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Sunday, July 10, 2011

आदिवासियों का विकास और शिक्षा से ही नक्सलवाद का समूल नाश संभव
Rajan  kumar राजन कुमार
आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे नक्सली तेजी से कदम पसार रहे है और साथ-साथ आदिवासी युवाओं को भी इस फौज मे तेजी से झोंक रहे है। जिससे इन आदिवासी युुवाओं के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा हेै। अगर समय रहते इन आदिवासी युवाओं के लिए कोई कारगर कदम नही उठाया गया तो एक दिन सभी आदिवासी युवा नक्सलियों के चपेट मे होंगे। सरकार नक्सलियों से निपटने का उपाय सिर्फ युद्ध में तलाश रही है और मर रहें हेैं आदिवासी युवा! सरकार अगर आदिवासियों के विकास और शिक्षा का विशेष प्रावधान करे तो नक्सलियों का समूल नाश संभव है।
अशिक्षा, भूखमरी और बेरोजगारी, प्रशासनिक कर्मचारियों और नक्सलियों के प्रताड़ना के कारण ही आदिवासी युवा मजबूरन नक्सली बनने पर मजबूर हो जाते है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र मे कहने मात्र के लिए कोई पुलिस स्टेशन या पुलिस चौकी होता है वहां तो सिर्फ नक्सलियों की तूती बोलती है। प्रशासनिक कर्मचारी या नेता, क्षेत्र के दबंग, पावरफुल लोग समाज के सबसे निर्दोष लोगों पर बर्बरता पूर्वक अत्याचार करते है, उनके  जंगल, जमीन पर जबरन कब्जा, हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसी संगीन अत्याचार करते है। जब इनकों कहीं से न्याय नही मिलता है तो ये लोग नक्सलियों के बहकावे मे आकर नक्सली बन जाते है। नक्सली बने आदिवासी जब सामान्य जीवन मे लौटना चाहते है तो नक्सली उनके पुराने जख्मों को पुन: कुरेद कर हरा कर देते है। उस परिस्थिती में उसके चारो तरफ खाई नजर आती है और आदिवासी चाह कर भी नही लौट पाता है। स्पष्ट तौर पर सरकार ही आदिवासियों के इस हालत की जिम्मेदार है। आदिवासियों से छल-कपट सरकार ने किया, उनके जमीन, जंगल को जबरन अधिग्रहित कर लिया, जो थोड़ा बहुत बचा उसे दलाल सरकारी कर्मचारियों से मिलीभगत कर जबरन लूट लिए, अब तो आदिवासी बिल्कुल बेघर हो चुका है। खुले आसमान के नीचे जीवन यापन करना, तालाबों का गंदा पानी पीना, घास खाकर जीवित रहना बिल्कुल पशुओं जैसी रहन-सहन! इन हालातों मे नक्सली ही इनका साथ देते है, और भोले भाले आदिवासी बन जाते है नक्सली! झारखण्ड, उड़ीसा के आदिवासियों को सरकार ने जब बेघर कर दिया तब कुछ आदिवासी नक्सली बन गए और कुछ असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों मे शरण ली। जहां उन्हे निम्न पगार से भी बहुत कम पगार दिया जाता है। ना घर है ना किसी प्रकार की सुविधा। रहना है और जीना है सिर्फ चाय बागान मालिक के रहमो करम पर।  जो नक्सली बन गये वो अपने अगली पीढ़ी को नक्सली नही बनाना चाहते लेकिन दूसरा कोई उनके पास चारा भी नही है।
सरकार आदिवासियों के भावनाओं को समझने के बजाय उन्हें मार रही है, जो कुछ आदिवासी अपने संस्कृति और समाज के लिए बचे उनके भी हाथों मे जबरन हथियार थमा कर सलवा जुडूम बना रही है। आदिवासी को आदिवासी से लड़ने पर मजबूर कर रही है। नक्सलियों के फौज में  लगभग 98 प्रतिशत आदिवासी होते हैैं जबकि इसका कमांडर कोई अन्य होता है और वह शहरों मे रह कर नक्सली फौज को संचालित करता है। अपने लड़कों को अच्छे स्कूलों मे दाखिला कराता है, महलों मे रहता हैै, और वनों मे रहे रहे भोले भाले आदिवासियों और उनके बच्चों को नक्सली बनाता है।
सरकार वाकई नक्सलियों का समूल नाश चाहती है तो उसे युद्ध का रास्ता त्याग कर आदिवासियों के विकास और शिक्षा पर जोर देना होगा। कुछ नियम आदिवासियों के लिए जरूर बने है लेकिन इसका फायदा आदिवासी नही  मिल पाता! भोले भाले अशिक्षित आदिवासियों को कुछ भी पता नही कि उनके विकास के लिए कितने रूपये केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की तरफ से आवंटित किए जाते है? किसके माध्यम से आते है? और किसके पास आते है? आदिवासी सिर्फ वोट देना जानता है, इसके सिवा उसे कुछ पता ही नही! उम्मीदवार उनके क्षेत्रों मे जाते है, आदिवासियों के हाथ जोड़ते है, कई वादें करते है, कुछ खाने पीने की चीजें उपलब्ध करा देते हैं। जनप्रतिनिधि बनने के बाद पता नही आदिवासी मर रहा है कि क्या हो रहा है, पता ही नही। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी तो बेघर होने के बाद नक्सली बन गए, बाकी सलवा जुडूम उसके बाद जो कुछ बचे नक्सलियों की गुलामी करते है। इन आदिवासियों के सामने ही नक्सली इनकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार करते है, बंदूक के बल पर अपना काम कराते है, इसके बाद पुलिस वाले इन आदिवासियों को नक्सलियों के काम करने के अपराध मे जेल मे डाल देते है। अब सड़ते रहें जिंदगी भर जेल में! इन आदिवासियों के परिजनों के पैसा तो है नही कि इनका जमानत करा सकें। ऐसे इलाकों मे दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, बंगलुरू आदि कई महानगरों से दलाल जातें है और आदिवासियों लड़कियों को बहला -फुुसला कर महानगरों मे लाकर बेच देते है।
अशिक्षित होने के कारण ही आदिवासी युवतियां दिल्ली समेत कई महानगरों मे बेची जाती है। दलाल उन्हे जिस्मफरोशी के धंधे मे धकेल देते हैं या प्लेसमेंट एजेंसियों वालों को बेच देते है। जहां प्लेसमेट एजेंसी वाले आदिवासी युवतियों को 1 साल या 6 महीने के लिए नौकरानी के तौर पर लोगों के यहां गिरवी रख देते है। और फिर एक साल बाद उसे छुड़ा कर दूसरे जगह गिरवी रख देते है। प्लेसमेट   एजेंसी वालों का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है।
हम दिल्ली की बात करें तो लगभग 2 लाख से भी अधिक आदिवासी लड़कियां झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, असम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और पूर्वोत्तर समेत कई प्रदेशों से दलालों द्वारा बहला फुसला कर लायी गयी हैं और लोगों के यहां गिरवी है। इन बेबस आदिवासी लड़कियों का कोई भी अभिभावक नही है, और न ही कोई पहचान। पशुओं की तरह जीवन यापन कर रहीं है प्लेसमेंट एजेंसियों के रहमो करम पर। आदिवासियों के समस्याओं के समाधान हेतु केन्द्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग बनाया गया है। आदिवासियों के हित के लिए संविधान मे कर्ई नियम कानून बनाया गया , संसद मे आदिवासी कोटा में रिजर्व सीट से 42 एमपी हैं। कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री और मंत्री आदिवासी हैं, केन्द्र से राज्य सरकार तक कई आदिवासी मंत्री आदिवासियों के नाम पर आदिवासियों के लिए ही बनाये गये है। इसके बावजूद आज भी आदिवासियों की उपेक्षा जारी है। आदिवासियों के हित के लिए कई सरकारी गैर सरकारी एनजीओ बनाये गये है, एनजीओ के कार्यकर्ता वातानुकुलित कमरें मे बैठ कर आदिवासियों के बारे मे जरूर लिखते है, लेकिन हकीकत तो यह आदिवासियों के बारे मे उन्हे कुछ खास पता ही नही है। आदिवासी  भारत के किन-किन प्रदेशों मे रहतें है, कैसे रहतें है, क्या करते हैं सरकार और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहा है। किसी के मुंह से सुन लिए और लिख कर आदिवासियों के नाम पर फंड ले लिए। आदिवासियों के नाम पर देश -विदेश से फंड लेते है, लेकिन अफसोस कि उस फंड का आदिवासियों मे उपयोग नही किया जाता हेै। आदिवासियों के नाम से मिला फंड भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अगर भोले भाले अशिक्षित आदिवासी शिक्षित हो जाये तो सबसे अमीर हो जायेंगे। लेकिन सरकार ऐसा चाह नही रही है। अगर आदिवासी शिक्षित हो गया तो अपने अधिकारों की मांग करेगा, उनके जंगल, जमीनों को लूटना मुश्किल हो जायेगा, तब हमारे पास इतने पैसे कहां से आयेंगे, हम स्विस बैंक मे काला धन कहां से जमा करेंगे, शायद यहीं सोच हैं केन्द्र से लेकर राज्य सरकार के मंत्रियों का! आदिवासियों को अशिक्षा के अंधेरे मे रहने दो, आदिवासियों को वोट बैैंक बनाओ, एक आदिवासी को प्रतिनिधि बना कर करोड़ो आदिवासियों के हक और भावनाओं के साथ खेलो, आदिवासियों को लूटो, जीतने के बाद आदिवासियों को लालीपाप थमाओं, यहीं राजनीति बन गयी है केन्द्र और राज्य सरकारों का! तभी तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड समेत विभिन्न प्रदेशों मे आदिवासी प्रतिनिधि बनाने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन इससे आदिवासियों को फायदा क्या होगा? कुछ नही! आदिवासी जैसा है वैसा ही रहेगा।
अभी कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजस्थान मे आदिवासियों को देश का बुनियाद कहा था और भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने आदिवासियों के प्रगति के लिए राज्य सरकारों को कार्य करने को कहा था। सभी अखबारों और न्यूज चैनलों ने इस खबरों को प्रमुखता से जगह दिया था। मैने भी अपने साप्ताहिक पत्रिका दलित आदिवासी दुनिया  प्रमुखता से जगह दिया। इस खबर को पढ़ने के बाद पश्चिम बंगाल, असम, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से कई फोन हमारे पास आये और सभी ने क्षोभ और दु:ख प्रकट किया। उनका कहना था कि आप इन लोगों को इतना हाइलाइट क्यों करते हों जो हमारे समाज को लूटने के सिवा कुछ नही किया। ये लोग ऐसे ही आश्वासन देकर हम लोगों को सिर्फ लूटना जानते है। ये लोग कमजोर पड़े वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ही आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया और आदिवासियों को झूठा आश्वासन दिया।
सरकार द्वारा आदिवासियों पर हो रहे बर्बरता पूर्वक अत्याचार ही आदिवासियों  नक्सली बनने पर मजबूर कर रहा है। अगर सरकार आदिवासियों पर अत्याचार न करके उनके विकास और शिक्षा पर ध्यान दे तो मुझे पूरा विश्वास है नक्सलियों का समूल नाश हो जायेगा, क्यों कि आदिवासी ही उत्पीड़न का शिकार होकर नक्सली बनता हैै। जब आदिवासी शिक्षित हो जायेगा तो स्वत: ही वह समाज की मुख्य धारा से जुड़कर अपने और अपने समाज के हित के कार्य करेगा। आदिवासी आज नक्सली है तो उसमे उसकी कोर्ई गलती है, गलती सिर्फ और सिर्फ सरकार का है, और सजा भी नक्सली के बजाय सरकार को मिलनी चाहिए।
केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक नक्सलवाद और भोले भाले आदिवासियों को मोहरा बनाकर, आपस मे लड़ाकर राजनीति कर रही है। आखिर क्यों? नक्सलवाद से निपटने के लिए  सरकार सैकड़ो करोड़ रूपयें खर्च कर रही है लेकिन आदिवासियों के विकास के लिए क्यों नही कर रही है? सरकार अगर आदिवासियों के विकास पर जोर दे, शिक्षा पर जोर दे, आदिवासियों को रोजगार दे तो आदिवासी  नक्सली क्यों बनेगा? आदिवासी भी विकास चाहता है, समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। लेकिन सरकार के गैर जिम्मेदाराना रवैया के कारण ही आदिवासी आज तक समाज की मुख्य धारा से नही जुड़ पाया है। सरकार को चाहिए कि आदिवासियों को शिक्षित करें, उनका विकास करे, रोजगार प्रदान कराये, न कि सलवा जुडूम मे भर्ती कर उनका विनाश करे।
संविधान के निर्माता डा0 भीमराव अंबेडकर ने भी कहा है कि अगर पिछड़ा वर्ग शिक्षा ग्रहण कर ले तो सामाजिक विषमता स्वत: ही खत्म हो जायेगी और सभी लोग समाज की मुख्य धारा से   जुड़ जायेंगे।

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