षेत्रों के सभी राज्यपालों को निर्देश देंगे कि वे भी अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर अनुसूचित क्षेत्रों में शांति कायम करने की कोशिश करें।
राष्ट्रपति चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद आदिवासी उम्मीदवार पी.. संगमा ने प्रणब मुखर्जी को जीत की बधाई दी और आशा व्यक्त किया नए राष्ट्रपति द्वारा अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया जाएगा, जिससे अनुसूचित क्षेत्रों (जो खनिज संपदा से परिपूर्ण हैं) में शांति कायम हो सकेगी। पी.. संगमा ने जोर देकर कहा कि आदिवासी मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दे हैं और आदिवासी मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।
जाहिर है कि संविधान ने राष्ट्रपति और राज्यपाल को अनुसूचित क्षेत्रों में सीधे हस्तक्षेप करने की शक्ति प्रदान की है। अनुसूचित क्षेत्र, जो खनिज संपदा के भंडार हैं, और अनुसूचित क्षेत्रों में ही आदिवासी जन्मों जन्मांतर से निवास करते आए हैं। अनुसूचित क्षेत्रों में खनिजों के दोहन के लिए सरकारी-गैर सरकारी कंपनियों द्वारा अवैध ढंग से आदिवासी जमीनों का हस्तांतरण किया जा रहा है, आदिवासियों को प्रताड़ित कर भगाया जा रहा है, उनके जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, जिससे यहां (अनुसूचित क्षेत्र) नक्सलवाद-माओवाद जैसी विकट स्थिति पैदा हो गई है कि आए दिन सुरक्षा बलों द्वारा या माओवादियों द्वारा आदिवासियों का नरसंहार किया जाता है। आदिवासियों के शोषण और नरसंहार का मामला चितंनीय है। प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों एंव अन्य विचारकों द्वारा यह स्वीकार किया जा चुका है कि नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी आंतरिक समस्या है। लेकिन दुखद बात यह है कि पिछले बीस वर्षों के जबसे माओवाद ने पैठ बनाई, तब से इन अनुसूचित इलाकों में फैल रही अशांति पर तो राष्ट्रपति की ओर से ही अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्यों के राज्यपालों की ओर से ही अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग किया गया है।
Rajan Kumar
सर्वाधिक समृद्ध (प्राकृतिक संसाधन) क्षेत्र सीधे-सीधे राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। भारत में प्राकृतिक संसाधनों जैसे खनिज, वन एवं जल के विशाल स्रोत मौजूद है और इनकी लूट ही आज की सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में अब तक इनके (राष्ट्रपति और राज्यपाल) द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों में असंतोष से उपजे माओवाद की समस्या को लेकर रखा गया मौन अत्यंत विचलित करता है। यदि इन क्षेत्रों(पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आनेवाले क्षेत्र) में ये दोनो संवैधानिक पद (राष्ट्रपति और राज्यपाल) अपनी सही भूमिका अदा करें तो निश्चित ही असंतोषजनक विकट स्थिति से छुटकारा मिल सकता है।

Saturday, August 18, 2012

हॉकी में हार के जिम्मेदार कौन?
Rajan Kumar

 भारत में जिस तरह अन्य खेलों का स्तर लगातार सुधर रहा है, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय खेल हॉकी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। हाल ही में बीते ओलंपिक खेल में भारत सबसे नीचले पायदान पर रहकर इसका उदाहरण पेश किया। जैसे लगता है हॉकी अपने आखिरी पड़ाव पर है।
हॉकी में हार कर बाहर हो जाने तक पूरे देश की यह इच्छा रही कि हम ओलंपिक से बेशक कुछ लाएं या न लाएं, लेकिन हॉकी में एक पदक जरुर लाएं। सिर्फ इसलिए क्योंकि ‘‘कथित तौर पर’’ हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। देश का खेल है। देश, यानि आन, बान और शान। लेकिन हॉकी को इस देश में दोयम दर्जा प्राप्त है, अब इसे नि:संकोच स्वीकार करना चाहिए।
जब ओलंपिक खेल नजदीक आता है तभी भारत में हॉकी को याद किया जाता है, हॉकी की शौर्यगाथा लिखी जाती है, और इसी दावे के साथ यह कहा जाता है कि हॉकी के माध्यम से ही अपना सबसे ज्यादा ओलंपिक पदक जीतने वाला भारत इस बार जरुर कोई ओलंपिक पदक दिलाएगा, लेकिन हॉकी टीम ओलंपिक की सबसे फिसड्डी टीम साबित हो कर स्वदेश लौटती है। हॉकी में भारत ने अपना अंतिम ओलंपिक पदक 1980 में जीता था, उसके बाद हॉकी का स्तर लगातार गिरता गया है। जैसे-जैसे स्तर नीचे गिरता गया, वैसे-वैसे हॉकी की आलोचनाएं भी होती रही, भारत कभी पांचवे स्थान पर रहा तो कभी आठवें स्थान पर, काफी तीव्र आलोचनाएं हुई। पिछली ओलंपिक में तो भारतीय हॉकी टीम खेल भी नहीं पाई, जिसकी काफी व्यग्र आलोचना हुई। कहा गया कि ओलंपिक सबसे ज्यादा आठ स्वर्ण जीतने वाली टीम इतनी फिसड्डी हो सकती है, शर्म की बात है। फिर भी इस बार हॉकी टीम ने जैसे-तैसे ओलंपिक में खेलने का मौका तो हासिल कर लिया, लेकिन अपनी लुटिया डुबा ली और सबसे नीचले पायदान पर रही। आज हम यह सोचकर काफी हैरान होते हैं कि जिस खेल के माध्यम से हमारे देश को लोग पहचानते थे उसी हॉकी में हमारा क्या हाल हो गया है। हम उसी जर्मनी से हार रहे हैं जिसे हिटलर के सामने हमने हराया था। कभी हमारे मुकाबले की टीम नहीं हुआ करती थी, लेकिन स्पेन से भी हार जाते है, जो काफी फिसड्डी टीम है।
हॉकी में भारत के पतन का यह सिलसिला तो दो-तीन दशक पहले ही शुरू हुआ, जब जरूरत थी इसे दूर करने की, लेकिन इसके बजाय हॉकी के साथ एक के बाद एक उलजुलूल प्रयोग किया गया। कभी नौकरशाहों को हॉकी की कमान थमा दी गई, तो कभी विदेशी कोचों को हर मर्ज की दवा मान लिया गया, तो कभी हॉकी की बदहाली के लिए एस्ट्रो टर्फ का बहाना बनाया गया। न तो हॉकी के कौशल और रणनीति में आए वैश्विक बदलाव पर किसी ने ध्यान दिया और न ही हॉकी को लोकप्रिय बनाने का कोई तरीका अपनाया गया।
आज जिन भी देशों में हॉकी खेली जा रही है, वहां हमसे 10 गुना ज्यादा हॉकी खेली जा रही है। लेकिन हमारे यहां घरेलू स्तर पर यह लगातार मर रही है। हमारे देश में राष्ट्र, राज्य और जिला स्तर पर हॉकी की दो-दो संस्थाएं चल रही हैं। एक तरफ इंडियन हॉकी फेडरेशन है, दूसरी ओर हॉकी इंडिया है। इसके बावजूद भारत में हॉकी का स्तर लगातार गिर रहा है।

  अभी हाल ही में पूर्व हॉकी खिलाड़ी धनराज पिल्लै ने आरोप लगाया था कि हॉकी में गंदी राजनीति और अहम के कारण हॉकी की लुटिया डुबती जा रही है। हॉकी हमने ग्यारह पदक जीते हैं, जिसका कोई देश बराबरी नहीं कर सका है, लेकिन अचानक हॉकी का स्तर इस तरह से ढह जाना गंदी राजनीति की देन है।
धनराज पिल्लै एक बेहतर हॉकी खिलाड़ी रहे हैं और हॉकी में हो रही दुर्व्यवहार को वे अच्छी तरह से समझते हैं। हकीकत में हम झारखण्ड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल प्रदेशों में सही निगरानी करें और गंदी राजनीति से परे रहकर हॉकी प्रतिभा तलाशे तो निश्चित ही ऐसी अनेकों हॉकी टीम बनेगी, जो डंके की चोट पर ओलंपिक में पदक लाने का दावा कर सकती है। भारत को ओलंपिक में सबसे पहले स्वर्ण पदक दिलाने वाले हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह मुंडा, नोएल टोप्पो, सिल्वानुस डुंगडुंग, दिलीप तिर्की, इग्नेस तिर्की, असुंता लकड़ा, सुभद्रा प्रधान, विनिता खेस, वीरेंद्र लकड़ा जैसे हॉकी खिलाड़ी इन्ही आदिवासी बहुल प्रदेशों से रहने वाले हैं जो सरकार की नगण्य सहयोग से अपनी प्रतिभा के बल पर हॉकी को नये आयाम पर पहुंचाया। चूंकि हॉकी आदिवासियों का लोकप्रिय खेल है, झारखण्ड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्य में इस खेल को काफी लोकप्रियता के साथ खेला जाता है। इसीलिए इन क्षेत्रों के खिलाड़ियों को अगर अल्प सहयोग भी मिलता है तो कई खिलाड़ी अर्श से फर्श पर पहुंच जाते है।
 झारखण्ड, ओड़िशा में अनेकों हॉकी प्रतिभाएं आर्थिक अभाव, गंदी राजनीति और खेल के समुचित साधन न होने के कारण दम तोड़ रहीं है। राज्य स्तर पर जूनियर, सब जूनियर टीम में खेलने वाले अनेकों आदिवासी खिलाड़ी अपने खेल से सबका ध्यान आकृष्ट किए लेकिन इन्हें राज्य की सीनियर टीम या राष्ट्रीय टीम में कभी चयन नहीं हो सका। नेहरु हॉकी कप एक राज्यस्तरीय खेल है, जिसमें झारखण्ड, ओड़िशा की टीम पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली जैसे टीम को हराकर कई बार नेहरु हॉकी कप प्रतियोगिता जीते, लेकिन इन आदिवासी हॉकी खिलाड़ियों को हमेशा नजरअंदाज किया गया। धन और प्रोत्साहन के अभाव में ऐसे प्रतिभावान खिलाड़ी कहीं पत्थर तोड़ते पाए जाते हैं तो कहीं मेहनत-मजदूरी करके अपना गुजर-वशर कर रहें है।
झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में ऐसे अनेकों प्रतिभावान हॉकी खिलाड़ी हैं जो गांव और ब्लाक स्तर तक सीमित हो कर रह गए हैं। हॉकी तो आदिवासियों का पारंपरिक खेल है, लेकिन कभी हॉकी स्टीक के अभाव में तो कभी खेलने की जगह के अभाव में ये हॉकी खिलाड़ी महीने या साल में शायद दो-चार बार ही कोई हॉकी मैच खेल पाते हैं, लेकिन जब भी खेलते हैं अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ जाते हैं।
झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ से पलायन कर दिल्ली में भी जो आदिवासी खिलाड़ी रह रहे हैं, वे अपने पारंपरिक खेल को भूले नहीं है। आज भी दिन भर मजदूरी करके ये आदिवासी खिलाड़ी शाम को दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम या अपने किसी निकटम स्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स में रोज प्रैक्टिस करते हैं, जहां पर उनको किसी भी प्रकार की कोई सुविधा नहीं मिलती है। पानी तक खरीद कर पीना पड़ता है। साप्ताहिक छुट्टी के दिन ये आदिवासी खिलाड़ी दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में पूरा दिन प्रैक्टिस करते हैं। साल-छह महीने में ‘‘छोटानागपुर हॉकी एसोसिएशन’’ के बैनर तले मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में कोई हॉकी टूर्नामेंट का आयोजन करा दिया जाता है, जिसमें ये आदिवासी खिलाड़ी खेलकर अपने आप को बहुत धन्य समझते हैं।
इस आयोजन हमेंशा कोई बड़ी आदिवासी नेता या हस्ती आते है इन आदिवासी खिलाड़ियों को सांत्वना देकर चले जाते हैं। कभी लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा आए तो कभी पूर्व हॉकी स्टार एवं राज्यसभा के सांसद दिलीप तिर्की, तो कभी राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव तो कभी सांसद मनोहर तिर्की जैसे अनेकों नेता और हस्ती इस टूर्नामेंट में आए। सभी ने इन आदिवासी खिलाड़ियों से वादा किया कि उनके सहयोग हेतु संसद से लेकर सदन तक को सूचित करेंगे, लेकिन कभी किसी ने कोई आवाज नहीं उठाया।
आज हम हॉकी की दुर्दशा के लिए क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस जैसे इत्यादि खेलों को दोषी ठहराते हैं, जबकि हकीकत तो यह है कि हम अपनी कमियों को छुपाने के लिए इन खेलों पर दोष मढ़ देते हैं। हॉकी के प्रति ढुलमुल रवैया, गंदी राजनीति, घमंड और निष्क्रियताएं ही मूल कारण रही है। अन्य खेलों को दोषी बनाकर हम अपनी गलतियों पर पर्दा डालते हैं।
खेल के मैदान की सुविधा से वंचित एक बच्चे ने खेलमंत्री अजय माकन के नाम खुला पत्र लिखकर अगाह कराया है कि अगर खेलों के प्रति रवैया सुधारा नहीं गया तो भारत की खेल प्रतिभाएं मर जाएंगी। उसने पत्र के जरिए खेल मंत्री को संज्ञान कराया कि गरीब बच्चों को खेलों के जरिए अपनी प्रतिभा निखारने में किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अगर खेल मंत्री उस खुले पत्र को संज्ञान में लेकर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो निश्चित ही आदिवासी क्षेत्रों में व्याप्त खेल प्रतिभाएं निखर कर देश का नाम रोशन करेंगी।

Monday, August 13, 2012


स्वतंत्रता दिवस के मायने?

राजन कुमार
हम 66वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। इन 65 वर्षों में नए आयामों को छूते हुए भारतवर्ष एक महाशक्ति के रुप में अपनी पहचान कायम किया है। विकास की इतनी तेज रफ्तार से उभरता हुआ भारत कई देशों के आंखो का दर्द बन चुका है। अंतरिक्ष से लेकर जमीन तक, हम कहीं किसी से पीछे नहीं है, लेकिन आज भी सीने में यह दर्द है कि भारत में लोग भूखे मरते हैं।
एक बहुत बड़े भू-भाग में असंतोषजनक स्थिति बनी हुई है। उग्रवाद और सरकारी नीतियों के बीच फंसा एक बहुत बड़ा तबका पीड़ित और शोषित होकर सरकार से विश्वास खो चुका है। ये वर्ग स्वतंत्र भारत में घुटन महसूस करता है। देश के विकास के नाम पर इनका हमेशा विनाश हुआ। इनके लिए अनेकों सरकारी योजनाएं हैं, लेकिन सिर्फ फाइलों तक ही इनका विकास दिखता है, जमीन तक पहुंचने से पहले ही खंूखार भेड़िये योजना राशि को गटक जाते हैं। आखिर इनके लिए स्वतंत्रता दिवस क्या मायने रखता है।
 'पिछले छह हजार साल से हमारा उत्पीड़न हो रहा है। आप लोग हमारे बाद इस देश में आए। सिंधु घाटी से हमें आप लोगों ने निकाला। अगर हमारा इतिहास विद्रोह और संघर्ष का है, तो वजह आप हैं। लेकिन मैं नेहरू की इस बात पर भरोसा कर रहा हूं कि आजाद भारत हमें बेहतर जिंदगी देगा।'
साठ साल पहले यह तल्ख टिप्पणी एक आदिवासी हाकी खिलाड़ी जयपाल सिंह ने की थी। उन्हें सुनने वालों में थे- डा. बीआर अंबेडकर, पुरुषोत्तम दास टंडन, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्र्जी, सोमनाथ लाहिड़ी जैसे विख्यात लोग। लेकिन जयपाल सिंह की उम्मीद अधूरी ही रही। इसका गवाह है बीते जून महीने में छत्तीसगढ़ के बीजापुर और नारायणपुर जिले में आदिवासियों पर बर्बरता पूर्वक पुलिसिया जुल्म। बीजापुर के सारकेगुडा गांव में सुरक्षा बलों द्वारा खुल्लेआम निर्दोष आदिवासियों की हत्या, नारायणपुर में न्याय के लिए शांति पूर्वक प्रदर्शन कर आदिवासियों पर पुलिसिया जुल्म कहां से आदिवासियों की स्वतंत्रता को दर्शाते हैं।
हकीकत तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद आदिवासियों को बहुत कम(नगण्य) मिला है, जबकि खोना बहुत   ज्यादा पड़ा है। हमेशा से आदिवासियों को सपोर्ट करने के बजाए दबाने की कोशिश की गई, चाहे राजनीति हो या सामाजिक मुद्दा। जयपाल सिंह मुण्डा- इन्हें हॉकी का जनक कह सकते हैं, विश्व में सबसे पहले हॉकी के माध्यम से भारत को ख्याति दिलाने वाले। लेकिन इन्हें सरकार ने कितना सम्मान दिया। भारत को हॉकी में ओलपिंक का पहला गोल्ड मेडल दिलाने वाले जयपाल सिंह मुण्डा को भारत के लोग शायद ही जानते होंगे, लेकिन हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद को हर कोई जानता है। सुविधाओं के अभाव में भी 8 प्रतिशत आदिवासी समुदाय से अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनेकों खिलाड़ी उपजे, लेकिन अन्य समुदायों की अपेक्षा इन्हें बहुत कम ख्याति मिली। वर्तमान में भी ओलंपिक में भारत को पदक दिलाने वाली आदिवासी महिला मैरीकाम को बहुत कम लोग जानते होंगे, लेकिन ज्वाला गुट्टा, सानिया मिर्जा, कृष्णा पुनिया को हर कोई जानता होगा।
देश के प्रति हमेशा ईमानदार रहने वाले आदिवासियों को हमेशा पीछे क्यों धकेला जाता है। एक तरफ सुप्रीमकोर्ट कहता है कि आदिवासी ही देश के मूल निवासी है, जबकि दूसरे तरफ योजनाबद्ध तरीके से इनका विनाश किया जाता है।
असम के चाय बागानों में कार्यरत आदिवासी समुदाय अपनी मूलभूमि से विछड़ चुका है, जिसका दर्द उसे हमेशा सालता रहता है, लेकिन सरकार भी उसके दर्द पर मिर्च रगड़ने से पीछे नहीं हटती! पश्चिम बंगाल के डुवार्स और असम के चाय बागानों में कार्यरत चाय श्रमिकों की दर्द को कोई सुनता ही नहीं। असम के चाय श्रमिकों को अनुसूचित जनजाति के दर्जे से वंचित किया गया है तो डुवार्स में आदिवासी चाय श्रमिक अभिशप्त होकर जीने को मजबूर हैं। सरकार मुक दर्शक बनकर देखती है और कोई मदद नहीं करती है।
सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश में तो आदिवासियों की जमीनों को योजनाबद्ध तरीके से लूट रही है। विकास के नाम पर आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है, जो अपनी जमीन छोड़ने को राजी नहीं उसे नक्सली बताकर मार दिया जाता है।
अनुसूचित क्षेत्रों में तो खुलेआम संविधान का उल्लघंन होता है। पांचवी अनुसूचि और पेसा कानून जैसे नियमों को ताक पर रख कर आदिवासियों की जमीन जबरन अधिग्रहण की जाती है। छत्तीसगढ़ के जशपुर और रायगढ़ में तो पूरा का पूरा जिला ही अवैध तरीके से अधिग्रहण करने का प्लान बन चुका है। झारखण्ड के कोल्हान क्षेत्र में कुछ ऐसा ही मामला है, जबकि रांची के समीप नगड़ी में आदिवासियों की उपजाऊ जमीन जबरन अधिग्रहण की जा रही है।
आदिवासियों के लिए स्वतंत्रता दिवस आखिर क्या मायने रखता है। जिस जमीन को अंग्रेज नहीं ले सके, उस जमीन को बहुत ही आसानी से सरकार जबरन ले रही है। आखिर आदिवासी कैसे महसूस करें कि वे स्वतंत्र हैं, जब उन्हें पूजा-अर्चना(सारकेगुडा में) करने पर मार दिया जाता है, अपनी सच्ची बेगुनाही पेश करने पर(सोनी सोरी मामला) बर्बर उत्पीड़न किया जाता है, हक के लिए आवाज उठाने पर नक्सली घोषित कर दिया जाता है, छत्तीसगढ़ के बस्तर और झारखण्ड के सारंडा क्षेत्र के आदिवासियों को इस लिए मारा जाता है कि वे क्षेत्र नक्सल प्रभावित हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा कहते हैं कि आदिवासियों को अंबेडकर जैसा अपना कोई मसीहा नहीं मिला। एक ऐसा नेता, जिसका अखिल-भारतीय महत्व हो और जो हर जगह आदिवासियों के मन में उम्मीद और प्रेरणा का अलख जगा सके। लेकिन हमें जयपाल सिंह मुंडा के उस अलख को कैसे भूल सकते हैं कि जिसके पीछे पूरा झारखण्ड चल पड़ा था, लेकिन उसको भी आखिर कुंद कर ही दिया गया।
Rajan Kumar
वर्तमान में पीए संगमा, नंद कुमार साय, वी किशोर चंद्र देव, अरविंद नेताम जैसे अनेक नेता हैं जो आदिवासियों में अलख को जगाने की पूरजोर कोशिश कर रहें हैं जबकि दूसरी तरफ अन्य राजनीतिक पार्टियों द्वारा इसे दबाने की भी पूरजोर कोशिश हो रही है। हकीकत तो यह है कि आदिवासी इलाकों की संपन्नता ही आदिवासियों की विनाश की कारण बन गई है, आदिवासी जमीन को लूटने के लिए सरकार से लेकर कारपोरेट जगत की इन इलाकों पर गिद्ध नजर गड़ी हुई है मगर आदिवासियों को अपना आस्तित्व की रक्षा करने का संकल्प लेकर देश का 66वां स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान करेंगे।


आदिवासी बाला ने जीता ओलंपिक में कांस्य पदक

शाबाश मैरीकॉम

राजन कुमार
‘‘शाबाश मैरीकॉम’’। आखिर दिखा दिया कि भारत का नाम रोशन करने में आदिवासी भी पीछे नहीं है। अपने पहले ही ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचने वाली एमसी मैरीकॉम पांच बार की विश्व चैंपियन भी हैं। मैरीकॉम के पदक से पूरा भारत, खासकर मणिपुर के लोग काफी खुश है। आर्थिक नाकेबंदी के कारण नाको चने चबाने वाले मणिपुर के लोग उस दौर को भुलाते हुए आज इस बात काफी खुश हैं कि मैरीकॉम ने एक ओलंपिक पदक पक्का करके मणिपुर राज्य को एक बार फिर सुर्खियों में ला खड़ा कर दिया।
एक पिछड़े हुए आदिवासी बहुल राज्य मणिपुर के साधारण आदिवासी किसान परिवार में जन्म लेकर ओलंपिक पदक तक पहुंचने का मैरीकॉम का सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है। मैरीकॉम की इस सफलता में उनके पिता और पति का विशेष सहयोग रहा है। 8 अगस्त को सेमीफाइनल में हारकर कांस्य पदक जीतने वाली मैरीकॉम की ब्रिटिश प्रतिद्वंदी भी निकोला एडम्स भी मैरीकॉम की काफी प्रशंसा की। निकोला एडम्स ने कहा कि अगर मैरीकॉम शुरु से ही 51 वर्ग किग्रा में खेलते आई होंती तो शायद मै हार गई होती! एडम्स ने कहा कि ‘‘मैरीकॉम ने बहुत अच्छा खेला, लेकिन छोटी कद और इस वर्ग में नियमित नहीं खेल पाने से हार गई।’’
भारत के खेल मंत्री अजय माकन ने भी मैरी कॉम के खेल की तारीफ की। उन्होंने कहा, "मैरी कॉम अपने से अधिक वजन की श्रेणी में खेल रही थीं। वो अच्छा खेलीं लेकिन अपनी लंबी, युवा और मजबूत प्रतिद्वंद्वी से हारीं। ओलंपिक में कांस्य भी एक बड़ी उपलब्धि है।" मैरीकॉम निश्चित ही अरबों भारतीयों के उम्मीदों पर खरा उतरी है और आगे भी लोगों का दिल जीतती रहेगी।
भारत की मुक्केबाज़ एमसी मैरीकॉम लंदन ओलंपिक से कांस्य पदक लेकर लौट रही हैं। ओलंपिक खेलों में पहली बार हिस्सा लेने वाली मैरीकॉम का इस भव्य आयोजन में भाग लेना और एक पदक जीतने का सपना था जो इस बार पूरा हो गया। हालांकि भारत को और पूरे मणिपुर को शायद उनसे एक स्वर्ण पदक की आस थी, जो पूरी नहीं हो सकी। लेकिन इस उम्र में कांस्य जीतना किसी मुक्केबाज के लिए कम नहीं होता। पांच बार विश्व प्रतियोगिता का ख़िताब जीत लेना कोई मामूली बात नहीं होती। साइना नेहवाल और अभिनव बिंद्रा जैसे खिलाडियों के लिए भी विश्व चैम्पियन बनना अभी एक सपना सा है।
Rajan Kumar
एक दूसरी बात ये भी है कि मैरीकॉम के अपने देश भारत में अब शायद ही कोई ऐसा खेल पुरस्कार शेष रह गया है जो उन्हें नहीं मिला हो। पद्म श्री, अर्जुन पुरस्कार और राजीव गांधी खेल रत्न जैसे नामी-गिरामी पुरस्कार तो ओलंपिक में भाग लेने के पहले ही उनकी झोली में थे।
मैरीकाम के ओलंपिक पदक से सरकार को एहसास हो जाना चाहिए कि 8 प्रतिशत आबादी वाले आदिवासियों को अगर सही देख-रेख और प्रोत्साहन मिले तो निश्चित ही ये आदिवासी रत्न बाकी 92 प्रतिशत आबादी से ज्यादा खरे उतरेंगे। भारत को पहला ओलंपिक पदक भी आदिवासी ने ही दिलाया जब 1928 को अमेस्टड्रम आयोजित ओलंपिक प्रतियोगिता में जयपाल सिंह मुण्डा के नेतृत्व में खेलते हुए भारतीय हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक जीत कर भारत को विश्व में पहचान दिलाई थी।

Friday, August 3, 2012

कुछ खट्टा, कुछ मीठा

राजन कुमार

जमीन का मामला

जमीन का मामला इतना ज्वलंत हो गया है कि आदिवासी जमीन का नाम सुनकर ही डर जाता है। उसे इस बात भयानक डर लगा रहता है कि कभी भी हमारी जमीन सरकार या कारपोरेट हमसे छीन न ले। जहां आदिवासियों की जमीन छीन ली गई है वहां आदिवासी धरना प्रदर्शन कर रहें है, जबकि कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा जिला ही जबरन लूटने का प्लान बन चुका है। अगर इस तरह से इनके जमीन छीने जाएंगे तो निश्चित आदिवासी इलाका और ज्वलंत हो जाएगा। नर्मदा बांध से लेकर नगड़ी मामले में तो आदिवासी अभी तक सिर्फ धरना प्रदर्शन कर रहें है, लेकिन अगर पूरा का पूरा जिला लूट लिया जाएगा तो शायद वहां निश्चित ही कोई बड़ा खूनी संघर्ष हो सकता है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और जशपुर जिले में सरकार वहां की पूरी जमीन लूटने का प्लान बना चुकी है, जबकि मध्यप्रदेश के सिंगरौली में यह खेल जारी है। जमीन लूटने के लिए आदिवासियों को अभी फुसलाया जा रहा है, अगर आदिवासी अपनी जमीन मामले पर अपनी भौंह टेढ़ी कर लिया तो निश्चित ही आदिवासियों को नक्सली बताकर मारने का सरकार का अगला प्लान होगा।

जीवन में बिजली

बिहार के किशनगंज जिले के पहाड़कट्टा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले गांव गुवाबाड़ी आदिवासी टोला में आजादी के पहली बार विद्युत सप्लाई हुआ। आदिवासी खुशी के मारे में पागल हो गए, रात भर झूमे, गाए, नाचे, मौज मनाए। वैसे इस गांव को बिजली नहीं मिलती अगर 3 जून को सेवा यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस क्षेत्र का दौरा नहीं करते तो, लेकिन दौरे के दौरान नीतिश कुमार की नजर इस गांव पर पड़ी और उन्होंने गुवाबाड़ी आदिवासी टोला में विद्युत आपूर्ति के लिए आश्वासन दिया। इस आदिवासी गांव में 40 आदिवासी परिवार रहता है, जो जिंदगी में पहली बार बिजली देख कर इतना खुश हुआ है। लेकिन इन बेचारे आदिवासियों को क्या पता कि जिस बिजली को ये आजादी के 65 साल बाद देख रहें है वो बिजली उन्हीं के क्षेत्र से पैदा होती है, और दूसरे लोग इसके मजे लेते हैं। हकीकत तो यहीं है कि आज भी बहुत सुदूर आदिवासी इलाकों में बिजली, स्वास्थ्य समेत विभिन्न मूलभूत योजनाएं नहीं पहुंची है, जबकि यह इलाका प्राकृतिक संसाधन से भरपूर है और बिजली इन्हीं क्षेत्रों से पैदा होती है।

चाय श्रमिकों का दर्द

पश्चिम बंगाल के डुवार्स और असम के चाय बागानों में रह रहे चाय श्रमिक राजनीति के नाम पर अपना बाजार चलाने वाले से इतना क्षुब्ध हो गए हैं कि अब अगर कोई भी उनके हित में आवाज उठाने की कोशिश करता है तो वे(चाय श्रमिक) कहते है कि आ गए अपने राजनीति का बाजार लेकर। चाय श्रमिकों का कहना जायज ही है, क्योंकि चाय श्रमिकों के हित की बात तो वर्षों से होती चली आ रही है, लेकिन सिर्फ बात होती चली आ रही है, काम इनके हित में नहीं होता है। अगर चाय श्रमिकों को यहां रहना है तो चाय बागान मालिकों के रहमों करम पर। चाय बागान मालिक इनको मारे-पीटे, इनके इज्जत के साथ खिलवाड़ करे या शोषण करे, सब सहना है। ये आदिवासी चाय श्रमिक अंग्रेजों का शोषण का शिकार होकर अपने मूलभूमि से कट गए और घने जंगलों को काट कर चाय बागान बनाया। उस चाय बागान से सरकार और गैर आदिवासी आज फायदे कमा रहें है, लेकिन चाय बागान श्रमिकों की हालत वहीं की वहीं है। चाय श्रमिकों के नाम अनेकों संस्थाएं, मजदूर संगठन और आदिवासी संगठनों का निर्माण हुआ, उनके हित में आवाज उठाने का ऐलान किया गया, लेकिन समय के साथ सभी संस्थाओं और संगठनों ने अपना नीजि हित ही साधा और चाय श्रमिकों को वहीं का वहीं का छोड़ दिया जहां पर वे हैं।

हाशिए पर आदिवासी राजनीति

छत्तीसगढ़ में एक नई राजनीतिक पार्टी का उदय हुआ है- भारतीय गोंडवाना पार्टी। भारतीय गोंडवाना पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारने का ऐलान की है। पार्टी का कहना है कि छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बहुल प्रदेश है और यहां के राजनीति में आदिवासी हाशिए पर हैं। जब तक आदिवासी स्वतंत्र रुप से यहां का मुख्यमंत्री नहीं बनेगा तब तक प्रदेश का विकास नहीं होगा। 
गोंडवाना पार्टी की बात तो सही है, अरविंद नेताम और नंदकुमार साय छत्तीसगढ़ के तेजतर्रार और खांटी आदिवासी नेता है। अरविंद नेताम कांग्रेस से हैं तो नंद कुमार साय भाजपा से। लेकिन भाजपा और कांग्रेस ने हमेशा इन दोनो को आगे बढ़ने ही नहीं दिया। 38 साल के जिस तेजतर्रार और आदिवासियों के लोकप्रिय युवा नेता अरविंद नेताम को इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी उसी नेताम को कांग्रेस ने आज हाशिए पर धकेल दिया है। नंद कुमार साय, जो शराब के खिलाफ आंदोलन कर आदिवासियों में जागृति पैदा की, और हमेशा जमीन से जुडेÞ रहे। छत्तीसगढ़ अगर भाजपा की सरकार है तो नंद कुमार साय के कारण, लेकिन भाजपा ने इन्हें भी धीरे-धीरे किनारे पर लगाने की कोशिश कर रही है। नंद कुमार साय को छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री न बनाकर भाजपा ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया, जिससे आदिवासी अपने आप को ठगा महसूस कर रहें है। शायद इसी वजह से गोंडवाना पार्टी का उदय हुआ है।

समाज से बिछड़ने का दुख

देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली में आकर बसें आदिवासियों का अपने संस्कृति और समाज से कट जाने दुख स्पष्ट दिखाई देता है। जब कोई   पर्व-त्यौहार पर आदिवासी अपने गांव-समाज में न होकर दिल्ली में होता है तो उसे बहुत दुख होता है। पर्व-त्यौहार के मौके पर कुछ आदिवासी एकजुट होकर अपने पर्व-त्यौहार के याद में कुछ कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। एक साथ नाचते-गाते हैं और हड़िया बनाकर पीते हैं। लेकिन इन कार्यक्रमों से भी उनके दिल की इच्छा पूरी नहीं होती। उनको सबसे ज्यादा दुख इस बात का है कि उनके बच्चे अब दिल्ली में रहकर अपने संस्कृति और समाज को भूलते जा रहे हैं। ये बच्चे अब मन से नहीं, सिर्फ नाम से आदिवासी हैं और आदिवासी कहने पर चिढ़ जाते हैं।
  

उत्तर प्रदेश के आदिवासी

उत्तर प्रदेश में आदिवासियों को कोई खास आरक्षण नहीं प्राप्त है। आरक्षण की नग्णयता के कारण बहुत आदिवासी आरक्षण से भी अनभिज्ञ हैं और अनुसूचित जनजाति कोटे के आरक्षण का लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं। इसके लिए खास तौर से उत्तर प्रदेश सरकार का गैरजिम्मेदाराना रवैया है। अगर उत्तर प्रदेश सरकार कुछ चपलता दिखाए तो निश्चित ही इन लोगों तक इनके अधिकारों को पहुंचाया जा सकता है। 
इनके लिए मुख्य समस्या यह है कि आरक्षण लाभ न पा सकने के कारण ये आदिवासी अपने को सामान्य समझ लेते हैं। उत्तर प्रदेश के गोंड, थारु आदि समुदाय के आदिवासियों को अगर कोई आदिवासी कहता है या अनुसूचित जनजाति कोटे की आरक्षण की बात करता है तो ये लोग चिढ़ जाते हैं। हालांकि सभी आदिवासी नहीं चिढ़ते, गोंड, थारु आदि समुदायों के कुछ लोग ही तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अब धीरे-धीरे ये लोग आरक्षण और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रहें है और अपने अधिकारों को प्राप्त करने की कोशिश में लगे हुए है।

झारखण्ड या लूटखण्ड

झारखण्ड में आदिवासियों के हित के लिए जितने एनजीओ, संस्था या राजनीतिक पार्टियां है, उतना शायद ही किसी राज्य में होगी। सभी एनजीओ, संस्थाए या राजनीतिक पार्टियां आदिवासियों के हितकर होने की दावा करती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इनके लाख दावा करने के बावजूद आदिवासियों की स्थिति में कोई साकारात्मक परिवर्तन नहीं आया, बल्कि दिन प्रतिदिन और दयनीय होती गई। क्या पता ये संस्था या पार्टियां आदिवासियों के हित में कितना काम करती है, लेकिन ये बात है कि ये आदिवासियों के नाम पर पैसा बहुत कमाती हैं। 
संस्थाओं या पार्टियों के मालिक जो कभी 100 रुपए के लिए कई दिन मेहनत करते थे वे आज 100 करोड़ के मकान में रहते हैं। यहां लोगों को समझ में आ गया है कि अगर झारखण्ड में पैसा कमाना है तो एनजीओ, संस्था या राजनीतिक पार्टी बनाओं और मालामाल हो जाओ, झारखण्ड आदिवासियों के लिए है, हमारे लिए तो लूटखंड है। लूट सको तो लूट! आए दिन झारखण्ड में नए-नए एनजीओं, संस्थाओं और राजनीतिक पार्टियों का अभ्युदय हो रहा है, जिनका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना है, न कि आदिवासी हित के लिए लड़ना। जैसा कि पिछले दिनो राष्ट्रपति चुनाव में भी देखने को मिला, सभी छोटी-बड़ी पार्टियां आदिवासी राष्ट्रपति के विरोध में खड़ी थी। अब तो आदिवासी मुख्यमंत्री का भी विरोध होने लगा है।

अंतरात्मा की आवाज

सोशल साइटों पर इस खबर सुगबुगाहट है कि राष्ट्रपति का चुनाव सांसद का चुनाव जीतने से बहुत आसान हैं, कठिन है तो राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनना। लगता भी ऐसा है! क्यों कि राष्ट्रपति का चुनाव भले ही पांच हजार से ज्यादा सांसद, विधायक करते हैं, लेकिन अपनी मर्जी से नहीं, पार्टी प्रमुख की मर्जी से। यानि कोई भी सांसद या विधायक अंतरात्मा की आवाज पर राष्ट्रपति नहीं चुनता है। यानि कि राष्ट्रपति का चुनाव 10-12 लोगों के फैसले पर ही निर्भर है। यानि कोई भी व्यक्ति 10-12 पार्टी प्रमुखों को मना लिया तो समझों राष्ट्रपति बन गया। राष्ट्रपति जनता का नहीं, कुछ विशेष लोगों का होता है, क्यों जनता के प्रतिनिधि जनता के हाथ में नहीं, कुछ विशेष लोगों की मुट्ठी में है।

लाडली योजना से लाडली दूर

झारखण्ड, मध्य प्रदेश जैसे कई आदिवासी बहुल राज्यों में लड़कियों के सुनहरे भविष्य के लिए कन्या लाडली योजना चलाई जा रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य लड़कियों को शिक्षित करना एवं उनके बाल जीवन को बचाना है। इस योजना के तहत सरकार द्वारा करोड़ो रुपए आवंटन किए गए है, फिर भी झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िशा जैसे अनेक आदिवासी क्षेत्रों में नाबालिग लड़कियों का पलायन जारी है। ‘‘भूखे भजन ना होत गोपाला, ले लो अपनी कंठी माला’’ जैसी इनकी हालत हो गई। हकीकत यह है कि भूख और गरीबी से तंग इन आदिवासी लड़कियों तक सरकारी योजनाएं नहीं पहुंच पा रहीं है। भूख से व्याकुल ये लड़कियां सीधे महानगरों की तरफ रुख कर रहीं हैं, जहां इनके बाल जीवन का शोषण हो रहा है। सरकार की लाडली योजना आदिवासी क्षेत्रों औंधे मुंह गिर रहीं हैं।

पुलिस की दादागिरी

अगर किसी राज्य पुलिस को दादागिरी नहीं आती है तो वह छत्तीसगढ़ पुलिस से सीख सकती है। छत्तीसगढ़ पुलिस की दादागिरी का सहज अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है जब बीजापुर जिले के साकेरगुडा हत्याकांड(28 जून की रात इस हत्याकांड में सुरक्षाबलों ने 17 निर्दोष आदिवासियों को मार दिया था।) के खिलाफ आदिवासी नारायणपुर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने जा रहे थे। अबूझमाड़ के ये आदिवासी सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर न्याय की उम्मीद में यहाँ आ रहे थे। 
हत्याकांड के खिलाफ आदिवासी अपनी संगठित आवाज सरकार को सुना पाते उससे पहले ही नारायणपूर से तीन किलोमीटर पहले गढबेंगाल में लाठी-डंडों व बंदूको की बट से हमला कर बस्तर पुलिस ने उन्हें रोक लिया और जता दिया कि उसे अघोषित रूप से यही आदेश है कि अब अन्याय के खिलाफ प्रदर्शन नहीं होने दिया जायेगा। फोर्स व पुलिस के निरकुंश हो चुके जवानों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होना तो पहले ही बंद हो चुका है। सरकार का इतना सपोर्ट मिलने पर तो स्वाभाविक दादागिरी चमकानी पड़ेगी! पुलिस ने दादागिरी के संदर्भ में आदिवासियों को पहुंचते ही बिना किसी चेतावनी के लाठी-डंडा चलाना शुरू कर   दिया। घबराये आदिवासी अपने छत्ता, चप्पल व अन्य सामान छोड कर भाग खड़े हुए। पुलिस ने इस दादागिरी का जश्न भी खुब शोर-शराब के साथ मनाया और निर्दोष आदिवासियो की पिटाई का उत्सव के तौर पर 25 जुलाई की शाम पुलिस ने छक कर दारु भी पी।
वैसे पुलिस और सुरक्षाबलों की दादागिरी की यह कोई नई घटना नहीं है। पहले से आदिवासियों के नागरिक अधिकार छत्तीसगढ़ में अघोषित रूप से छीन लिये गये हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने पहले ही सुरक्षाबलों और पुलिस के जवानों को बलात्कार, फर्जी मामले दर्ज करने और नरसंहार की खुली छूट दे रखी है। दादागिरी का ताजा मामला यह है कि आदिवासियों द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस खूब लाठी-डंडा भांजा, जिसमें सैकड़ों आदिवासी बुरी तरह जख्मी हुए हैं और कई डर मारे जंगलों में छुपे हुए हैं।
  

दिल्ली में आकर बन रहे शराबी

जो लोग गांवों हड़िया पीते थे, वे अब दिल्ली में आकर शराब पी रहें है। अधिक पैसा है तो अंग्रेजी शराब, कम पैसा है तो देशी शराब। आदिवासियों को हड़िया पीने की अलग ही तरीका है, जब पेट न भरे तब तक पीते रहतें है। यहां तो हड़िया मिलता नहीं हैं, इसलिए शराब से पेट भरने की लत लग जाती है, लेकिन क्या करें पैसे कम पड़ जाते हैं। जो कमाए, शराब में जाए। आए थे पैसे कमाने, बन गए शराबी। जो आदिवासी यहां रिक्शा चलाते हैं वे तो दिन भर कमाते हैं, रात को भर पेट पिएंगे, फिर कहीं सड़क किनारे रिक्शा लगाके रिक्शा पर ही सो जाएंगे। जो सरकारी नौकरी करते हैं वे तो अंग्रेजी शराब पीते हैं, लेकिन दाम अधिक होने से पेट नहीं भरता। अन्य प्राइवेट नौकरी करने वाले बहुत किफायत से शराब पीते हैं, लेकिन फिर भी आधी कमाई तो शराब में जाती ही जाती है। हां, कहीं किसी पार्टी में शामिल होने का मौका मिला तो उस दिन का पैसा भी बच गया, पेट भी भर गया।

क्या सच, क्या झूठ

झारखण्ड की बात ही निराली है, यहां तो सरकारी काम कितनी सफाई से होती है, इसका अंदाजा लगाना बहुत सहज है। झारखण्ड एक आदिवासी बहुल राज्य है और झारखण्ड की निराली बात यह है कि यहां के सभी गांवो में बिजली पहुंच रहीं है, लेकिन किसी के घर में जलती नहीं है, जैसे बिजली में ही जंग लग गया हो। वहां के लोगों का कहना है कि गांव-गांव में बिजली के खंभे खड़ा कर दिए, तार का अता-पता ही नहीं है, बिजली कैसे आएगी। जबकि सरकारी फाइलों में स्पष्ट दिख रहा है कि बिजली प्रत्येक गांवो में पहुंच रहीं है। पता नहीं सच्चाई क्या है, सरकार की फाइले झूठ हैं या जनता की बात।

सवर्ण डायन क्यों नहीं?

भारत में आज भी लोग जादू-टोना, डायन, भूत-प्रेत आदि पर विश्वास करते हैं। इनसे मुक्ति दिलाने के लिए बकायदा अखबारों मे विज्ञापन छपता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि डायन, जादू-टोना, भूत-प्रेत की बातें आदिवासी और पिछड़े क्षेत्रों में काफी प्रचलित हैं, और इसके प्रचलन में मुख्य रोल कुछ सभ्य कहे जाने वाले लोगों का ही है। दरअसल डायन का आरोप आदिवासी, दलित या पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाली महिलाओं पर ही लगाया जाता है। किसी सवर्ण महिला पर डायन का आरोप नहीं लगता है। लगे भी क्यों? सबको अपने प्यारे होते हैं, और इसके प्रचारक तो सवर्ण ही हैै। दरअसल आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं को डायन घोषित करके उनके जमीनों को हड़प लिया जाता है।

आदिवासी, सरकार और नक्सली

आदिवासियों की मौत सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखती, चाहें आदिवासी सुरक्षाबलों द्वारा मारे जाएं या नक्सलियों द्वारा। अगर सुरक्षाबल आदिवासियों को मारेंगे तो उन्हें मेडल दिया जाएगा और प्रमोशन मिलेगा, यदि नक्सली आदिवासियों को मारेंगे तो सरकार आदिवासियों पर ताने मारती है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के सारकेगुडा गांव में बेरहमी से 17 निर्दोष आदिवासियों को सुरक्षाबलों ने भुन दिया था, केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक इन निर्दोष आदिवासियों को नक्सली साबित करने में लगे रहें, लेकिन नाबालिगों के मरने के कारण सरकार इन आदिवासियों को नक्सली नहीं साबित कर सकी। हकीकत तो यह है कि बड़े आराम से व्यापारी वर्ग नक्सल क्षेत्रों मे काम कर रहा है, जिसे सरकार मदद भी कर रहीं है, जबकि जनहित कार्य में हमेशा रुकावट आती है, रोकने वाले पता नहीं कंपनियों के चमचे है या सरकार के या नक्सली है?

जंगल एक्ट का जिन्न

सरकार जंगल एक्ट को जिन्न समझकर किसी ठंडे बस्ते में डाल दी है, सोच रहीं है कि निकलेगा तो बड़ी मुसीबत पैदा कर देगा। आदिवासियों एवं जंगलवासियों के हित के लिए बना जंगल एक्ट को लागू हुए लगभग पांच साल हो रहे हैं लेकिन आदिवासियों एवं जंगलवासियों को अभी तक वन अधिकार नहीं मिल पाया हैं। राज्य सरकारें आगे सर्वेक्षण नहीं कराना चाहती हैं। 
सरकार की मंशा जंगलों से आदिवासियों को वेदखल करने की है। सरकार जंगलों को कम्पनियों के हवाले करना चाहती है, लेकिन ये आदिवासी सरकार के राह में रोड़े बन रहें है। आदिवासी सरकार के ठंडे बस्ते को ढूंढ रहें हैं कि ठंडा बस्ता को गर्म करके जिन्न निकाला जाए। आदिवासी-जंगलवासी सरकार और वन विभाग के प्रति इतने गुस्सा है कि अपने हक के लिये फिर निणार्यक लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहें है। 2 अक्टूबर 2012 को एक लाख लोग ग्वालियर से दिल्ली तक की जनसत्याग्रह 2012 में जाने की तैयारी कर रहे हैं। शायद जिन्न ठंडे बस्ते से बाहर निकल आए?

कांग्रेस आदिवासी विरोधी!

चाहें जो भी हो, कांग्रेस ने स्पष्ट कह दिया कि वह आदिवासी विरोधी पार्टी है। वह आदिवासियों को अपने पार्टी में न तो कोई विशेष सम्मान दे सकती है और न ही किसी विशेष पद के लिए सपोर्ट कर सकती है। राष्ट्रपति मुद्दा उछला तो लगा कि संगमा कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे, लेकिन संगमा को कांग्रेस ने किनारे कर दिया, बाद में आदिवासी वोटों के लिए भाजपा ने संगमा को लपक लिया।
 हालांकि अधिकतर आदिवासी नेता कांग्रेस से ही उभरे हैं, लेकिन कांग्रेस की वोट नीति के चक्कर में निचले स्तर तक ही सीमित हो रह गए। उपराष्ट्रपति चुनाव में भी कांग्रेस खेमे में आदिवासी मुद्दा गरम हो गया था, आदिवासियों को लगा कि चलो राष्ट्रपति न सहीं उपराष्ट्रपति ही सही। लेकिन आदिवासियों के दिलों को   ठेस पहुंचाते हुए कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार आदिवासी मंत्री वी. किशोर चंद्र देव के बजाए हामिद अंसारी को दुबारा उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया गया। बेचारे आदिवासी सबसे अमीर धरती के मालिक सबसे गरीब! अगर आदिवासी बन गया राष्ट्रपति तो कैसे लूटेंगे अमीर धरती।