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Wednesday, January 25, 2012

जारवा आदिवासी : संरक्षण या पर्यटकों का मनोरंजन

राजन कुमार

खबर सुर्खियों में है- अंडमान में अर्धनग्न जारवा आदिवासियों को विदेशी पर्यटकों के सामने नचाया गया। जारवा आदिवासी इस लिए नाच रहे थे, क्यों कि उनको खाना चाहिए था। जारवा आदिवासियों के  देखरेख के लिए वहां पर तैनात एक पुलिस ने  विदेशी पर्यटकों से 15 हजार रूपए रिश्वत ली और जारवा आदिवासी  लड़कियों को बिस्किट और खाना का लालच देकर विदेशी पर्यटकों के सामने नाचने के लिए उकसाया किया। दरअसल जारवा आदिवासी आज भी समाज से कटे हुए है और अर्धनग्न अवस्था में रहते है। जब अर्धनग्न जारवा आदिवासी लड़कियां नाच रही थी तो विदेशी पर्यटक इनके विडियो बनाए।
यह खबर किसी भारतीय मीडिया ने नही, बल्कि विदेशी मीडिया ने दी है। यह खबर लंदन के एक अखबार आब्जर्वर ने प्रकाशित किया और अपने वेबसाइट पर वीडियो भी अपलोड किया। वीडियो के माध्यम से ही यह खबर सुर्खियों मे आया, जिसे भारतीय मंत्रियों और नेताओं ने इसे झूठा बताया। भारत के आदिवासी मामलों के मंत्री समेत कई अन्य मंत्रियों ने कहा कि यह खबर पुरानी है, ऐसा कोई घटना नही हुई है। यह खबर जब सुर्खियों आ गई तो इसके जांच के आदेश भी दे दिए गए। अंडमान की पोर्ट ब्लेयर पुलिस ने पर्यटकों के सामने जारवा आदिवासी युवतियों को अर्धनग्न नृत्य को फिल्माने और उसे इंटरनेट पर अपलोड करने के सिलसिले में अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। सूत्रों के मुताबिक बताया गया कि भारतीय दंड संहिता, सूचना और प्रौद्योगिकी कानून, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा प्राचीन जनजाति संरक्षण कानून के तहत मामला दर्ज किया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 292 ( अश्लील सामग्री दिखाना), सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 67 (ऐसी सूचना का प्रकाशन जो इलेक्ट्रानिक स्वरूप में अश्लील है), अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की धारा 3:2 ( किसी अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति की ऐसी चीज खिलाना या पिलाना, जिसमें नशीला पदार्थ हो) के तहत मामला दर्ज किया गया है। इसके अलावा प्राचीन जनजातियों के संरक्षण  से संबंधित  कानून की धारा सात: वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए बफर क्षेत्र में प्रवेश और धारा आठ जारवा जनजाति के बारे में किसी तरह के विज्ञापन के जरिए पर्यटन को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों के तहत भी मामला दर्ज किया गया है।
इस खबर से हर कोई आक्रोशित है।  राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने इसे शर्मनाक करार देते हुए इस मामले  की विस्तृत  जांच की सिफारिश की है और आयोग जल्द ही बैठक करके आगे की रणनीति पर विचार करने वाला है। इस मामले में केंद्र ने भी विस्तृत जांच की मांग की है और अंडमान निकोबार प्रशासन को भली भांति जांच करने का निर्देष भी दिया है। वहीं गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी इस मामले में आरोपियों को पकड़ कर पूछताछ के निर्देश दिए हेैं। गौरतलब है कि यह मामला उस समय तूल पकड़ा जब लंदन के अखबर ‘‘आब्जर्वर’’ ने पर्यटकों के सामने जारवा जनजाति  की अर्धनग्न महिलाओं के नृत्य से संबंधित कथित घटना के बारे में खबर दी और इससे जुड़ा एक विडियो अपलोड किया।
लेकिन यह खबर सुर्खियों में आने से कई प्रश्नों को जन्म दे गया जबकि काफी तूल पकड़ा। वहीं एक महत्वपूर्ण बात ये रही कि इस खबर के बहाने जारवा आदिवासी बहस का मुद्दा बना। भारत में बहुत कम लोग ही जानते थे कि जारवा नाम का भी कोई आदिवासी समुदाय  है।
सवाल तो यह है कि नंगा तो बहुत नाचते है, लेकिन जारवा आदिवासियों का नाच इतना तूल क्यों पकड़ लिया। इसलिए कि हम विश्वगुरू और महाशक्ति का दम भरते है और ये वीडियो हमारे विश्वगुरू और महाशक्ति के नाम पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है? बिस्किट के लिए यहां के लोग नंगा नाच रहे हैं? क्या इसीलिए यह खबर तूल पकड़ा? अगर ये कीमत ज्यादा रखते तो ये आर्ट कहलाती, नाम होता और व्यवस्थित शो होते, माल ए मुफ्त-दिल ए बेरहम, इतने ही तो नंगे होकर नाचते हैं, इनको क्यों बदनाम करते हो! सन्नी लियोन को तो कोई कुछ नही बोला, पोर्न स्टार से लेकर बिग बॉस और अब फिल्मों तक, नंगा ही नाचती है, उसके अनेकों पूर्ण अश्लील वीडियो वेबसाइटों पर मिलेंगे।
छह दशक से भी ज्यादा समय हो गया भारत को आजाद हुए, लेकिन सरकार के लिए यह बेहद शर्मनाक और अफसोस की बात है कि इनका जीवन आज भी पशुओं से बद्दतर है। आपको जानकर यह हैरानी होगी कि सरकार अंडमान के आदिवासियों के लिए कानून बनाई है, संरक्षण के तरह-तरह के नियम बनाए हैं, लेकिन सभी नियम और कानून कहीं भी इन आदिवासियों को मुख्यधारा से नही जोड़ते हैं। अंडमान के आदिवासी पशुओं से भी बद्दतर जीवन जीने को विवश हैं, क्या यह उनका संरक्षण हो रहा है? क्या इसी तरह से उन्हें रखना उनका संरक्षण कहा जाएगा। नाचने का मुद्दा कोई आज का नही है, नाचने के लिए तो वे हमेशा नाचते है, जब भी कोई पर्यटक आता है तो उन्हें नचाता है, वीडियों बनाता है और तस्वीरे लेता है। केंद्र के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा भी स्वीकार किया जा चुका है कि ऐसा मामला पहले हो चुका है। 5 मार्च 2008 को केंद्र शासित क्षेत्र अंडमान निकोबार के पर्यटन विभाग ने जारवा जनजाति और स्थानीय लोगों के बीच बढ़ते असंतोष के मद्देनजर टूर आपरेटरों को चेतावनी दी थी कि वे   इस क्षेत्र में पर्यटकों को नही घुमाएं।
उस अधिकारिक बयान में कहा गया था कि इस आदेश का उल्लंघन करने वाले आपरेटरों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी, क्यों कि यह क्षेत्र जनजाति क्षेत्र केंद्र शासित प्रदेश के प्रोटेक्शन आॅफ एबोआरिजिनल ट्राइब्स रेगुलेशन एक्ट(1956) के तहअंतर्गत आता है। उस अधिकारिक बयान के हवाले यह भी कहा गया था कि 340 किलोमीटर लंबे अंडमान ट्रंक रोड पर पर्यटकों को ले जाते समय वाहनों को रोका नही जाए और न ही जारवा जनजाति के लोगों को अपने वाहन में बैठाया जाए। लेकिन इन आदेशों के बावजूद हमेशा इसका उल्लघन होता रहा है। जारवा लोगों के इलाके की सीमा पर वन विभाग की चौकी है। निर्धारित समय पर पुलिस पार्टी के साथ वाहनों का काफिला चलता है। इस चौकी पर लिखा है कि यह फोर्स जारवा लोगों की सुरक्षा के लिए है। जबकि काफिले में शरीक सभी लोग यह मान कर चलते हैं कि जारवाओं से सुरक्षा के लिए पुलिस उनके साथ है।
जून 2011 की बात है इसी चौकी पर ही अंडमान आदिम जाति विकास समिति के एक कर्मचारी नवदीप बोराई ने बताया कि यहां के तीन इलाकों में लगभग चार लाख आबादी निवास करती है। 2011 की जनगणना में अंडमान निकोबार की आबादी के घटने की आंकड़े जुटे थे, इस सही या गलत सूचना से प्रशासनिक हल्कों में हड़कंप मच गया।
आंकड़े सुधारे गए। आदिम जाति विकास समिति में जारवा भाषा जानने वाले तीन कर्मचारी हैं जो नीचे के पदों पर ही है। इसी बाबत सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया था कि निश्चित तौर पर यहां से गुजरने वाली ग्रांड ट्रंक रोड को बंद कर देना चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को तोड़ने मरोड़ने के तरीके निकल चुके हैं और अतिक्रमण जारी है।
हकीकत तो यह है कि कोई भी इनको मुख्यधारा में लाना ही नही चाहता!
अंडमान की आदिवासी समुदाय की पांच जातियां विलुप्ति की कगार पर है और उनके सदस्यों की संख्या चार सौ से भी कम रह गई है। 26 अप्रैल 2010 को तत्कालीन जनजातिय कार्य राज्य मंत्री तुषार ए चौधरी ने रेणुबाला प्रधान के सवाल के लिखित जवाब में राज्यसभा को यह जानकारी दी थी। चौधरी ने बताया था कि 2001 की जनगणना के अनुसार अंडमान के आदिम जाति सोटिनलीस की जनसंख्या 39, ग्रेट अंडमान की 43, औंज की 96, जारवा की 240, और शोम पेन की 398 रह गई है। जिसके लिए सरकार ने कुछ योजनाएं बनाए, लेकिन ये योजनाएं सिर्फ बनाए के बनाए रह गए। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी इन आदिवासियों के संरक्षण के लिए एक शोध कार्यालय की स्थापना की गई लेकिन उसके भी कुछ परिणाम नही निकले।
सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में महज 250 से 350 के बीच जारवा आदिवासी अंडमान द्वीप पर बसी दुर्लभ आदिवासी जनजातियों में से एक है। ये लोग कई हजार साल से अंडमान में रह रहे हैं। जारवा जनजाति और बाहरी लोगों के बीच आमतौर पर संपर्क नही रहा है। यही वजह है कि उनके समाज, संस्कृति और परंपराओं के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नही है। ग्रेटर अंडमान में बोली जाने वाली भाषा ‘‘अका बिया’’में उनके नाम का मतलब- विदेशी या दुश्मन लोग। किसी भी तरह का संपर्क, खासकर पर्यटकों से, इनके लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि जारवा जनजाति में बीमारी फैलने का खतरा होता है। इस जनजाति की प्रतिरोध क्षमता काफी कम है।
जब झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और पूर्वोत्तर के इलाकों में आदिवासियों को विस्थापित किया गया तो कुछ आदिवासी अंडमान का रूख कर लिए। जिसमें हो, संथाल, खड़िया, मुंडा, गोंड आदि प्रमुख है। अंडमान में आज इन आदिवासियों की संख्या ज्यादा है। जबकि अंडमान की आदिम जातियां जिनका रहन-सहन बिल्कुल पशुओं की तरह था, वे आए दिन भयंकर बीमारियों के शिकार होते चले गए, और उनकी जनसंख्या कम होती चली गई। अंडमान की आदिम जातियों पर ध्यान तब दिया गया जब वे विलुप्ति के कगार पर आ गर्इं। 2003 से इन आदिवासियों के बच्चों को टीके दिए जाने शुरू हुए और इनके संरक्षण पर ध्यान दिया गया।
वहीं 2004 में आए सुनामी ने भी बहुत से आदिम जातियों को लील लिया। इन आदिवासियों  की जीवनशैली की वजह से इनमें हेपेटाइटिस बी  का संक्रमण बहुत अधिक रहा है। सीमित संख्या में बची जारवा जनजाति मं तो इसका प्रकोप 60 फीसद आबादी तक है, जो दुनिया के किसी भी जनसमूह में सबसे ज्यादा है।
6 फरवरी 2011 को अंडमान निकोबार के सांसद विष्णुपत रे जारवा आदिवासियों के स्थिती को काफी गंभीर करार देते हुए कहा कि 17वीं शताब्दी में अंडमान निकोबार में जारवा समुदाय की संख्या पर्याप्त थी, लेकिन 1789 में फैली  बीमारी के कारण समुदाय के काफी लोगों की मौत हो गई। 1997 और 2008 में खसरा के कारण भी काफी बच्चों की मौत हो गई, जो कभी भरा पूरा परिवार एवं आबादी वाला समुदाय था, अब उसकी जनसंख्या करीब 300 रह गई है। कवि लीलाधर मंडलोई ने अपनी किताब काला पानी में जारवा समुदाय पर विस्तार से लिखा है। मंडलोई के  अनुसार अंडमान द्वीप समूह में नीग्रो मूल की चार दुर्लभ जनजातियां है, जारवा इनमें से एक है। इनकी जीवन शैली पाषाण युग के मनुष्य की तरह है। अंडमान निकोबार के द्वीपों के सर्वेक्षण के दौरान अंग्रेज अफसरों ने सबसे पहले इन्हें 1790 में देखा। दक्षिणी अंडमान में   निर्वासन के बाद 1863 से 1915के बीच हुए छिटपुट संपर्क के समय इनके जीवन के संबंध में मामूली जानकारियां मिलीं। 1991 में ‘‘पाल-लुंगटा-जिग’’ नामक जगह की एक पहाड़ी पर इनकी झोपड़ी देखने में आई जिसका आकार 45/30 फुट था। यह मचान शैली की थी।
मंडलोई का दावा है कि इनसे प्रथम आत्मीय संपर्क 1974 में हुआ, जब उन्होंने समुद्री किनारे पर रखे गए उपहार स्वीकार किए, किंतु उन्होंने किसी को अपने इलाके में उतरने की अनुमति नही दी। और आज लगभग तीन दशक से अधिक हो गए, वे अभी तक सिर्फ उपहार स्वीकार करते है, जिसमें फल, बर्तन और चावल आदि दिया जाता है। वे अब भोजन को पकाने के नाम पर मछली, केंकड़े, सूअर, कछुआ जैसे जीवों को आग में भूनकर खाते हैं। नमक, तेल, मिर्च, मसाला का इस्तेमाल उन्हें नही आता। शराब, बीड़ी, सिगरेट और तंबाकू के सेवन से भी दूर है।
एकाधिकार और सुरक्षा की भावना से वे किसी को भी अपने द्वीप में ठहरने की अनुमति नहीं देते। आजादी के बाद आए लोगों में , जो अंडमान में बसे, उसमें सिर्फ एक व्यक्ति था, बख्तावर सिंह, जिन्हें जारवा आदिवासियों ने मित्र रूप में स्वीकार किया। संपर्क समिति में बख्तावर सिंह की उपस्थिती अनिवार्य थी। उनके साथ जाने पर ही आप जारवा आदिवासियों को नजदीक से देखने का अवसर पा सकते थे। जारवा आदिवासियों की औसत ऊंचाई 5 फुट है। रंग नीग्रो जनजाति की तरह गहरा काला है। बाल घुंघराले और शरीर एकदम स्वस्थ है।
जारवा बेहद चुस्त अ‍ौर गजब के फुर्तीले हैं। उनकी अनुमानित संख्या 225 से 250 के बीच है, जिसमें 40 बच्चे हैं। वे समूह में रहते हैं। कपड़े नही पहनते और पूरी तरह शिकार और वनोपज पर आश्रित हैं। शिकार के लिए कई दिनों तक जंगलो में निकल जाते हैं। जगह-जगह अस्थायी ठिकाने बनाते है और पर्याप्त भोज सामग्री मिलते ही पक्के ठिकानों पर लौट आते है। चूंकि अलग-अलग समूह का शिकार स्थान पूर्व निर्धारित होता है, इसलिए इनमें झगड़े नही होते, जारवा आदिवासियों में अद्भुत एकता है।
समय आने पर सभी एक साथ उठ खेड़े होते है और मुसीबतोें का मुकाबला करते हैं। इस आदिम जाति में महिला का प्रभुत्व है। समाज मातृसत्तात्मक है। पुरूष सिर्फ एक पत्नी रख सकता है। हालांकि पिछले कुछ सालों में सरकारी प्रयासों के बाद जारवा समुदाय के कुछ लोगों ने कपड़े पहनना शुरू किया है, लेकिन ये आदिवासी अभी भी कथित विकास की मुख्यधारा से दूर हैं और अपनी तरह से जीते हैं। इन्हें आदिमानव भी कहा जा सकता है।
अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष डा. रामेश्वर उरांव ने कहा कि अंडमान निकोबार द्वीपसमूह में अलग-अलग टापुओं पर जंगलो में समूह बन कर रहने वाली जनजातियों का अन्य समुदायों और प्रशासन से बहुत सीमित संपर्क है और इसी वजह से भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के अभाव में इन समुदायों की आबादी लगातार घट रही है।
उरांव ने कहा कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर रहने वाले आदिवासियों के लिए खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना असली चुनौती है क्योंकि उनका प्रशासन से संपर्क बहुत सीमित है। गौरतलब है कि उरांव ने पिछले महीने एक सप्ताह अंडमान निकोबार द्वीपसमूह पर अलग अलग टापुओं पर जा कर हालात का जायजा लिया था। उरांव के अनुसार ताजा जनगणना में जारवा आदिवासियों की जनसंख्या 381 है, जबकि इनसे सटे एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की आबादी लगभग 97 रह गई है।
जुलाई 2010 की बात है अंडमान निकोबार द्वीप समूह से भारतीय जनता पार्टी के सांसद बिश्नुपाद रे द्वारा जारवा आदिवासियों के बच्चों को मुख्य धारा में लाने के लिए उनके कबीले से अलग करने के प्रस्ताव था जिसका दुनिया भर में भारी विरोध हुआ। रे ने यह प्रस्ताव द्वीप विकास प्राधिकरण की जुलाई 2010 में होने वाली बैठक के पहले किया था।
सांसद ने इस प्रस्ताव में कहा था कि दक्षिण और मध्य अंडमान में जारवा आदिवासियों के रिहाईश वाले इस इलाके में लागू प्रतिबंधों के कारण पोर्ट ब्लेयर को दक्षिण, मध्य और उत्तरी अंडमान से जोड़ते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग और रेल लाईन परियोजना रुकी पड़ी है। यह रोक हटाने की मांग करते हुए सांसद ने जारवा आदिवासियों से सम्बंधित इस प्रस्ताव में कहा कि विकास की प्रारम्भिक अवस्था में पड़े महज 300 आदिवासियों को संसाधन देने के नाम पर 4 लाख लोगों को विकास और सुविधाओं से वंचित रखना तार्किक नहीं है। उन्होंने मांग की कि झारखंड के सिंहभूम और खुंटी जिलों की तर्ज पर 6 से 12 साल की उम्र के जारवा बच्चों को उनके कबीलों से निकाल कर सामान्य स्कूलों में पढ़ाने के लिए कदम उठाने की तात्कालिक जरूरत है।
इस प्रस्ताव में कहा गया कि झारखंड के इन आदिवासी बच्चों को इस तरह रखने से वह जल्दी ही लिखना पढ़ना, निजी स्वच्छता और मुख्य धारा के लोगों की तरह खाना पीना सीख गए। उन्हें आधुनिक सुविधाओं जैसे टेलिविजन और मोटर वाहनों से भी परिचित करवाया गया। झारखंड में किए गए इस प्रयोग में इन बच्चों को 6 महीने तक मुख्यधारा के जीवन में रखने के बाद वापस उनके कबीले के बीच भेजा गया, और एक महीने बाद उनसे दोबारा सम्पर्क किया गया तो उनके कपडेÞ और मुख्य धारा की कुछ आदतें वह गंवा चुके थे। यह भी पाया गया कि कबीले के लोगों ने भी कपड़े पहनने और निजी स्वच्छता जैसी मुख्य धारा की कुछ बातें अपना ली थीं। प्रस्ताव में कहा   गया कि इन्हीं बच्चों के साथ यह कवायद पहले से ज्यादा समय के लिए की गई और इसके जरिये प्रशिक्षक आदिवासी इलाकों में घुस पाने, और उन्हें स्वच्छ कपड़े पहनने और पका हुआ खाने, खेती किसानी और बागबानी की बुनियादी तकनीकें जैसी बातें सिखाने में कामयाब रहे।
इसका नतीजा यह रहा कि वह पूरी आदिवासी आबादी झारखंड के किसी भी आदिवासी गांव जैसी हो गई।  सांसद ने कहा कि खुद जारवा लोगों की भलाई इसी में है कि उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जाए। पूरी दुनिया में मूल आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे लोगों और संगठनों ने सांसद के इस प्रस्ताव को आस्ट्रेलिया और उत्तरी अमरीका में आदिवासियों की चुराई गई पीढ़ी खड़ी करने की कोशिशों जैसा बताया था। कनाडा के नेशनल रेसिडेंशियल स्कूल सर्वाईवर्स (एनआरएसएसएस) के कायर्कारी निदेशक माईकल कशागी ने कहा कि आज के जमाने में वह इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि कनाडा और दुनिया के दूसरे हिस्सों में इस तरह के आवासीय स्कूलों का भयानक इतिहास देखने के बाद भी कोई देश अपने नागरिकों, खासकर बच्चों के बारे में ऐसा सोच भी सकता है।
ब्राज़ील के एक संगठन यानोमामी के नेता दावी कोपेनावा यानोमामी ने इस प्रस्ताव को बहुत खराब बताते हुए कहा था कि जारवा के जंगल इन आदिवासियों के घर हैं। वह अपने इलाके में हैं। उनकी अपनी संस्कृति और परम्पराएं हैं।
सरकार अगर उनके बच्चों को छीनकर उन्हें स्कूलों में डाल देगी तो वह अपनी संस्कृति खो देंगे। उन्हें जंगल छोड़कर स्कूल या नगर में रहने को कहना एक अपराध है। सर्वाईवल इंटरनेशनल के निदेशक स्टीफन कोरी ने कहा कि यह प्रस्ताव मूल नागरिकों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए राष्ट्रसंघ द्वारा तय किए गए मानदंडों दोनों का अपमान है। जारवा लोगों को उनकी जीवन शैली छोड़ने के लिए मजबूर करने की कोशिशें उन्हें नष्ट कर देंगी। उल्लेखनीय है कि 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने जारवा लोगों की सुरक्षा के लिए अंडमान ट्रंक रोड बंद करने का आदेश दिया था।
भावनात्मक पक्ष देखें तो लगता है, चलो अच्छा ही है, इस दुनियां के छल प्रपंच से दुर अपनी एक सीधी सादी दुनियां तो है उनकी, वहीं नैतिकता के पक्ष  को देखें तो वो आधारभूत चीजें जो हमें प्राप्त है, क्या उसपर उनका भी हक नही बनता, क्यों खाद्यविहीन, वस्त्रविहीन कर, जंगलों में जानवरों की तरह विचरने के लिए छोड़,  मानव होने के उनके अधिकार पर प्रश्नचिन्ह  लगा दिया गया है, उन्हें आजादी अभी इसलिए प्रिय है क्योंकि दासता में रहने के सुख से उनका कभी वास्ता ही नही पड़ा। उनकी अपनी दुनियां है क्योंकि इस दुनियां ने उन्हें अपनाने की कोशिश ही नही की।
दो शब्दों में अगर कहें तो, सरकार उन्हें उनकी दुनियां तक ही सीमित करना चाहती है तो वैसी व्यवस्था करे जहां बाहरी दुनियां से उनका कभी सामना ही ना होने पाए(जो असंभव है)। वे बीहड़ों तक ही सीमित रहे.... या फिर उन्हें इस दुनियां में आकर जीने का एक मौका दे, शुरूआती कठिनाइयों से उनका सामना जरूर होगा, पर वे धीरे-धीरे जीना सीख जाएंगे, सही खान-पान, वस्त्र, शिक्षा, जीने के सही ढंग और इस वातावरण को आत्मसात करना इतना भी मुश्किल नही होगा उनके लिए......, बस उन्हें आधा तीतर आधा बटेर बनाकर न छोड़ा जाए, क्यों कि वो भी मनुष्य है हमारी तरह हाड़-मांस के बने, सोचने समझने और सीखने की प्रवृति भी है उनमें और यकीन मानिए आप भी उन(जारवा आदिवासियों के) आंखो में देखेंगे तो आप को भी एहसास होगा कि ये आंखे हमारी तरह जीने की हक मांग रही हैं, मानो कह रही हों- या तो खुद सा बना दो या हमारी दुनियां में दखल ना डालो, तुम्हारी तरह हममें भी जीने की चाहत है, हमें भी जी लेने दो ना...........।