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Wednesday, September 12, 2012

शहरी आदिवासी का रमणीय गांव
Rajan Kumar
जंगल-गांव छोड़कर जब आदिवासी शहर पहुंच चुके हैं तो अब अपने जंगल-गांव वापस नहीं जाना चाहते। कुछ योग्य बन कर तो कुछ आरक्षण के सहारे सरकारी नौकरी पाए तो कुछ को प्राइवेट नौकरी रास आ गया, जिसके सहारे आदिवासी शहर का रास्ता नाप लिए। शहर आकर आदिवासी इतने रम-झम गए हैं कि इन्हें अपने विशेष त्यौहारों पर चाह कर भी अपने घर जाने का मन नहीं करता। मुश्किल से घर पहुंच भी गए तो एक-दो दिन में ही लौट आते हैं। शहरी आदिवासियों का अपने गांव से कटने का मुख्य कारण है आदिवासी क्षेत्रों का विकास न होना। जंगल के बीच बसे गांव में जाने के लिए शहरी आदिवासी को कई मीलों पैदल चलना पड़ता है, जबकि शहर में तो 100 मीटर भी जाने के लिए रिक्शा या आॅटो रिक्शा में जाते हैं। 

जंगल के बीच बसा गांव कितना रमणीय लगता है, लेकिन उस रमणीय गांव में सिर्फ जंगल, पहाड़िया, झरने ही मिलते हैं, पीने का स्वच्छ पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। बारिश कम होती है, सिंचाई का कोई साधन नहीं, जिससे खाने के भी लाले पड़े रहते हैं। बड़ी मुश्किल से एक टाइम का खाना मिल पाता है।
इन्हीं मूल सुविधाओं के कारण शहरी आदिवासी को जंगल के बीच बसा अपना रमणीय गांव नहीं भाता, जबकि वहां (जंगल में) पर वर्षों से रहे आदिवासियों को अभावों के बीच जीने की आदत पड़ चुकी है और उनके बच्चे जो शहरी आदिवासी हो चुके हैं मूलभूत अभावों में एक पल भी नहीं रह सकते।
सरकार आदिवासी क्षेत्रों के चहुंमुखी विकास के दावे कर रही है, लेकिन शहरी आदिवासियों का गांव से कटे रहना सरकार के चहुंमुखी विकास के दावों की पोल खोल रही है। यहीं कारण है कि न चाहते हुए भी भारी संख्या में आदिवासी युवक-युवती अपने गांव से पलायन को मजबूर हैं, जबकि शहरी आदिवासियों को अपने गांव से दूर होने का दर्द हमेशा सताता रहता है।

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