संसद में आदिवासी कोटा मे 42 एमपी रिजर्व सीट से चुने जाने के बावजूद आदिवासियों के लिए कोई आवाज नही उठाता
राजन कुमार

तिब्बती बौध्दों के तीसरे सबसे बड़े धर्मगुरु 17वें करमापा उग्येन त्रिनले दोरजी के धर्मशाला स्थित मठ से लगभग सात करोड़ रूपए की देशी और विदेशी मुद्रा की बरामदगी ने भारत के समक्ष कई गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। पहला प्रश्न यह कि एक धर्मस्थल पर इतनी बेनामी, बेहिसाब संपत्ति किस तरह एकत्र हो गई? दूसरा अगर यह राशि ट्रस्ट के लिए थी, तो फिर उसे किसी खाते में क्यों नहींरखा गया, एक होटल मालिक व बैंक प्रबंधक इसमें किस तरह लिप्त हो गए? बरामद राशि में चीनी मुद्रा युआन किस प्रयोजन से वहां दी गयी? यह राशि एक दिन में वहां नहींपहुंची होगी, यह खेल कई दिनों से चल रहा होगा, क्या खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक पहले से नहींथी? अगर थी, तो इसे उजागर करने में इतना वक्त क्यों लगा? तिब्बतियों के सबसे बड़े धर्मगुरु दलाई लामा ने इस तरह के संवेदनशील मसले पर कोई प्रतिक्रिया देने से पहले इंतजार क्यों नहींकिया और जांच एजेंसियों द्वारा पड़ताल करने से पहले ही करमापा का समर्थन क्यों किया? क्या दोरजी करमापा के मठ से विदेशी मुद्रा पकड़ाने के पीछे कोई गंभीर साजिश है? क्या करमापा चीन के एजेंट के रूप में भारत में रह रहे हैं, जैसा कि कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं। या यह चीन की कोई चाल है कि वह भारत में बौध्द अनुयायियों को भड़काकर भारत के लिए कोई मुश्किल खड़ा करना चाहता है? क्या करमापा को चीन का जासूस बताने से भारत-चीन संबंधों में पहले से कायम तल्खी और नहींबढ़ जाएगी? अगर भारत करमापा को चीन वापस भेज देता है, तो क्या चीन उन्हें भारत का एजेंट बताकर तंग नहींकरेगा? क्या तिब्बत पर चीन के दावे और भारत द्वारा तिब्बती शरणार्थियों को पनाह दिए जाने का कोई संबंध इस घटना से है? इन सारे सवालों पर भली-भांति विचार कर के ही भारत की जांच एजेंसियों को आगे बढ़ना चाहिए। चाहे घर हो या धार्मिक स्थल, छोटा कारखाना हो या किसी बड़े उद्योगपति का दफ्तर, देश की सुरक्षा से जुड़े नियम-कानून सबके लिए एक से होते हैं। बिना हिसाब-किताब के, प्रशासन को जानकारी दिए बिना करोड़ों की विदेशी मुद्रा अपने पास रखना एक गंभीर अपराध है। इस नजरिए से सोचें तो धर्मशाला में करमापा के मठ से विदेशी मुद्रा पकड़ाने के मामले को धार्मिक भावनाओं के परे होकर सुलझाने की आवश्यकता है। करमापा ने पूछताछ में कहा कि देश-विदेश में स्थित उनके विभिन्न श्रध्दालुओं ने दानस्वरूप यह राशि उन्हें दी है। लेकिन इस तर्क पर आंख मूंदकर विश्वास नहींकिया जा सकता। मठ, मंदिर, धार्मिक ट्रस्टों में दी जाने वाली दानराशि का भी बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाता है, उनके बैंक खाते होते हैं। खबरें हैं कि इस राशि से भूखंड खरीदने की योजना थी। जांच एजेंसियों ने इस मामले में करमापा से जो पूछताछ की, उसमें मिले जवाब से वे संतुष्ट नहींहैं। इधर श्रध्दालु करमापा के समर्थन में सामने आ रहे हैं। सोमवार को उनके मठ पर भक्त इस तरह एकत्र हुए मानो कोई उत्सव हो। इन हालात में जांच एजेंसियों के लिए इस गुत्थी को सुलझाना और भी कठिन हो गया है। चीन ने करमापा को अपना एजेंट होने की बात पर नाराजगी भरी प्रतिक्रिया दी है। उसने इस बात से साफ इन्कार किया है कि करमापा उसके जासूस हैं। भारत में यह संदेह इसलिए पनपा कि करमापा इस सदी की शुरुआत में जिन परिस्थितियों में चीन से भागकर भारत आए थे, तब भी उनकी बातों पर गुप्तचर एजेंसियों को यकीन नहींहुआ था। उनकी उम्र व करमापा के अवतार होने की बातों पर शक जताया गया था। धीरे-धीरे शक-शुबहे पर धार्मिक आस्था ने प्रभाव जमा लिया, और वे सारी बातें दब गयीं। अब विदेशी मुद्रा पकड़ाने से पुरानी बातों को भी खंगाला जा रहा है। फिलहाल यही उचित होगा कि इस प्रकरण में केवल कानून को ऊपर रखकर जांच-पड़ताल और कार्रवाई की जाए, और भावनाओं में बहकर अतिरेकपूर्ण बयानबाजी, विश्लेषण या अनुमान न लगाया जाए। धर्मशाला के मठ की तरह भारत के कई स्थानों में विभिन्न धार्मिक स्थलों में अकूत संपत्ति एकत्र है, जो धर्मगुरुओं को श्रध्दालुओं के दिए दान से एकत्र हुई है। धर्म के नाम पर एकत्र हो रही काली-सफेद कमाई का हिसाब-किताब सरकार लेती रहे, तो काले धन के कई मामले उजागर होंगे। |
आज महिला सशक्तीकरण की खूब चर्चा है। सरकार से लेकर मीडिया तक इस बात को दोहरा रहा है कि देश में महिलाओं की हालत में बदलाव आ गया है। अक्सर कुछ प्रसिद्ध महिलाओं की सफलता की मिसाल दी जाती है। यह सच है कि औरतों की हालत में सुधार हुआ है। वे सामाजिक-आर्थिक रूप से समर्थ हो रही हैं, लेकिन यह बदलाव एक खास तबके तक ही सीमित है। आज भी महिलाओं का बड़ा वर्ग पहले की तरह ही असहाय है। आज भी स्त्रियां भेदभाव और हिंसा का शिकार हो रही हैं। सशक्त समझी जाने वाली शिक्षित कामकाजी महिलाएं भी इससे बच नहीं पा रही हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान, बेंगलुरु और इंटरनैशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमन द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार उन शादीशुदा महिलाओं को, जो काम पर जाती हैं, घरेलू हिंसा का ज्यादा खतरा झेलना पड़ता है। जिन महिलाओं के पति को नौकरी मिलने में दिक्कत आ रही थी या नौकरी में मुश्किलें आ रही थी, उन्हें दोगुनी प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी। शोध मैं चौंकाने वाली बात यह थी कि प्रेम विवाह करने वाली महिलाएं भी बहुत ज्यादा हिंसा झेल रही थीं। परिवार में पहले हिंसा की शिकार मां हुआ करती थीं, अब बेटियां भी हो रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में पिछले दो दशकों में करीब 18 लाख बालिकाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं। हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं के मुताबिक उन बालिकाओं की जान को खतरा बढ़ जाता है, जिनकी मां घरेलू हिंसा की शिकार होती रही हैं। जबकि ऐसा खतरा बालकों को नहीं होता। शोध के मुताबिक पति की हिंसा की शिकार औरतों की बच्चियों को पांच वर्षों तक सबसे ज्यादा खतरा होता है। हालांकि इसकी एक बड़ी वजह उपेक्षा भी है। लड़कियों के टीकाकरण तक में लापरवाही बरती जाती है। बीमारी में उनका इलाज तक नहीं कराया जाता। भारत में इस समय करीब 21 लाख बच्चे हर साल मर जाते हैं। सहस्राब्दी विकास मानकों के तहत बाल मृत्यु दर में 2015 तक दो तिहाई कमी का लक्ष्य भारत ने रखा है, लेकिन फिलहाल लक्ष्य पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। इसलिए विशेषज्ञ कहते हैं कि घरों में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को समाप्त किया जाए तो हजारों बालिकाओं की जान बचाई जा सकती है। इसलिए लड़कियों के स्वास्थ्य संबंधी किसी भी कार्यक्रम और नीति को लागू करने में घरेलू हिंसा के पहलू पर ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है। विडंबना तो यह है कि भारत में पुरुषों का एक बड़ा तबका इस हिंसा को जायज ठहराता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे में इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य का खुलासा हुआ। इसमें आधे से ज्यादा लोगों ने हिंसा को सही ठहराया। ऐसे में बदलाव आए तो कैसे! महिलाओं को न जाने कितने मोर्चों पर यंत्रणा झेलनी पड़ती है। हिंदी फिल्मों का एक विदाई गीत है - मैं तो छोड़ चलीबाबुल का देस पिया का घर प्यारा लगे। दशकों से यह गाना बहुत लोकप्रिय रहा है पर अफसोस कि बाबुल का देसछोड़कर ससुराल जाने वाली बहुत सी महिलाओं के लिए यह बिल्कुल जले पर नमक छिड़कने जैसा मामला है। अपने बाबुल का देस छोड़कर कितनी ही महिलाएं इस उम्मीद के साथ दक्षिण एशिया की दहलीज लांघती हैं कि ब्रिटेन मेंअपने जीवन साथी के साथ उनके सपने पूरे होंगे। लेकिन दक्षिण एशिया से ब्रिटेन आकर विवाह करने वाली अनेकमहिलाओं के साथ ससुराल में घरेलू नौकरों की तरह बर्ताव होता है। वर्ष 2008-09 में आवास के लिए आवेदन करनेवाली महिलाओं में से 500 से अधिक को शादी टूटने के बाद देश से बाहर निकाल दिया गया। ये महिलाएं साबित नहींकर पाईं कि इनके साथ किसी तरह का उत्पीड़न हुआ है। महिलाओं के साथ यह भी एक बड़ी समस्या है। वह अक्सर अपनेसाथ हुए अत्याचार को साबित नहीं कर पातीं। घरेलू हिंसा को रोकने के लिए 2006 में कानून लाया गया था। लेकिनआज भी इस कानून को ढंग से अमल में नहीं लाया जा रहा है। जब तक समाज के नजरिए में बदलाव नहीं आएगा तब तकमहिलाओं की स्थिति नहीं बदले गी। |