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Sunday, August 26, 2012

एक आशा की किरण  
राजन कुमार
22 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा हुई, जिसमें प्रणब मुखर्जी को विजयी घोषित किया गया और 25 जुलाई को प्रणब ने राष्ट्रपति पद की शपथ भी ले लिए। देश भर में कई जगहों पर लोगों ने खूब खुशियां भी मनाई और आदिवासी लोगों में उम्मीद जगी है कि उनके विषय में उठाए मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस होगी और सामाधान ढूंढा जाएगा। राष्ट्रपति चुनाव पूर्व संविधान द्वारा प्रदत्त आदिवासियों के अधिकार की रक्षा का मुद्दा उठाया गया था।
आदिवासियों की दलील थी कि स्वतंत्र भारत के अब तक के सभी राष्ट्रपतियों द्वारा अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं करने के कारण ही आज आदिवासी क्षेत्र काफी ज्वलनशील हैं, विकास के नाम पर आदिवासियों का जबरन विस्थापन और शोषण किया गया है, जो अभी भी जारी हैं। संविधान के नियमों का आदिवासी क्षेत्रों में खुलेआम उल्लघंन किया गया है, जो राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
आज आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की दयनीय स्थिति पर भारत के के राष्ट्रपति और राज्यपाल को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। आदिवासी समुदाय का सवाल है कि आखिर आदिवासी क्षेत्रों में क्यों नहीं ये(राष्ट्रपति और राज्यपाल) अपने अधिकारों का इस्तेमाल किए? आदिवासी समुदाय शोषण से तंग आकर आदिवासी क्षेत्रों में संविधान के नियमों के पालन के लिए ही राष्ट्रपति चुनाव में अपना आदिवासी उम्मीवार उतारा।
लेकिन सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में संविधान के नियमों का हमेशा उल्लघंन होता रहेगा? क्या आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा नहीं होगी और हमेशा इसी तरह आदिवासियों का शोषण होता रहेगा? क्या अनुसूचित क्षेत्रों में असंतोषजनक स्थिति बनी रहेगी?
आदिवासी समुदाय पिछले 62 वर्षों की तरह आज फिर अपने नए महामहिम प्रणब मुखर्जी से आदिवासी क्षेत्रों में संविधान के नियमों की रक्षा के लिए टकटकी निगाह लगाए बैठा है। आदिवासी समुदाय इस आशा में है कि नए महामहिम अपने अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे और अनुसूचित क्षेत्रों के सभी राज्यपालों को निर्देश देंगे कि वे भी अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर अनुसूचित क्षेत्रों में शांति कायम करने की कोशिश करें।
राष्ट्रपति चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद आदिवासी उम्मीदवार पी.. संगमा ने प्रणब मुखर्जी को जीत की बधाई दी और आशा व्यक्त किया नए राष्ट्रपति द्वारा अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया जाएगा, जिससे अनुसूचित क्षेत्रों (जो खनिज संपदा से परिपूर्ण हैं) में शांति कायम हो सकेगी। पी.. संगमा ने जोर देकर कहा कि आदिवासी मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दे हैं और आदिवासी मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।
जाहिर है कि संविधान ने राष्ट्रपति और राज्यपाल को अनुसूचित क्षेत्रों में सीधे हस्तक्षेप करने की शक्ति प्रदान की है। अनुसूचित क्षेत्र, जो खनिज संपदा के भंडार हैं, और अनुसूचित क्षेत्रों में ही आदिवासी जन्मों जन्मांतर से निवास करते आए हैं। अनुसूचित क्षेत्रों में खनिजों के दोहन के लिए सरकारी-गैर सरकारी कंपनियों द्वारा अवैध ढंग से आदिवासी जमीनों का हस्तांतरण किया जा रहा है, आदिवासियों को प्रताड़ित कर भगाया जा रहा है, उनके जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, जिससे यहां (अनुसूचित क्षेत्र) नक्सलवाद-माओवाद जैसी विकट स्थिति पैदा हो गई है कि आए दिन सुरक्षा बलों द्वारा या माओवादियों द्वारा आदिवासियों का नरसंहार किया जाता है। आदिवासियों के शोषण और नरसंहार का मामला चितंनीय है। प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों एंव अन्य विचारकों द्वारा यह स्वीकार किया जा चुका है कि नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी आंतरिक समस्या है। लेकिन दुखद बात यह है कि पिछले बीस वर्षों के जबसे माओवाद ने पैठ बनाई, तब से इन अनुसूचित इलाकों में फैल रही अशांति पर तो राष्ट्रपति की ओर से ही अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्यों के राज्यपालों की ओर से ही अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग किया गया है।
Rajan Kumar
सर्वाधिक समृद्ध (प्राकृतिक संसाधन) क्षेत्र सीधे-सीधे राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। भारत में प्राकृतिक संसाधनों जैसे खनिज, वन एवं जल के विशाल स्रोत मौजूद है और इनकी लूट ही आज की सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में अब तक इनके (राष्ट्रपति और राज्यपाल) द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों में असंतोष से उपजे माओवाद की समस्या को लेकर रखा गया मौन अत्यंत विचलित करता है। यदि इन क्षेत्रों(पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आनेवाले क्षेत्र) में ये दोनो संवैधानिक पद (राष्ट्रपति और राज्यपाल) अपनी सही भूमिका अदा करें तो निश्चित ही असंतोषजनक विकट स्थिति से छुटकारा मिल सकता है।

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