Search This Blog

Saturday, September 1, 2012


इतना तिरस्कार क्यों?



राजन कुमार
असम के एक बहुत बड़े भू-भाग पर चाय बागान है, जिसमें एक करोड़ के आस-पास चाय श्रमिक काम करते हैं। चाय श्रमिकों की कोई खास खोज-खबर नहीं रखता, भले ही इन्हीं चाय श्रमिकों के वजह से आज चाय उद्योग के लिए असम विश्व विख्यात है। असम की बहुत कम खबरे सुर्खियों में रहती हैं, इसका भी शायद यहीं कारण हैं कि यहां बहुत बड़े भू-भाग पर चाय बागान है और मीडिया या कोई भी चाय श्रमिकों को खास तवज्जो नहीं देता। वैसे असम की कोई घटना अगर सुर्खियों में जाती है तो वह लगातार सुर्खियों मे बनी रहती है, लेकिन वो भी शर्त पर! खबर चाय श्रमिकों की नहीं होनी चाहिए। पिछले दिनों असम में बोड़ो और मुस्लिम समुदाय के बीच दंगा-फसाद, उसके पहले गुवाहाटी में नाबालिक लड़की के साथ सामुहिक छेड़छाड़ और उसके पहले असम में बाढ़ की खबर कई दिनों तक सुर्खियों में बनी रहीं। लेकिन वहां के चाय श्रमिकों के शोषण और व्यथा की खबर कभी शायद ही सुर्खियों में आई, जिन्हें चाय जनजाति के नाम से अलंकरण तो कर दिया गया लेकिन अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं दिया गया। दंगा-फसाद, नाबालिग से छेड़छाड़ और बाढ़ से पूर्व एक खबर थी, जिसे मीडिया सुर्खियों में तो नहीं लाना चाहती थी, लेकिन मजबूरी वश कुछ स्थानीय अखबारों को तो छापना ही पड़ा। खबर थी चाय श्रमिकों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का। 70 रुपए की दिहाड़ी वाले ये चाय श्रमिक बड़ी मुश्किल अपनी नौकरी दाव पर लगाकर दो-चार दिनों तक अनुसूचित जनजाति के दर्जा पाने के लिए आंदोलन एवं धरना प्रदर्शन किया। केंद्र सरकार के कानों तक इस खबर की जूं जब रेंगी तो राज्य सरकार इसे दबाने में कोई कोर-कशर भी छोड़ने के तैयार नहीं थी, लेकिन बाढ़, नाबालिग से छेड़छाड़ और दंगा-फसाद की खबरें जब सुर्खियों में आई तो अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के मामले को राज्य सरकार को दबाने का मौका मिल गया। चाय श्रमिकों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का मामला अब पता नहीं कब उठेगा, शायद पांच दस साल तो लग ही सकते हैं। सरकार तक इस खबर को संज्ञान में लाने में कई दशक लग गए तो स्वाभाविक अब फिर आधा-एक दशक लग ही सकता है।
चाय श्रमिकों को यहीं बात हमेशा सालता है कि उनका शोषण आखिर क्यों किसी को नहीं दिखता! राज्य और केंद्र के अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले हम (चाय श्रमिक) हमेशा समाज, सरकार और मीडिया द्वारा तिरस्कृत क्यों होते हैं? वैसे तो चाय बागानों में अक्सर एक-दो लोग भूख और गरीबी से रोज मरते हैं, इनकी तो कोई गिनती ही नहीं करता। इनकी प्रतिदिन इस भयंकर शोषण और संघर्ष की कहानी असम के एक स्थानीय हिंदी अखबार में छपी देखी थी, वो भी अंदर के पेज पर, जहां पर शायद ही किसी की नजर ठीक से पहुंचती हो। खबर थी ‘‘14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में।’’ यह खबर उस अखबार में इस लिए छप गया क्यों कि वह वहां का स्थानीय अखबार था और रोज के अपेक्षा कहीं अधिक मजदूर मरे थे, वो भी एक ही चाय बागान में। असम के कछार जिÞले में स्थित यह चाय बागान भुवन वैली चाय बागान के नाम से जाना जाता है। इस चाय बागान में बीते अप्रैल महीने में लगभग 14 से अधिक चाय मजदूर भूख और कुपोषण से मर गए और हजारों की संख्या में चाय श्रमिक बीमार थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि बागान प्रबन्धन ने 8 अक्टूबर 2011 को अचानक बागान बन्द कर दिया और मज़दूरों की सवा दो महीने की मज़दूरी भी ज़ब्त कर ली। आजीविका का कोई दूसरा इन्तज़ाम किये बिना मज़दूरों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया। इस चाय बागान पर कोलकाता के एक नीजि कंपनी का मालिकाना है।
यहीं खबर अगर किसी अन्य जगह की होती तो निश्चित ही राष्ट्रीय खबर बनती और मानवाधिकार से लेकर स्वयंसेवी संस्थाओं का यहां जमावाड़ा लग जाता। खबर कई दिनों तक सुर्खियों में रहती है, लेकिन इतने ज्यादा चाय श्रमिकों का एक साथ नियमित अंतराल पर मरना किसी के लिए कोई खास मायने नहीं रखता तो रोज एक दो चाय श्रमिकों का मरना क्या किसी के लिए मायने रखेगा। बिते महीने गुवाहाटी में नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ का मामला कई दिनों तक सुर्खियों में रहा, पूरा देश आक्रोशित था, मै भी इस खबर को सुनकर आक्रोशित था, लेकिन तीन साल पहले इसी तरह की गुवाहाटी में एक आदिवासी युवती के साथ घटी थी जब गुंडो, दबंगों की एक बड़ी फौज एक आदिवासी युवती की इज्जत तार-तार करने के लिए उसको नंगा कर दिया। सड़क पर नंगी भागती उस आदिवासी युवती को पूरा भारत देखा था, लेकिन कोई भी आदमी या पुलिस वाला उसकी सहायता करना मुनासिब नहीं समझा, क्योंकि वह आदिवासी युवती थी। नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी उस दिन अपनी नजरें चुरा रहे थे।
10 करोड़ आबादी वाले आदिवासी समुदाय द्वारा 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस देश के विभिन्न हिस्सों में मनाया गया। लेकिन यह खबर राष्ट्रीय खबर नहीं बन सकी, ही किसी स्थानीय अखबार की मुख्य खबर बन सकी। जबकि अन्य पर्व-त्यौहार हमेशा राष्ट्रीय खबर बनते हैं और प्रत्येक अखबार और चैनल की मुख्य खबर बनते हैं। 
समाज, सरकार और मीडिया द्वारा इनके प्रति इस तरह की बेरुखी आखिर क्यों? क्या ये इस देश के नागरिक नहीं है?   सबसे अमीर धरती के इन गरीब लोगों से कम से कम मीडिया को ऐसी तिरस्कार भावना नहीं अपनाना चाहिए।
Rajan kumar

No comments:

Post a Comment